आजादी से पहले जो नेता थे, उनमें से कुछ नेता कालांतर में राजनैतिक नेता के रूप में परिवर्तित हो गए और फिर वही नेता चतुर राजनेता बन गए। चूंकि यह चाटुकारिता है जो कि किसी के राजनीतिक कैरियर को उछाल देता है, इस कारणवश नेता धीरे-धीरे राजनीति से गायब हो रहे हैं। अस्सी के दशक में राजनेताओं के उपर उनके लंबे और अर्थहीन भाषणों के लिए टिप्पणी की जाती थी और उन्हे “माइकासुर” कहा जाता था। एक अच्छा पत्रकार जो एक राजनेता को फंसाना चाहता था, वह अपने हाथों में एक माइक्रोफोन लगा कर उस नेता की बकवास बातों को सुनता था। पहले उन्हें फंसाने की जरूरत थी, लेकिन अब वे स्वयं जाल में फसने के इच्छुक हैं।
लंबे समय तक कांग्रेस से लड़ते हुए, भाजपा ने ताकत भी हासिल की है और कई कमजोरियां भी। उनमें से एक है अकारण विवाद पैदा करना। कुछ भाजपा नेताओं ने विवादों में रहने की आदत बना ली है वे पेशेवर जादूगर बन सकते हैं- बहुत कुछ तमिल फिल्म मर्सल में विजय के चरित्र की तरह।
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ठीक है, मर्सल में एक उदाहरण है, जहां हास्य अभिनेता वादिवेलु,अप्रत्यक्ष रूप से विमुद्रीकरण का उपहास करते हुए, किसी से बताते हैं कि भारत में पैसा नहीं है और हर कोई पैसे निकालने की लाईन में खड़ा है। क्या आप सोचते हैं कि विमुद्रीकरण के संदर्भ में फिल्मों में यह पहला मामला है? बुद्धिमान राजनेताओं की रडार से एक और ऐसा ही मामला, तेलुगू अभिनेता जूनियर एनटीआर की फिल्म “जय लव कुस” में था, वो हाथ से फिसल गया। फिल्म में एनटीआर जूनियर, एक ठग की भूमिका निभाते हुए, किरदार प्रदीप रावत के हाथ में एक 5000 रूपए का नोट पकड़ाते हैं और उनके कान में फुसफुसाते हुए कहते हैं: मुझे गवर्नर का फोन आया कि 2 हजार के नोटों पर भी प्रतिबंध लगा दिया जाएगा। इस फिल्म ने दस दिनों में लगभग 175 करोड़ रूपए एकत्र किए।
विमुद्रीकरण पर, जय लव कुस की तुलना में मर्सल में अप्रत्यछ रूप से की गई टिप्पणी फीकी पड़ जाती है। फिर भी, मर्सल फिल्म शहर में चर्चा का विषय बन गई – देशवासियों क्षमा करिए। फिल्म के अंत में, विजय (वत्री नाम के जादूगर के चरित्र में) यह बताता है कि राजनेता जनता को मुफ्त मिक्सर और टीवी दे देंगे लेकिन कोई भी फ्री में इलाज देने की बात नहीं करता। अपनी बात को जारी रखते हुए उन्होंने सवाल किया, “अगर सिंगापुर 7% जीएसटी लगाने के बावजूद अपनी जनता को मुफ्त में इलाज दे सकता है, तो हमारी सरकार 28% जीएसटी लगाने पर मुफ्त दवाएं क्यों नहीं दे सकती? दवाओं पर जीएसटी 12% बीटीडब्ल्यू है, लेकिन शराब पर कोई जीएसटी दर नहीं है, जो परिवारों को नुकसान पहुंचाती है”।
व्यवाहारिक रूप से, ये संवाद सही नहीं हैं। सिंगापुर में, 98 प्रतिशत नागरिक करों का भुगतान करते हैं और हम सभी जानते हैं कि विमुद्रीकरण के बाद करदाताओं की संख्या में 4 से 6 करोड़ की वृद्धी हुई है। केवल उच्च कर बनाए रखने के लिए शराब को जीएसटी की दर से बाहर रखा गया है जिसे 50% से 75% कर की सीमा में रखा जाता है।
लेकिन, क्या यह फिल्म तथ्यों और प्रामाणिकता के बारे में है? यदि कोई वास्तविकता के तथ्यों को ढूंढना चाहता है, तो उसे वृत्तचित्र देखना चाहिए और न कि किसी फिल्म को। फिल्म कल्पना और ‘क्या हो अगर’ परिदृश्यों का उल्लेख है। जब एनटीआर मुख्यमंत्री थे, तब कांग्रेस ने अपने कलाकारों के माध्यम से आलोचना करने के लिए कई फिल्मों का उत्पादन करवाया। ठीक है, उनमें से कुछ ही फिल्में औसत रूप से चलती थीं, जबकि अन्य फ्लाप हो जाती थीं। क्यूं? एनटीआर, जिस व्यक्ति को फिल्म उद्योग की अंदरूनी जानकारी थी, ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया, इसलिए वह फिल्में स्वतः फ्लाप हो गईं।
