सरकार द्वारा किए गये सुधारों से चिकित्सा प्रणाली में कई बदलाव आए हैं, फिर भी कुछ समस्याएं बनी हुई हैं जिनकी जवाबदेही छात्र और माता-पिता दोनों चाहते हैं। किए गए परिवर्तनों में, परीक्षाओं का केन्द्रीकृत होना, विभिन्न शहरों में परीक्षा के उत्कृष्ट केन्द्रों की स्थापना और एक नए चिकित्सा निकाय की स्थापना शामिल हैं।
जबकि, कुछ राज्यों में तो पहले से ही एकल परीक्षा के विरोध में प्रदर्शन हुआ है, और अब कोई भी स्पष्ट रूप से देख सकता है कि इस एकल परीक्षा प्रणाली के संदर्भ में असंतोष क्यों है। सबसे बड़ी समस्या यह है कि विभिन्न राज्यों में अलग-अलग पाठ्यक्रम लागू हैं, जबकि यह राज्य की जिम्मेदारी है कि वह अपने सभी छात्रों को एक स्तर में लाए। इस बात पर राज्य न केवल सुस्त रवैया अपना रहे हैं बल्कि वो खुलकर अपना रोष प्रकट कर रहे हैं और साथ ही अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ते हुए केंद्र को दोषी ठहरा रहे हैं। सबको समझना चाहिए कि क्यों केंद्र को राज्यों की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली की विफलताओं को समझाने के लिए कठोर कदम उठाना पड़ा, इसकी जरूरत इसलिए भी थी क्योंकि नवजात मृत्यु दर और मातृ मृत्यु दर के आंकड़े काफी उतार चढ़ाव भरे थे जो कई राज्यों में काफी भिन्न हैं।
अब हम क्षेत्रीय लोगों और जनता तक पहुँच के आधार पर आकड़ों की पुष्टि कर सकते हैं, दोष नियोजन के शीर्ष अधिकारियों का है जो कि गलत क्या है इसका विश्लेषण करने में विफल रहे हैं। दोष शिक्षा की लचर व्यवस्था में है जो छात्र को केंद्रीकृत परीक्षा के लिए तैयार नहीं करती है। केंद्र और राज्य सभी स्तरों पर निराशाजनक विफलता जैसी स्थिति है। शैक्षणिक व्यवस्था ने तैयारी किन्हीं अन्य बिन्दुओं की कराई और उनका आंकलन उन बिन्दुओं पर किया जो कभी पढ़ाये ही नहीं गए। कोई भी नया व्यक्ति ये पूछ सकता है की ये कैसे संभव है? सच्चाई यह है कि ऐसा हो रहा है और आप ही सोचिए कि कैसे। समस्या अभिस्वीकृति में है क्योंकि जब तक अभिस्वीकृति नहीं होगी तब तक कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती। अब हम अभी तक हुए आन्दोलनों के सार के विषय में बात करते हैं जिससे पता चलता है: कि छात्रों के विषय में किसी ने कुछ नही किया, केंद्र और राज्य ने एक दूसरे को दोषी ठहराया और जातीय रंग दिया।
जबकि चिकित्सा क्षेत्र में दाखिला लेने वाले छात्रों की संख्या में गिरावट जारी है और साथ ही महाराष्ट्र जैसे राज्यों द्वारा इसे और गिराने की कवायद चल रही है, उन के लाये गए कानूनों की पर दोबारा सोचने की आवश्यकता है और वो भी जल्दी ही।
