2005 में एक निर्णय देते समय माननीय सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 498A के बारे में यह कहा था, ‘ जैसा दर्ज है, इसका उद्देश्य दहेज प्रथा पर एक कडा प्रहार है। पर इसके दुरुपयोग से एक नई प्रकार की वैधानिक आतंकवाद जन्म ले सकती है। इस कानून का इस्तेमाल एक ढाल के तौर पर होना चाहिए, हत्या के लिए अस्त्र के तौर पर नहीं।” 2014 में एक दूसरी पीठ ने ये कहा था, ‘ यह तथ्य की धारा 498A एक गैर ज़मानती अपराध है, एक तरह से कुपित पत्नियों को एक अस्त्र प्रदान करता है अपनी झूठी शान को बनाए रखने के लिए।‘ 2008 में दिल्ली हाइ कोर्ट की एक पीठ ने कहा था, ‘इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं की आधे से ज़्यादा शिकायतें तैश में आकर छोटी छोटी लड़ाइयों पर दर्ज की जाती है, और ये भी आम बात है की इस पसोपेश में, सबसे ज़्यादा नुकसान मासूम बच्चों का होता है।“
हमारी माननीय न्यायपालिका द्वारा ऐसे विचार रखने से साफ है की 498A के तहत शिकायतों द्वारा व्याप्त नाइंसाफी एक दशक से भी ज़्यादा व्याप्त है। पर इसके विरुद्ध संसद ने किसी प्रकार की कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है, जिसके कारण आज भी कई निर्दोषों को अन्याय से दो चार होना पड़ता है, जिनमें अधिकांश पीड़ित पुरुष होते हैं। इसलिए अब न्यायपालिका पर इस व्यवस्था से निपटने का भार आ गया, जिसके दुरुपयोग के कारण काफी गलतियाँ हुई है, और इनके प्रयास से असल पीड़ितों के हितों को नुकसान पहुंचाए बगैर निर्दोषों की रक्षा की जा सकती है।
एएसजी ए एस नादकरणी और वरिष्ठ अधिवक्ता वी गिरि की प्रस्तुतियों पर गौर करने के पश्चात एके गोयल और यूयू ललित की दो सदस्यीय पीठ ने धारा 498A पर आगे दर्ज होने वाली शिकायतों के लिए औपचारिक निर्देश दिये। अपने निर्देश में कोर्ट ने साफ किया की इन शिकायतों के साथ त्वरित गिरफ्तारियाँ नहीं होगी, और साथ ही साथ इनहोने हर जिले में एक परिवार कल्याण समिति के गठन की घोषणा भी की, जो ऐसे शिकायतों का मुआयना करेगी। कोर्ट ने साफ किया की जब तक समिति तथ्यों और उससे संबन्धित विचारों पर आधारित अपनी रिपोर्ट नहीं भेजती, तब तक कोई गिरफ्तारी नहीं होगी। इसके साथ साथ ऐसी शिकायतें एक विशेष रूप से गठित इलाके का इन्वैस्टिगेशन ऑफिसर देखेगा।
न्यायपालिका द्वारा धारा 498A का नियमित विश्लेषण ये साफ करता है की यह देश के सबसे खराब तरीके से बनाए क़ानूनों में से एक है, जिसका दुरुपयोग करना बहुत आसा है। मजे की बात, ये कानून का गठन और क्रियान्वयन 2014 तक संभव था, जिसके बाद सूप्रीम कोर्ट ने एक केस लॉं बनाया, जिसके तहत पुलिस अनुचित गिरफ्तारियाँ नहीं कर सकती थी। जो अभियुक्त थे, उन्हे बिना किसी लिखा पढ़ी के ही गिरफ्तार कर लिया जाता था, सिर्फ शिकायत दर्ज करने पर। सूप्रीम कोर्ट द्वारा जारी किए गए दिशा निर्देश ऐसे दुरुपयोग को रोकने के लिए एक स्वागत योग्य कदम है।
आईपीसी की धारा 498A के तहत दोष सिद्ध करने का दर काफी निराशाजनक रहा। राष्ट्रीय क्राइम रेकॉर्ड्स ब्यूरो के द्वारा निकाले गए ऑल इंडिया क्राइम डाटा के अनुसार आईपीसी के सभी केसेज़ के दोष सिद्ध करने के दर, यानि 38.5% के मुक़ाबले महज 15% थी।
