अच्छा, तो सर्कल पूरा हो गया है। आखिर, (यहाँ तक कि) बरखा दत्त ने दक्षिणपंथ के शब्दावलियों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। एनडीटीवी के लिए उनकी हालिया पोस्ट यह थी, “मैं निश्चित रूप से एनडीटीवी को पीड़ित या योद्धा के रूप में नहीं देखती हूं। ओह प्लीज़, यही नकली उदारवाद है।”
बरखा दत्त अपने पूर्व सहयोगियों के बारे में बात कर रही थी जो जाहिर तौर पर समाचार आउटलेट के प्रबंधन के खिलाफ नहीं खड़े हो सकते। सभी पक्षों के लिए यह बात स्वीकार्य है कि हमेशा ”संपादक” का फैसला होता है कि क्या प्रकाशित किया जाएगा और क्या नहीं किया जाएगा। लोग अक्सर दूसरों पर एक प्रकार का अधिकार जताकर लगातार खुश होते हैं और उन्हें लगता है कि यही उनकी शक्ति है। समाचार आउटलेट के संपादकों को हमेशा सभी प्रभावित पक्षों द्वारा प्रलोभन देने की आशंका होती है; यह ठग, चोर, अधिकारी, मशहूर हस्तियां और निश्चित रूप से हमारे प्रिय राजनेता हो सकते हैं। एक वक्त था जब कई राजनीतिक, दार्शनिक विचारक अपने स्वयं के समाचार पत्र प्रकाशित करते थे। तिलक का केसरी, गांधी का युवा भारत, राजा जी का स्वराज्य, सीपीआईएम का गणशक्ति, मरन का मुरासोली, ठाकरे का सामना, रामोजी राव का इनाडु, जैसे कई अखबारों ने अपने संपादकों के विचारों के आधार पर आम जनता की राय को ढाला।
यह एक विशेषता है कि सफल संपादक अक्सर प्रदर्शित करते हैं। कभी शक्तिशाली राजनेता भी संपादकों पर निर्भर होते हैं, खासकर चुनावों के दौरान। हालांकि उन पुराने अच्छे दिनों में उन्होंने जो लिखा उसमें थोड़ी नैतिकता थी। फिर ड्राइंग रूम में खबरों, विश्लेषण और डिबेट के साथ उभरे टेलीविजन मीडिया के आगमन के साथ प्रिंट मीडिया को थोड़ा पीछे खींच लिया गया। आर्थिक सुधारों में एक बार स्थापित होने के बाद आपसी प्रतियोगिता बढ़ गई जिस वजह से अब केवल टीआरपी ही महत्वपूर्ण रह गया है।
आखिरकार मीडिया में काम करने वाले लोग भी इंसान है और प्रलोभन के लिए व्यक्तिपरक ही हैं। और हम जिस शानदार भ्रष्ट समाज में रहते हैं, राजनेताओं को बखूबी यह पता है कि कम वेतन वाले पत्रकारों के इगो को कैसे शांत करना है और कैसे उनकी इच्छाओं की पूर्ति करनी है।
हालांकि, समस्या तब शुरू हुई जब मीडियाकर्मियों ने यह मानना शुरू कर दिया कि वह सिस्टम से ऊपर है और चुनाव के मद्देनजर आम जनता को प्रभावित कर सकते हैं। इस ‘प्लेइंग गॉड’ सिंड्रोम ने बेहतरीन पेशेवरों को प्रभावित किया। वह दिन अब जा चुके हैं जब एक संपादक अखबार को चलाने के लिए लालायित था। अब प्रतिभा अत्यधिक रूप से उपलब्ध है, और एक छोटी सी बात पर लोग अपनी राय बदलने के लिए तैयार है। उनमें से बहुत से लोग इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि वह केवल सार्वजनिक राय को जनमत में प्रचार कर सकते हैं, उसे बना नहीं सकते। फिर भी वह कॉरपोरेट्स और राजनीतिज्ञों में से अपने लोगों को लुभाने के लिए ढोंग करते हैं कि वह लोग सार्वजनिक राय तैयार करते हैं।