सरकार भी छात्रों की इन समस्याओं से अनजान लग रही है, जोकि अंतहीन हैं और साथ ही छात्रों को देरी से मिल रही आर्थिक स्वतंत्रता जिससे कि अभी तक अधिकतर छात्र अपने माता-पिता पर ३० साल की उम्र तक आर्थिक सहयोग के लिए निर्भर हैं। अलग अलग राज्यों के कानून, छात्रों को अपने हिसाब से विभिन्न समुदायों के लिए समय-समय पर इस्तेमाल करते हैं। ये सभी जाँचें बेसिक मेडिकल ट्रेनिंग के अंत में होती हैं जैसे कि (ऍम.बी.बी.एस) स्नातकोत्तर। ये किसी को मजाक लग सकता है कि कोई छात्र जिसने प्रशासनिक ट्रेनिंग ले रखी है (एक अपेक्षाकृत नई शाखा जो केवल चयनित संस्थानों पर ही की जाती है) प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) में तैनात किया जा सकता है) या फिर कोई छात्र जिसने इंटरवेंशनल रेडियोलोजी में विशेषज्ञ प्रशिक्षण ले रखा हो उसे प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र (पी.एच.सी) में तैनात किया जा सकता है जहाँ एक्स-रे के लिए जरूरी बुनियादी सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं होतीं, उसके बाद काफी लम्बे समय तक मुलाकातों और रिश्वत देने के बाद छात्र/छात्राओं (जोकि प्रशिक्षित है) को अपने मन की तैनाती मिलती है और इसके बाद भी उन्हें सामाजिक तानाशाहों के आगे बार बार मिन्नतें करनी पड़ती हैं और रोना गिड़गिड़ाना पड़ता है।
जबकि डॉक्टरों के खिलाफ सार्वजनिक “शासक” के अत्याचार की कहानियाँ, अक्सर सुर्खियाँ बना देती हैं, हमें यह भी पता होना चाहिए कि नियुक्त किए गए डॉक्टरों से क्या उम्मीद की जाती है: पीएचसी को पेंट करवाना, निर्माण करवाना, प्रत्येक संकेत की रिपोर्टिंग और जनता के शासक को संपूर्ण जानकारी देना, स्थानांतरण के लिए या स्थानांतरण से बचने के लिए भीख मांगना, पंचायत के मुखिया से हाथ जोड़कर अपनी सुरक्षा के लिए प्रार्थना करना, जब बिजली चली जाए तो अँधेरे में बैठना, और यदि उनके बच्चे हों तो उनकी शिक्षा के लिए सर खपाना। ये सभी कुछ उन्हें अपने अन्य साथियों की तुलना में जिन्हें अन्य क्षेत्रों में बराबर का अनुभव प्राप्त है, उनसे कम तनख्वाहों में करना पड़ता है। हालांकि, केंद्र में सर्कार के परिवर्तन के साथ चिकित्सा पेशेवरों की नियुक्ति के लिए बोली लगाने की प्रक्रिया में एक उल्लेखनीय परिवर्तन हुआ है; परन्तु उन लोगों के विषय में क्या विचार है जिन्होंने अभी अभी अपना प्रशिक्षण पूरा किया हैं? अनुरोध पर स्थानान्तरण (पारस्परिक समझौतों सहित) के लिए एक केंद्रीय पारदर्शी प्रणाली होने की आवश्यकता है और ऑक्सीजन सिलेंडर, बिल्डिंग की पेंटिंग, निर्माण और व्यवस्था जैसी नौकरियों को किसी और को सौंप दिया जाना चाहिए। मुझे पूरा यकीन है कि उस क्षेत्र में डॉक्टरों को कोई प्रशिक्षण नहीं दिया गया है।
डॉक्टरों का “दानवीकरण” एक सामान्य प्रवृत्ति रही है जहाँ हर कोई डॉक्टरों पर आरोप मढ़ने के लिए स्वतंत्र है, और इस सूची में सामान्य जनता से लेकर अभिनेता, राजनेता और मीडिया तक शामिल हैं।
