रसगुल्ला – भारत की सबसे मधुर मिठाईयों में से एक, पड़ोसी राज्यों – ओडिशा और पश्चिम बंगाल- के बीच लंबे समय से संघर्ष का केंद्र रहा है। दोनों राज्य लगभग एक शताब्दी से रसगुल्ले पर हक का दावा कर रहे थे।
हाल ही में, पश्चिम बंगाल को रसगुल्ले के मूल उत्पत्ति स्थल होने का सौभाग्य मिला, इंटरनेट पर सक्रिय रहने वाले कई लोगों ने भी ओडिशा पर पश्चिम बंगाल की जीत का दावा किया। इंटरनेट पर इस खबर की सुर्खियाँ छा गयी – “मिठाई का बदला: पश्चिम बंगाल ने ओडिशा को हराया”।
बंगाल के प्रसिद्ध हलवाई श्री नबीन चन्द्र दास, संदेश (एक बंगाली मिठाई , जो सूखी और ठोस होती है) को थोड़ा हटकर बनाने की विधि तलाश कर रहे हैै, कुछ नर्म, रसीली मिठाई बनाने के लिए। नई मिठाई की उनकी खोज में, उन्होंने प्रयोगों को पूरा किया और अंततः १८६८ में, एक ऐसी मिठाई लेकर सामने आए जिसे हम आज रसगुल्ला के नाम से जानते हैं – सफेद, गोल और मीठे तथा चाशनी में डूबे हुए। नबीन चन्द्र दास ने रसगुल्ला को चीनी की चाशनी में छेना और सूजी के एक गोल मिश्रण को उबालते हुए बनाया। १९३० में, नबीन के पुत्र कृष्ण चंद्र दास ने मिठाई को लंबे समय तक उपयोग में लाने के लिए वैक्यूम पैकिंग की शुरुआत की। कुछ प्रतिष्ठित इतिहासकारों का कहना है कि पुर्तगालियों ने इसे दूध को फाड़कर बनाने का नुस्खा पेश किया था, जिसके परिणामस्वरूप भारतीय उपमहाद्वीप में छेना लोकप्रिय हुआ था, इसलिए ऐसा संभव ही नहीं था कि यहां रसगुल्ला पहले से ही मौजूद हो।
हालांकि, अनकहा इतिहास कुछ अलग बयान करता है। पुरी, भगवान जगन्नाथ की भूमि विष्णु भगवान के चार धामों में से एक होने के साथ-साथ हिंदू धर्म के सबसे प्रतिष्ठित तीर्थ स्थानों में से एक है। ११ वीं शताब्दी सीई में वापस चलते हैं, जगन्नाथ मंदिर के पुजारियों ने भगवान जगन्नाथ को प्रसाद के रूप में चढ़ाने के लिए एक विशेष मिठाई का आविष्कार किया। क्योंकि इस मिठाई को भगवान जगन्नाथ की बड़ी और गोल आंखों के सम्मान में श्रद्धा के रूप में पेश किया गया था, मिठाई पूरी तरह से सफेद रंग की थी और मिठाई का आकार वृत्त होने के बजाए बड़े अंडाकार रूप में था। शायद, यही कारण है कि इस मिठाई का आधुनिक संस्करण “बंगाल के रसगुल्ले” की तुलना में आकार में बड़ा है। चीनी की चाशनी में डूबी हुई इस मिठाई को ११ वीं शताब्दी सीई में खीर मोहन कही जाती थी।
जगन्नाथ मंदिर में माता लक्ष्मी को छोड़कर, भगवान जगन्नाथ, भगवान बलभद्र और देवी सुभद्रा, हर साल रथयात्रा के दौरान गुंडिचा मंदिर में जाते हैं। जिससे माता देवी लक्ष्मी नाराज हो जाती है। देवी लक्ष्मी, यात्रा से लौट कर आए अपने पति भगवान विष्णु के लिए, दरवाजा नहीं खोलती हैं। जब भाई मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते, तो बलभद्र और सुभद्रा कैसे जगन्नाथ को पीछे छोड़कर मंदिर में प्रवेश कर सकते हैं? तीनों भाई बहन बाहर ही खड़े रहते हैं। भगवान जगन्नाथ माता लक्ष्मी का गुस्सा शांत करने के लिए खीर मोहन की पेशकश करते हैं। इस कारण से, देवी लक्ष्मी आखिरकार भगवान को बुलाने के लिए सहमत हो जाती हैं और भगवान जगन्नाथ को अंदर आने देती हैं। इस अनुष्ठान को निलाद्री बीजे के रूप में मनाया जाता है।
