शिवसेना के एक नेताजी हैं जो उसी डाली को काट रहे हैं जिस पर बैठे हैं

संजय राउत

एक राजनेता अपने सलाहकारों के द्वारा जाना जाता है। राजनीति में राजनैतिक विचारधारा एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। उसमें मूल रूप से लोकप्रियता की कमी हो सकती है लेकिन वह राजनैतिक निर्णय लेने के लिए आवश्यक बुद्धि और कौशल रखता है। यदि वह बुद्धिमान है तो उसका राजनीतिक मस्तिष्क उसको कई गुना आगे बढ़ा सकता है। यदि वह विषैला है तो आपका पतन भी कर सकता है।

जिस तरह से शरद यादव नीतीश कुमार को प्रभावित कर रहे थे, यह एक बड़े नेता के पतन के सबसे बड़े उदाहरणों में से एक हो सकता था। इससे न केवल बिहार राज्य पर कुमार की पकड़ को खतरा था, बल्कि उन्हें अपनी राजनीतिक संभावनाओं से भी समझौता करना पड़ा। कुमार ने भाजपा के साथ गठबंधन तोड़ दिया, जिसने पटना में उनकी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचा और जिसका लाभ आरजेडी के लालू यादव को मिला। पर सद्बुद्धि अंततः जीत गयी, आरजेडी से अलग होने के बाद नितीश कुमार नें एनडीए में वापसी की। यहीं से शरद यादव ने कुंठित होना शुरू कर दिया, लेकिन कुमार ने घर वापसी के रास्ते में लिए इस बाधा को रोड़ा नहीं बनने दिया।

नितीश कुमार शरद यादव और उनके प्रभाव के बंधन से सफलतापूर्वक अलग हो सके लेकिन एक और शरद यादव दूसरे राज्य में फल फूल रहे हैं। बाला साहेब ठाकरे के समय में शिवसेना की महाराष्ट्र राज्य पर जबरदस्त पकड़ थी। यह सिर्फ वोटों या संख्याओं की बात नहीं थी बल्कि शिवसेना के सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभुत्व की बात थी। बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद शिवसेना में कई चीजों में गलत बदलाव आया है और इनमे से कई बदलावों के लिए शिवसेना के सांसद संजय राउत को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।

संजय राउत शिवसेना के मुख्य सामाचार पत्र सामना के संपादक रहे हैं और वह उद्धव ठाकरे के अन्तर्गुट का हिस्सा थे। बाल ठाकरे के समय में शायद राउत की हरकतें सीमित थीं। आज बाल ठाकरे के निधन के बाद शिवसेना एक अनिश्चित स्थिति में है और संजय राउत ने खुद को शिवसेना के मूलदल में सबसे प्रभावशाली व्यक्ति के रूप में स्थापित कर लिया है।

संजय राउत कई राजनेताओं और रणनीतिकारों का एक मिश्रण हैं। वह अमर सिंह की तरह चतुर हैं और शरद यादव की तरह हाथ भी रखते हैं। अब तक संजय राउत या शिवसेना प्रमुख द्वारा चले गए सारे दाँव भाजपा को लेकर उनके क्षोभ से जुड़े थे।

परन्तु, हाल ही में संजय राउत ने कांग्रेस युवराज राहुल गांधी की प्रशंसा की और उन्हें राष्ट्र चलाने में सक्षम समझा और कहा कि मोदी की लहर अपनी चमक खो रही है। अमर सिंह या शरद यादव के गुणों के साथ, संजय राउत ने अब दिग्विजय सिंह के गुणों को भी उजागर किया है जो राहुल गांधी की टीम में मुख्य भूमिका में रहते हैं।

हालांकि शिवसेना ने पहले भी इस तरह के बयान दिए है, पर कांग्रेस को समर्थन देना इसकी प्रतिष्ठा के लिए अधिक हानिकारक था। संजय राउत की शिवसेना में लंबे समय तक पकड़ पार्टी की संभावनाओं को नुकसान पहुंचाएगी। निम्नलिखित कारण हैं जिनकी वजह से संजय राउत के नियंत्रण वाली शिवसेना ने महाराष्ट्र राज्य पर कब्जा खो देगीऔर अंततः लुप्त हो जायेगी।

पहला, शिवसेना गुरिल्ला पार्टी थी जिसने आक्रामक रूप से पहले मराठी लोगों का और बाद में हिंदुत्व का पक्ष रखा। निश्चित रूप से कांग्रेस की प्रशंसा शिवसेना से के इस छवि के साथ नहीं जाती, हाँ दिखावटी धर्म निरपेक्ष नीतियों के अनुरूप वाली सेना के साथ जरुर जायेगी। कांग्रेस वाले बयान के बाद, उद्धव ठाकरे ने हिंदुत्व के बारे में भी कहा ताकि भगवा संगठन के रूप में अपनी स्थिति पुष्ट रख सकें। हालांकि, वह हिंदुत्व का आडम्बर उसी समय अमान्य हो जाता है जब आप ममता बनर्जी जैसे किसी नेता के साथ राजनीतिक रूप से मिलते हैं और चर्चा करते हैं। फिर भी, कांग्रेस के प्रति नया प्रेम और हिंदुत्व का ताज पहनने की साथ साथ कोशिश कभी एक साथ नहीं हो सकता है। यह वास्तव में उन आदर्शों से दूर होगा जो बाल ठाकरे द्वारा निर्धारित किए गए थे।