कुछ लोगों ने सुझाव दिया है कि डॉक्टरों को पैसे नहीं लेने चाहिए, कुछ लोगों ने महंगे उपचार के लिए डॉक्टरों को मारने का सुझाव दिया है, कुछ ने दवा के नाम / घटकों को लिखते समय सामान्य (जेनेरिक) दवाओं का सुझाव दिया है। जबकि बाकी हर पोशेवर को मनचाहा शुल्क लेने की आजादी है जो वह उचित समझता है, पर डॉक्टर की यह एक नैतिक जिम्मेदारी बन जाती है कि: सब्सिडी वाले मूल्य पर समुदाय की मदद के लिए इलाज करे। इसके अलावा, डॉक्टर को करों का भुगतान भी करना चाहिए: (जमीन, पानी, बायोमेडिकल कचरे, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, अग्नि सुरक्षा और लाइसेंसों से भरी फाइल भी शामिल है जबकि दैनिक जीवन व्यय जैसे बच्चों की शिक्षा, बुजुर्गों की देखभाल, कार और अपार्टमेंट आदि के लिए ईएमआई) बिना किसी भी सब्सिडी के।
जनता इस तथ्य से अनजान नहीं है कि दवा की कीमत एक चिकित्सक के हाथों में नहीं है और जबकि सरकार ने दवा की कीमतों पे लगाम लगाने की एक पहल की है, वे मूल “गुणवत्ता” को को भूल ही गए हैं जोकि केंद्र और राज्य सरकारों की जिम्मेदारी होनी चाहिए और यदि गुणवत्ता में कमी पाई जाए तो कंपनी और राज्य को कानून के तहत दण्डित करना चाहिए।
एक डॉक्टर के पास दवा की गुणवत्ता का परीक्षण करने का कोई तरीका नहीं है, “मूल्य निर्धारण” की पूरी छूट फार्मासिस्ट के पास होती है जो बढ़ती लागतों या गुणवत्ता के लिए भी जिम्मेदार होगा। कॉर्पोरेट अस्पतालों में इलाज की लागत एक और मुद्दा है जो बहुत द्वेष पैदा करता है। जहाँ कॉर्पोरेट अस्पतालों के मालिक गोल्फ खेलते हैं और आराम करते हैं, वहाँ के डॉक्टर मजदूरों की तरह कार्य करते हैं, इन्हें अदालतों का जवाब देना होता है, इन्हें ही महंगे बिलों के लिए मार और दुर्व्यवहार मिलता हैं। कॉर्पोरेट अस्पताल के मालिकों द्वारा चालित प्रणाली से ऐसा प्रतीत होता है कि महंगे शुल्क के लिए डॉक्टर जिम्मेदार हैं, जबकि वास्तव में अस्पताल ही महंगे शुल्क के लिए जिम्मेदार है। जब किसी छूट की घोषणा की जाती है तो सबसे पहले डॉक्टरों को ही अपना हिस्सा गवाना पड़ता है। कॉरपोरेट सिस्टम इस तरह से विकसित किया गया है कि छूट डॉक्टरों के शुल्क पर है अस्पताल के शुल्क पर नहीं, अर्थत् प्रदान की गयी छूट देखभाल प्रदाता द्वारा है, न कि देखभाल संस्थान (कॉर्पोरेट कंपनी) द्वारा, जबकि अनुमान इसका उल्टा लगाया जा रहा है। एक चिकित्सक को उसके नाम पर बने बिल में लगाये गये शुल्क का केवल कुछ प्रतिशत ही मिलता है, इस प्रकार आरोप कॉर्पोरेट कंपनी पर होना चाहिए। तो दोषी डॉक्टर को क्यों ठहराया जाता है? मुझे हैरानी होती है। और सबसे मत्वपूर्ण बात यह है कि, यदि सरकार इतनी चिंतित है, तो “स्वास्थ्य” देखभाल विभाग में निजी खिलाड़ियों (कंपनियों) को अनुमति क्यों देती है?