११ वीं सदी के दौरान, मंदिर के पुजारी अपने व्यंजनों के नुस्खों को अच्छी तरह से संरक्षित रखते थे और आम लोग इन नुस्खों से अनजान थे। सदियों बाद, जगन्नाथ मंदिर के एक पुजारी के कारण ओडिशा में यह मिठाई सबसे प्रसिद्ध मिठाईयों में से एक बन गई।
पुरी की एक लोककथा हमें ‘पहला’ के प्राचीन गांव के बारे में बताती है, जिसमें भगवान कृष्ण के पवित्र गौवंश के साथ संबंध होने के कारण बड़ी संख्या में गाय थीं। भगवान के आशीर्वाद के कारण, बछड़ों को दूध पिलाने, खुद पीने तथा मिठाई और भोजन-व्यंजन बनाने के बावजूद भी गांव में दूध बच जाता। चूंकि बचा हुआ दूध खराब हो जाता था, इसलिए गांव के लोग उस दूध को फेंक देते थे। जब जगन्नाथ मंदिर के एक पुजारी ने दूध को बर्बाद होते देखा, तो उन्होंने स्थानीय लोगों के साथ दूध को फाड़ने की गुप्त कला को साझा किया और उन्होंने उन्हें खीर मोहन बनाने की कला सिखाई। अब जब वे बचे हुए दूध का उपयोग छेना बनाने के लिए कर सकते हैं और वे एक उस दूध से मिठाई बना सकते हैं। यह पहला मौका था जब मिठाई का नुस्खा मंदिर के परिसर से बाहर आया और अब इस मिठाई को आम आदमी भी बना सकता था और उसका उपयोग मिठाई बेचने के रूप में उपयोग कर सकते थे। यह मिठाई ओडिशा की आम जनता के बीच में, रसगुल्ला (रोशोगोला नहीं) के रूप में प्रसिद्ध हो गई। चूंकि इस व्यावसायिक मिठाई का पहला निर्माण पहला गांव में हुआ था, तो इस मिठाई को अक्सर पहला रसगुल्ला के रूप में भी जाना जाता है। आज के दिनों में, रसगुल्ला के सबसे बड़े और सबसे प्रसिद्ध केंद्र ओडिशा के पहला और सालेपुर में हैं। सालेपुर बिक्रीपुर से बीकानेनंद कर ने ओडिशा में रसगुल्ला उद्योग में महत्त्वपूर्ण बदलाव किया।
चूंकि भारतीय इतिहासकार और शिक्षित जन इतिहास लोककथाओं पर भरोसा नहीं करते, इसलिए आइये हम कुछ अधिक दस्तावेज देखते हैं। प्रतापरूद्र देव (१४९७ से १५४० ईस्वी) सूर्यवंशी वंश के अंतिम गजपति सम्राट थे, जिनको राजा कपिलेन्द्र देव राउत्रे के द्वारा स्थापित किया गया था। प्रतापरूद्र के शासनकाल के दौरान बलराम दास पांच कवियों में से एक थे जिन्हें पंचसखा के नाम से जाना जाता था जिसका अर्थ होता है पाँच मित्र। इन्होंने ओडिया रामायण की रचना की जिसको जगमोहन रामायण उर्फ दांडी रामायण के नाम से जाना जाता है। बलराम दास ने इस रामायण में कई स्थानीय खाद्य पदार्थों और सांस्कृतिक प्रथाओं का उल्लेख किया है। इस रामायण में छेना उत्पाद का पर्याप्त वर्णन किया गया था। १८४८ में जन्में पंडित गोविंद रथ इस रामायण को संपादित और प्रकाशित करने वाले प्रथम विद्वान थे। दांडी रामायण के अयोध्या कांड में इस बात का वर्णन किया गया है कि जब श्रीराम को वनवास से वापस लाने की चाहत में भरत और शत्रुध्न वापस लौटे तो ऋषि भारद्वाज ने उनके सामने कुछ व्यंजन और मिठाइयाँ परोसीं थी। इस व्यंजन में दूध छेना (दूध से बनाया गया पनीर), छेना पूड़ी, छेना लड्डू, रसगुल्ला और रसबाली शामिल थे।