दूसरी ओर, भाजपा एक उभरता हुआ दल है, जिसमें कई राजनेता ‘शक्तिशाली पदों’ के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं, ऐसा मुझे लगता है। मोदी और शाह की जोड़ी को रिझाने के लिए कुछ लोगो ने ओवरटाइम काम करने की कोशिश की जहां पर कोई काम ही नहीं था। पहले, तमिलनाडु राज्य की भाजपा अध्यक्ष तमिलिसाई सौंदर्यराजन मर्सल फिल्म के संवाद को कटवाना चाहती थीं ताकि कोई गलत संदेश न फैल जाए। मतदाताओं को सही जानकारी देना की उनकी जिम्मेदारी थी और वह फिल्म में संवाद को बिना कटवाए ऐसा कर सकती थीं। अगर उन्हें लगा कि एक फिल्म में दस सेकेण्ड की बातचीत सरकार की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचा रही है, तो उन्होंने केवल संकेत दिया कि सरकार की कोई प्रतिष्ठा नहीं है।
इसके बाद, दूसरा मामला, भाजपा के नेता एच राजा ने विजय के मतदाता पहचान पत्र को उनके धर्म को सामने लाने के लिए ट्वीट किया। ठीक है, विजय का पूरा नाम जोसेफ़ विजय है और वह ईसाई हैं। तो क्या? उनके पिता का नाम चंद्रशेखरन था। क्या श्री राजा ने इस बात पर ध्यान दिया? अगर चंद्रशेखरन ईसाई धर्म में परिवर्तित हो गए, तो राजा को चंद्रशेखरन के साथ आध्यात्मिक चर्चा कर उन्हें क्यों नहीं मना लेते? संविधान ने ‘राजा को प्रचार करने का अधिकार’ भी दिया है। धार्मिक पहचान का मुद्दा उठाने के बाद, राजा, कांग्रेस, द्रमुक और अन्य विपक्षी पार्टियों के जाल में फस गए। क्या यह कांग्रेस का अल्पसंख्यक तुष्टीकरण नहीं था, जिससे भाजपा को अपने मतदाताओं को मजबूत करने में मदद मिली? क्या राजा ने ‘धर्म’ के मुद्दे को अपरिहार्य रूप से उठाकर विपक्ष की मदद नहीं की? राजा के मामले में, यह न केवल बुरे प्रहार का मामला है, बल्कि बुरी राजनीति का भी मामला है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि भाजपा तमिलनाडु में केवल अपने खुद के गोल पोस्ट में गोल दाग रही है।
तमिल संस्करण में इस पर विवाद होने से पहले, सीबीएफसी द्वारा इस तेलुगु संस्करण के संवादों की कटौती की खबरें आई थीं। मुझे आश्चर्य है कि कैसे सीबीएफसी के लिए यह संवाद तमिल में स्वीकार्य हैं लेकिन तेलुगु में नहीं। यदि यह कांग्रेस थी, तो वे यह सुनिश्चित कर लेंगे कि ये संवाद सीबीएफसी द्वारा अनुमोदित अंतिम संस्करण में कभी नहीं किए होंगे, लेकिन कांग्रेस की तरह भाजपा इस विभाग में कुशल नहीं है। कथ्थी, थुप्पक्की और यहाँ तक कि फ्लॉप भैरवा की तुलना में, मर्सल कुछ अलग प्रकार की फिल्म है जोकि गंभीर प्रयास के बावजूद एक सामाजिक कारण से संबंधित है। फिल्म हिट रही थी क्योंकि महेश बाबू की स्पाईडर के अलावा किसी अन्य प्रमुख फिल्म को रिलीज नहीं किया गया था।
मर्सल औसत फिल्म थी, लेकिन भाजपा द्वारा प्राप्त मदद के कारण यह एक गगनचुंबी सफलता वाली फिल्म बन गई। इस फिल्म ने अच्छी शुरूआत की लेकिन केवल भाजपा द्वारा निरंतर आंदोलन के द्वारा अपनी कमी जारी रख सकी।
शत्रुघन सिन्हा ने अंत में डंक मारा। जैसा कि इकोनॉमिक टाइम्स में बताया गया है कि “क्या प्रधानमंत्री (नरेन्द्र मोदी) या किसी अन्य शीर्ष नेता ने मर्सल के मामले में टिप्पणी की? हमारे दल में कुछ तत्व हैं जो यह साबित करने के लिए उत्सुक हैं कि वे दूसरों की तुलना में अधिक वफादार हैं।” लेकिन कुछ लोग गधे की दुलत्ती पाने के लिए सोते हुए गधे को जगाने की कला में माहिर होते हैं। भाजपा के लिए यह सही समय है कि वह अपने दल के वरिष्ठ सदस्यों के लिए कार्यशालाओं का आयोजन करे जिन्हें माइक पर बोलने का अवसर प्राप्त हो।