दूसरे, यहां तक ​​कि हिंदुत्व से ज़रा भी दूर जाने से भी उनके मौजूदा आक्रामक कार्यकर्ता विमुख हो सकते हैं। पार्टी के भाजपा में शामिल हो सकते हैं, क्योंकि सेना के विचारधारा परिवर्तन के बाद भाजपा ही एकमात्र पार्टी रहेगी जो हिंदुत्व के पक्ष में होगी। यह शिवसेना के संगठनात्मक सरंचना पर कुठाराघात करेगा और पार्टी जो कि अपने क्षेत्रों में अभेद्य थी वो पूर्णतया भेद्य हो जायेगी। पार्टी ने पहले ही जमीनी स्तर और ग्रामीण इलाकों में काफी क्षेत्र खो दिया है।

तीसरा, अगर शिवसेना का अपने कार्यकर्ता दल से जुड़ाव ढीला हुआ, तो यह भविष्य में विद्रोह पैदा कर सकता है। भले ही संजय राउत भाजपा को अकेले चुनाव लड़ने की हिम्मत दे रहे हैं, पर गठबंधन टूटने से शिवसेना की चुनावी संभावनाओं पर असर पड़ सकता है। शिवसेना के कुछ सनकी और अभिमानी नेताओं के कारण यदि औपचारिक गठबंधन टूट जाता है तो ही भाजपा सरकार में शिवसेना के मंत्री सेना को छोड़ भी सकते हैं । अग्रिम चुनाव कि स्थिति में शिवसेना को भारी नुक्सान का सामना करना पड़ सकता है क्योंकि हाल ही में संपन्न हुए नगरपालिका चुनावों और सरपंच एवं अन्य चुनावों में भाजपा मजबूत स्थिति में रही है।

चौथा, शिवसेना को राज्य में बने रहने के लिए भाजपा की जरूरत है। नीतीश कुमार को इसका एहसास हो गया था और उनकी राजनीतिक सूझबूझ ने उन्हें नुकसान से बचा लिया, जब वो महागठबंधन छोड़ एनडीए में वापस आए। संजय राउत और उनके तीक्ष्ण प्रहार प्रतिदिन गठबंधन को चोट पहुंचा रहे हैं और इस कारण भाजपा सेना सम्बन्ध ऐसी स्थिति में पहुच सकता है जहाँ से पुनःसम्बन्ध और मैत्री असंभव हो। 1990 के दशक के दौरान, भाजपा को शिवसेना की जरूरत थी और यह प्रमोद महाजन जैसे किसी राजनेता ने महसूस किया, जिन्होंने विचारधारा और सम्मान के साथ संबंधों में सुगमता को जन्म दिया। संजय राउत को उनसे प्रेरणा लेने की जरूरत है क्योंकि शिवसेना को अपने खोए हुए क्षेत्रों को वापस पाने के लिए वास्तव में भाजपा की जरूरत है।

अन्त में, जैसा कि मैंने पहले बताया था कि शिवसेना एक गोरिल्ला पार्टी है जो अपने आक्रामक दल और बाल ठाकरे के कुशल नेतृत्व के द्वारा देश के राजनैतिक पटल पर उदित हुई थी। अब, पार्टी में राजवंश और उच्च पद पर आसीन लोगों  की विचारधारा का वर्चस्व है जोकि संजय राउत जैसे नेताओं द्वारा पार्टी में रोपित की गयी है। एक ऐसा भी समय था जब लोग बाल ठाकरे से सीधे तौर पर मिलते थे और उनका मानना था कि वे उनकी समस्याओं का समाधान करेंगे। उनका जनता और वर्गों के साथ संपर्क था। संजय राउत और उनके दल ने इसे कांग्रेस संस्कृति की तरह बना दिया है और यह उद्धव ठाकरे की छवि को प्रभावित कर रही है।

जैसा कि मुख्यमंत्री फड़नवीस ने सही तरीके से बताया कि शिवसेना, सरकार और विपक्ष दोनों ही नहीं हो सकती। राजनीतिज्ञों के लिए जरूरी है कि वे बेवकूफी भरे दाँव-पेचों की बजाय समझदारी दिखाएं, जो संजय राउत को समझना चाहिए। हालाकि शिवसेना अमित शाह से नफरत करती हैं लेकिन संजय राउत को अमित शाह से सलाहकार बनने के बारे में कुछ सीखना चाहिए। शाह ने अच्छी तरह से अपनी भूमिका निभाई है और बीजेपी को आश्चर्यजनक रूप से नयी ऊँचाइयों पर पहुचाया है। अगर शिवसेना महाराष्ट्र में फिर से उभरना चाहती है, तो उसे अपनी नई हानिकारक छवि को छोड़ना पड़ेगा और संजय राऊत जैसे नेताओं को हर बार नया बहाना इस्तेमाल करने की बजाए आपस में बैठ के विचार करना चाहिए।

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