बिजय चंद्र मजूमदार की पुस्तक “टिपिकल सेलेक्शन फ्रॉम ओडिया लेक्चर” नामक पुस्तक में दांडी रामायण के कई अंश हैं। इस पुस्तक की पेज संख्या ८४ पर शब्द “रसगुल्ला” का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है। इस पुस्तक को १९२१ में कलकत्ता विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित किया गया था।
बत्तीस बरस की आयु में श्री बलराम दास ने रामायण की रचना की, और जब तक श्री चैतन्य ओडिशा पहुंचे तब तक बलराम जी काफी वृद्ध थे, ये श्री चैतन्य के उड़ीसा आने से लगभग पचास साल पहले की बात है, यानी इस तथ्य से इस बात का तो खंडन हो ही जाता है कि श्री चैतन्य रसगुल्ले की विधि उड़ीसा लेकर आये।
दंडी रामायण के अलावा, मंडला पंजी नामक मंदिर का इतिहास भी रसगुल्ला के बारे में ११ वीं शताब्दी में उल्लेख करता है। इतिहास स्पष्ट रूप से यह साबित करता है कि रसगुल्ला की उत्पत्ति उड़ीसा में हुई थी। सरल शब्दों में, बंगाल का रसगुल्ला अलग है जबकि ओडिया का रसगुल्ला मूल है- जैसे उडुपी डोसा पहले अस्तित्व में आया और बाद में डोसा दक्षिण भारत में प्रसिध्द हो गया। ओडिया को न रसगुल्ला की उत्पत्तिस्थल के रूप में मान्यता प्राप्त करने में दिलचस्पी थी, न ही किसी प्रकार के जीआई नाम-पत्र में। जून २०१५ में, मंत्री प्रदीप कुमार पाणिग्रही ने रसगुल्ला का मूल खोजने के लिए एक समिति का गठन किया। पश्चिम बंगाल सरकार ने तुरंत जवाब दिया और उन्होंने एक समिति और खाद्य प्रसंस्करण उद्योग निदेशालय का गठन किया, पश्चिम बंगाल ने बंगाल के रसगुल्ले के जीआई के नाम-पत्र के लिए आवेदन किया था और असली रसगुल्ले नहीं। जीआई नाम-पत्र के विवरण में बंगाल के रसगुल्लों को वस्तु के रूप में उल्लेख किया गया है। इसलिए, पश्चिम बंगाल ने रसगुल्ले के अपने संस्करण के जीआई के नाम-पत्र को जीता न कि ९०० वर्ष पुरानी रसगुल्ला की विरासत की लड़ाई को। ओड़िशा ने बंगाल के रसगुल्ले के लिए आवेदन ही नहीं किया था, इसलिए इसकी हार का कोई सवाल ही नहीं है।
ओडिशा की हार के बारे में गलत जानकारी शायद पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी द्वारा किए ट्वीट के कारण फैली थी, जिन्होंने बांगलार रोशोगोला की जगह रोसोगोल्ला (यानी रसगुल्ला) का उल्लेख किया था।
Sweet news for us all. We are very happy and proud that #Bengal has been granted GI ( Geographical Indication) status for Rosogolla
— Mamata Banerjee (@MamataOfficial) November 14, 2017
Sweet news for us all. We are very happy and proud that #Bengal has been granted GI ( Geographical Indication) status for Rosogolla
— Mamata Banerjee (@MamataOfficial) November 14, 2017
ओडिशा के सीएमओ ने आधिकारिक तौर पर घोषणा की है कि राज्य ८०० वर्ष पुराने ओडिशा रसगुल्ला के लिए आवेदन करेगा।
Odisha Government is in process of obtaining GI tag for Odishara Rasagolla. It originated in #Odisha and is offered at Jagannath Temple as part of religious rituals by people of Odisha since centuries. pic.twitter.com/zk0tOAxj7c
— CMO Odisha (@CMO_Odisha) November 14, 2017
लगता है अभी युद्ध समाप्त नहीं हुआ हैi बल्कि और दिलचस्प हो गया है.