हाल ही में सरकारी डॉक्टरों को निजी प्रैक्टिस करने की इजाजत न देने का एक कड़ा निर्देश दिया गया था। आइए इसे सीधी तरह समझते हैं: काम से मुक्त होने के बाद किसी को क्यों काम करना चाहिए? पैसे के लिए। वे अधिक कार्य करते हैं और कम भुगतान पाते हैं इसलिए विदेश जाने का रास्ता चुनते हैं। कर्नाटक में परामर्श मूल्य को छिपाने के नए सुझाव एक अन्य ताजी खबर है। यह सरकार की “स्वास्थ्य” प्रणाली की विफलता की शुरुआत है, जहां वे अस्पताल में बीमारों को गुणवत्ता की सुविधा प्रदान नहीं कर सकते हैं और अब वे परामर्श कैप (डाक्टरी परामर्श के लिए दी जाने वाली अत्यधिक राशि) के विचार के साथ आए हैं। 3 नवंबर को कर्नाटक में इसके खिलाफ एक राज्य व्यापी हड़ताल भी हुआ था। अभी कुछ और प्रश्न बाकी हैं:
- अगर सरकार उपचार की लागत के बारे में बहुत संवेदनशील है तो निजी अस्पताल चलाने के लिए लाइसेंसों की अधिकता क्यों है?
- एक और शिकायत निवारण प्रणाली की क्या आवश्यकता है, क्या उन्हें लगता है कि अतिरिक्त कानूनी दबाव डालने से कीमतों में कमी आएगी?
अब सबसे महत्वपूर्ण बिंदु – स्वास्थ्य व्यवस्था राज्य की जिम्मेदारी है और रोगी के इलाज की देखरेख करने की जिम्मेदारी चिकित्सकों को दी जाती है। अधिकांश लोग इस तथ्य से अनजान रहते हैं और हम अक्सर डेंगू, संक्रामक (फ्लू) और मलेरिया की घटनाओं के लिए नेताओं द्वारा डॉक्टरों को अनायास निशाना बनाते हुए देखते हैं; यह उनकी ज़िम्मेदारी नहीं है? स्वच्छ वातावरण, भोजन, स्वच्छता और पानी की आपूर्ति बनाए रखने के लिए राज्य जिम्मेदार है। चिकित्सक उपचार के लिए उत्तरदायी है, शौचालयों की सफाई, बाथरूम के टूटे हुए दरवाजे, बरामदा आदि की सफाई के लिए नहीं। इन तस्वीरों को अक्सर अखबारों में देखा जाता है, जहाँ एक वरिष्ठ डॉक्टर हाथों को मोडे हुए मौन दिखाई पड़ता है, जब सार्वजनिक शासक द्वारा शौचालयों और गंदगी के बारे में बात की जाती है।
प्रशिक्षण के दौरान चिकित्सकों अपना छुट्टी का समय ड्यूटी रूम में बिताते हैं, जो न तो साफ़ होते हैं और न ही ठीक से हवादार होते हैं। मेडिकल पाठ्यक्रमों का अध्ययन करने वाले बहुत सारे छात्र क्षय (टीबी) और अन्य संक्रामक रोगों से संक्रमित हो जाते हैं, जो उन्हें अस्पताल से मिलते हैं। सरकार अपने अस्पतालों और कॉलेजों के भौतिक रख-रखाव पर ध्यान नहीं देती है, कार्य करने के उटपटांग समय और शिफ्ट पर भी ध्यान नहीं देती हैं जोकि युवा डॉक्टरों के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं।
क्या एक नई चिकित्सा प्रणाली सभी समस्याओं का समाधान कर सकेगी? क्या कोई सोच सकता है कि शीर्ष पदाधिकारी कभी नीचे के लोगों की समस्याओं को देख सकता है? मैं आशा करता हूँ कि वे ऐसा करने का लक्ष्य बनाएंगे और मुझे उम्मीद है कि वे सफल भी होंगे।
Chutiyaaaapa…
Dr ko sb PTA hota h dawaioo k bre m …sb conference attend krre h ..
Khub motaa pesaaa lete h marijooo se……..
Dr ilajjj nhi business krta h
Haa Bhai ..bhot paise chap like h Maine , it ki raid dalwa de agar ho sake to … Mat jao kisi Dr. Ke pass agar itna he dikkat h to ..dikha liya karo kisi jhhad phoonk wale ko