चो रामास्वामी ने एक बार कहा था कि वह सरकार की आलोचना के लिए स्वतंत्र हैं क्योंकि उनके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है, वहीं उनके विपरीत रामनाथ गोयनका जिनके पास अन्य व्यवसाय भी थे। लेकिन जब पत्रकार सैकड़ों करोड़ के मीडिया साम्राज्यों की स्थापना करने वाले व्यापारियों में बदल जाते हैं तो उनसे रिपोर्टिंग और विश्लेषण में निष्पक्षता और सुसंगत रहने की उम्मीद करना एक तरह की मूर्खता है। हर व्यक्ति को किसी भी धर्म शास्त्र, दर्शन, यहां तक कि राजनीतिक संबंधता की ओर झुकाव रख कर अपनी राय रखने का अधिकार है। उनमें जब कोई अपने प्राथमिक पसंद को स्पष्ट रूप से बताता है और इसे विस्तृत करता है, लोग इसे अपने दृष्टिकोण के रूप में समझते हैं। हालांकि, जब कोई चिल्लाते हुए यह कहता है कि वह “तटस्थ” है और वही एक पक्षपाती रिपोर्ट का प्रचार करता है, तब पाठक इन विसंगतियों को नोटिस करने के लिए बाध्य हो जाते हैं। समझदार संपादक अपनी सीमाओं को अच्छी तरह से समझते हैं यानी, वे केवल लोगों की राय को आगे बढ़ा सकते हैं लेकिन स्वयं से नहीं बना सकते।
नरेंद्र मोदी की जीत एक व्यक्ति के खिलाफ चलाये गए निरंतर अभियान की सीमा दिखाता है कि कैसे सार्वजनिक रुप से सबसे प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के लेखन में उनके खिलाफ राय बनाये गए। वहीं दूसरी ओर वीपी सिंह ने राजीव गांधी के बोफोर्स घोटाले का पर्दाफाश करने वाले अखबारों की मदद से अपने जीत का रास्ता तय किया था। इसका मतलब यह नहीं है कि मीडिया अब कमजोर है। वे अपने तरीके से मजबूत है। जब वे जो हैं उससे अलग करने की कोशिश करते हैं तभी कमजोर होते हैं।
राजनेता बहुत चतुर प्रजातियां हैं। उन प्रजातियों की तुलना में कम से कम बहुत तेज हैं जो खुद को पत्रकार कहते हैं। जब कोई मीडिया आउटलेट किसी विशेष पार्टी के राजनीतिक विचार को अपनाता है तो यह केवल संपादक के विचारों का झुकाव दिखाता है। जब तक की राजनीतिक दल को किसी अप्रत्याशित लाभ की संभावना नहीं दिखती, यह जरुरी नहीं कि संपादक/मीडिया आउटलेट को अपने समर्थन के बदले कुछ मौद्रिक लाभ मिले। हालांकि की राजनीतिक संगठनों द्वारा अपने विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करने और उसके प्रसार के लिए मीडिया आउटलेट्स की छानबीन कर उसका चयन किया जाता है। और यहाँ से मीडिया हाउस की प्रभावशाली शक्ति और ऊपर तक पहुँच होती है, चाहे वह समाचार पत्र हो या एक टेलीविजन मीडिया हो और यहाँ तक कि कोई इंटरनेट मीडिया वेबसाइट हो। जब कोई राजनीतिक पार्टी एक निजी मीडिया आउटलेट का समर्थन करती है, तो यह पार्टी के चुनावी भाग्य को आगे बढ़ाने के एकमात्र लक्ष्य को लेकर उस मीडिया हाउस के साथ एक शुद्ध व्यापारिक लेन देन होता है।
यहां तक कि यदि मीडिया आउटलेट आर्थिक रूप से मजबूत है, इसमें काम कर रहे व्यक्ति भी वही रहते हैं, प्रत्येक अपने स्वयं के हितों को आगे बढ़ाना चाहते हैं। इसीलिए राजनीति और मीडिया के बीच गठजोड़ की शुरुआत होती है। जब मीडिया और लेट छोटा होता है लेकिन प्रभावी होता है तो इसे “लागत प्रभावशीलता” के सरल व्यवसाय के कारण चुना जाता है।
बड़े उद्यमों के कुछ व्यक्ति अलग-थलग होकर अपना खुद का उद्यम शुरू करेंगे – जाहिर है, किसी न किसी राजनीतिक समर्थन के साथ। इनमें से कुछ आगे बढ़ पाते हैं और कुछ नहीं। फिर भी ज्यादातर लोग पैसे कमाएंगे जो कुछ पीढ़ियों तक उनके काम आएंगे। और यही बीते युग के पत्रकारों और उन 90 के दशक से देखे जा रहे लोगों के बीच का फर्क है।
