पी4पी एक प्रसिद्ध गुजराती कठबोली है जिसका मतलब है ‘पटेल के लिए पटेल’। पटेल व्यापारियों द्वारा इस शब्द का प्रमुख रूप से उपयोग किया जाता है। इस थ्योरी के अंतर्गत एक कर्मचारी की खोज करने वाले पटेल व्यवसायी किसी भी अन्य उम्मीदवार की अपेक्षा पटेल उम्मीदवार को प्राथमिकता देंगे।
गुजरात विधानसभा चुनाव के लिए सिर्फ एक महीना शेष है और राष्ट्रीय मीडिया के प्रिय, हार्दिक पटेल चुनावों के लिए ज्यादा खास बन गये हैं। राष्ट्रीय मीडिया जो तिल के ताड़ बनाने की कला में श्रेष्ठ है, ने वास्तव में शून्य महत्व वाले हार्दिक पटेल के प्रति अपना विश्वास जताया है। हार्दिक पटेल को जितना समझें उतना ही वो कांग्रेस के मोहरे के रूप में प्रदर्शित हो रहे है जहां वह कांग्रेस का पुराना, आरमाया हुआ तथा कभी ना चूकने वाला जातिवाद का खेल खेलने के लिए एक उपयुक्त प्रत्याशी का किरदार बखूबी निभा रहे है जिससे आगामी गुजरात चुनाव में भाजपा को वहां चोट पहुंचे जहां उनको सबसे ज़्यादा कष्ट हो।
नेशनल मीडिया के चित्रण के विपरीत, हार्दिक पटेल का जादू समाप्त हो चुका है। ज्यादातर पाटीदार, जो भाजपा के वफादार वोट बैंक हैं, वे अपना पक्ष बदलने के लिए तैयार नहीं हैं। हार्दिक पटेल के बुद्धिहीन अभियान ने अब कांग्रेस पार्टी के लिए फायदे से ज्यादा नुकसान शुरू कर दिया है। तथ्य यह है कि कांग्रेस और हर्दिक का संबन्ध जो गुप्त था, जो अब खुल गया है, जिससे पाटीदारों के आंदोलन के एक बड़े हिस्से को पूरे आंदोलन की सच्चाई पर संदेह हो गया है। कांग्रेस के साथ पटेलों का गुस्सा 80 के दशक का है। उनके 1985 के अभियान के दौरान कांग्रेस पार्टी के नेताओं का कहना था – “जो लोग आरक्षण का विरोध करते हैं उन्हें भुगतना पड़ेगा” (गुजराती में: અનામત ના વિરોધ કરનારાઓ ને શીશી માં તેલ લાવતા કરી દઈશું)। इसके बाद भाजपा जो उस समय एक राजनीतिक स्टार्टअप था, वह पटेलों की पहली पसंद बन कर उभरा। 22 से अधिक वर्षों तक पटेल भाजपा के प्रति वफादार रहे हैं।
बीजेपी के लिए पटेलों की इस अटूट निष्ठा ने कांग्रेस की चुनावी संभावनाओं को चोट पहुंचाई और राज्य में उनकी पराजय का प्रमुख कारण साबित हुई। पाटीदार आंदोलन के रूप में एक अनजान कम उम्र के बिन बिना किसी उपलब्धि वाले नए नवेले नेता जी हार्दिक पटेल को इसका चेहरा बनाया गया, इसे कांग्रेस की तरफ से आखिरी दांव समझा ज्जा सकता है अपनी हारी बाजी जीतने के लिए।
कुछ पटेल बीजेपी से केशू भाई पटेल को हटाकर नरेंद्र मोदी के लाये जाने पर रुष्ट थे पर समय आने पर पाटीदारों ने समूह में कमल के लिए वोट दिया। यही कहानी २०१२ के चुनावों में दोहराई गयी जब केशू भाई पटेल ने अपनी अलग पार्टी का गठन किया और बुरी तरह हारे। केवल दो सीटों पर उन्हें जीत प्राप्त हुई जिसपर केशू भाई पटेल और नलिन कोटादिआ ने स्वयं चुनाव लड़ा, केशू भाई पटेल की पार्टी बुरी तरह बाकी सभी सीटों पर हारी जिसके बाद पार्टी का विलय बीजेपी में हो गया।
पी4पी पर वापस आते हुए यह कहा जा सकता है कि यह वह थ्योरी है जिसपे हार्दिक पटेल भरोसा करे बैठे है भाजपा को प्रधानमंत्री मोदी के घरेलु क्षेत्र में हारने के लिए।
लेकिन पी4पी तब विफल जान पड़ता है जब कांग्रेस पार्टी के साथ आम पटेल व्यक्ति के बीच संबंध का विश्लेषण किया जाता है। पटेल भारत की आजादी के दौरान और बाद में सरदार पटेल के साथ हुए बदसलूकी को नहीं भूलें। पटेल बहुत लंबे समय से कांग्रेस के आरक्षण-वादी रुख का शिकार रहे है और फिर भी भारत के सबसे समृद्ध लोगों जातिसमूहों में से एक बन कर उभरे।
तो, जब हार्दिक पी4पी को स्पष्ट रूप से एक राजनीतिक चाल के रूप में सोचते हैं न कि पटेल समुदाय को मजबूत करने के उपाय के रूप में। कई प्रमुख पटेल नेता हार्दिक द्वारा आंदोलन के धन का दुरुपयोग और राजनीतिक वाहन के रूप में समुदाय का उपयोग करने को लेकर बेहद मुखर और क्रोधित हैं। वरुण और रेशमा पटेल का भाजपा में सम्मिलित होना एक महत्वपूर्ण कदम था। अगर यह पर्याप्त नहीं था, तो छह अन्य प्रभावशाली पाटीदार धार्मिक और सामाजिक संगठनों ने हार्दिक और पीएएएस के खिलाफ बिना डरे बाहर निकल बड़े पैमाने पर समुदाय के लाभ के बजाय अपने व्यक्तिगत फायदे के लिए लड़ाई लड़ने का आरोप लगाया है। इन छः संगठनों में, सरदारदाम, खोडलधाम, उमिया माताजी संस्थान उंझा, विश्व उमिया फाउंडेशन, समस्त पाटीदार समाज और उमिया माता संस्थान शामिल है जिनका कि पाटीदार समुदाय पर एक बड़ा प्रभाव है। उन्होंने पाटीदारो से संबंधित मुद्दों को उठाने के लिए पाटीदार कोर कमेटी (पीसीसी) का भी गठन किया है।