इससे साबित होता है की 2014 और 2015 में दोष सिद्ध करने का दर, उन मामलों के लिए जो आईपीसी की धारा 498A के तहत दर्ज हैं, आईपीसी के सारे मामलों का एक तिहाई भी नहीं है। यह दर तो और भी हास्यास्पद प्रतीत होती है, जब इस श्रेणी को दर्ज मामलों के प्रथम 10 श्रेणियों में गिना जाता है। ये तो कुछ भी नहीं है, 2006-2015 के बीच में दर्ज इन मामलों में 10 में सिर्फ तीन दोषी पाये जाते थे। साफ साफ कहे, तो दोष सिद्ध करने का दर धीरे धीरे घटता ही जा रहा है, और जमानत और बरी होने के मामले उफान पे है।
न्याय की भावना के तहत जहां हर व्यक्ति को दोषी सिद्ध होने तक निर्दोष समझा जा सकता है, 498A के नज़रिये में इसके ठीक उलट होता है। अब यह अभियुक्त के ऊपर है की वो कैसे अपने आप को निर्दोष सिद्ध करे, न की शिकायतकर्ता के ऊपर।
उचित कानून वर्तमान की सच्चाई की एक सूक्ष्म मूल्यांकन के बाद बनाता है। पर हमारा कानून तो अति नारीवादियों के इशारे पर बना है, जिसके तहत ये मान लिया जाता है की हर मर्द आततायी है और हर औरत पीड़ित। इसीलिए इनके अनुसार औरतों के हक़ के लिए ऐसे कानून बने, जो कथित मर्दवाद के सुविधाओं पर एक करारा प्रहार कर पाए। ऐसी मानसिकता की झलक तब मिलती है जब कानून सभी आदमियों को दोषी मानकर और सभी औरतों को निर्दोष मानकर ऐसे मामलों में अपना फैसला सुनता है। बनाए गए कानून में यही ध्यान में रखा जाता है की औरतें हमेशा सच बोलती है जबकि सच तो यह है की औरतें उतना ही झूठ बोलने में सक्षम है, जितना आदमी।
सूप्रीम कोर्ट के इन निर्देशों के विरुद्ध नारीवादी प्रतिक्रिया इस बात की पुष्टि करता है। फ़र्स्टपोस्ट पर देया भट्टाचार्य, जो निस्संदेह एक नारीवादी है, उनके लिखे गए लेख का शीर्षक है ‘घरेलू हिंसा : सूप्रीम कोर्ट परिवार की इज्ज़त को औरतों के हकों के ऊपर रखता है।‘ इनके अनुसार, कोर्ट ने औरतों पर सदियों से व्याप्त अत्याचार को दरकिनार रखते हुये मर्दों के कथित हकों को बचाने का बीड़ा उठाया है।‘ इनके लिए, कानून के दुरुपयोग पर कैंची चलाना औरतों के हित में नहीं है। इन नारीवादियों की चले, तो हजारों निर्दोष आदमियों की बाली चढ़ाकर नारी सशक्तिकरण की एक नयी इबारत लिखी जाएगी।
सूप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गए दिशा निर्देश पुरुषों के अधिकार के लिए चलाये गए अभियानों के लिए एक अहम विजय है। काफी समय से निर्दोष पुरुषों के अधिकारों पर 498A की दमनकारी धारा भारी पड़ती थी। अभी तो बहुत दूर जाना है इस रास्ते पर, पर ये एक अहम निर्णय से कम भी नहीं है। ऐसे पल में मैं उन सभी को बधाई देता हूँ, जिनहोने इस अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाई, जिसे नारी सशक्तिकरण के नाम पर चलाया जा रहा था। एक विशेष बधाई दीपिका नारायण भारद्वाज को, जिनहोने इस मुद्दे पर काफी समय से काम किया है और खुद पुरुषों पर इस कानून द्वारा हो रहे अत्याचारों के खिलाफ आवाज़ भी उठाई है।.
One need to fight with the system and the judiciary and not with opposite Party in these cases. If the system is not corrupt and judiciary is good then in no way these false cases will continue for more then 4-5 weeks.