छोटे उद्यमों के साथ लेनदेन में, मीडिया हाउस का राजनीतिको द्वारा हर संभव मात्रा में शोषण किया जाएगा। जब तक मीडिया हाउस को यह पता चलेगा कि क्या हो रहा है, तब तक पार्टी का नियंत्रण पूरी तरह से हो चुका होगा। संपादक को यह भी नहीं पता चलेगा की कब उनकी विचारधारा एक राजनीतिक महत्वकांक्षा में बदल गई है, हालांकि यह छोटी भी हो सकती है। इसके बाद तो यह पार्टी के लिए मुखपत्र बन जाएगा। जब तक संपादक को यह एहसास होगा कि उसका केवल उपयोग या दुरुपयोग किया गया है, तब तक वह पार्टी से सवाल करने और अपनी स्वतंत्रता पर जोर देने की स्थिति पर नहीं होगा। नैतिक आधार और सिद्धांत बहुत पहले ही खत्म हो चुके होंगे। व्यवहारिकता खत्म कर दी जाएगी। ज्यादातर मामलों में, विशेषकर उन लोगों के साथ जो अपने विचारधारा को लेकर सही है उनको मिलने वाला मौद्रिक मुआवजा उनके अपने खर्चे को कवर करने के लिए पर्याप्त नहीं था।
कहानी तब खत्म होती है जब संपादक एक कॉफी हाउस के छोटे से कोने में धूम्रपान करते हुए अपने अनुभवों को अगली पीढ़ी तक साझा करता है। वह पुरानी यादों में रहता है। वह जानता था कि वह अच्छा था लेकिन उसे समय पर ही धोखा दिया गया। उसे (संपादक) क्या पता चलता है? वह पार्टी ही थी जिसे मीडिया आउटलेट की जरूरत थी और कुछ नहीं। पार्टी ने उसी प्रतिष्ठा को भुनाया जिसे मीडिया हाउस ने कई सालों से बना कर रखा था। लेकिन पार्टी ने इसे इस तरह समझाया जैसे उन्होंने मीडिया हाउस को साथ जोड़कर एक एहसान किया है, जो की पूरी तरह बकवास है।
इस तरह मीडिया पंथ में व्यक्तिगत लालच के प्रभुत्व की कहानी चलती है। शायद बरखा दत्त ने अपने एनडीटीवी के सहयोगियों (पूर्व एवं वर्तमान) के बारे में जो लिखा था, वह सही था। बात यह है कि, उस व्यापार में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति प्रेस, राजनीति और कॉर्पोरेट के बीच के गठजोड़ को जानता है। सभी मीडिया हाउस (एनडीटीवी शामिल) ने जानकारियों को दबाया है और गलत समाचारों को प्रचारित किया है। उन्हें जब अनुकूल लगा उसके अनुसार उन्होंने इसे भाजपा और कांग्रेस दोनों के खिलाफ इस्तेमाल किया।
बरखा दत्त ने एनडीटीवी के बारे में क्या लिखा था वह महत्वपूर्ण नहीं है। बरखा दत्त द्वारा क्या नहीं बताया गया वह महत्वपूर्ण था। एक व्यक्ति के रूप में, जो राडिया टेप में शामिल थी, क्या बरखा दत्त को नहीं पता था कि एनडीटीवी कैसे काम कर रहा था ? 80-90 के दशक में अखबारों द्वारा रिपोर्ट में दंगा पीड़ितों के धर्म का उल्लेख नहीं किया जाता था और एकतरफा आंकड़े नहीं पेश किए जाते थे। यदि बरखा दत्त सोचती है कि एनडीटीवी न तो पीड़ित है और ना ही योद्धा है, तो यह पूरे मीडिया के लिए लागू होता है। जब पेशेवर लोग व्यापार शुरू करते हैं तब वह व्यवसायी होते हैं। एनडीटीवी में उनके सहयोगियों, यहां तक की बरखा दत्त के पास भी समाचार सेंसर करने या राजनीतिक दबाव आदि के बारे में बात करने का कोई अधिकार नहीं है। राजनेता और पत्रकार समाज से ही बाहर आते हैं। सार्वजनिक जीवन में सभी स्पॉटलाइट में है और सभी अपने बाथिंग सूट के साथ एक्सपोज़ हो रहे हैं।