गुजरात और हिमाचल में मिली जीत के परिणाम के बाद, भाजपा के रणनीतिज्ञ अब 2014 की जीत को 2019 में दोहराना चाहते हैं। 2014 और 2019 में स्पष्ट समानता, जैसे कि मोदी की बढ़ती अटूट लोकप्रियता, होने के बावजूद भी दोनों चुनावों में बहुत बड़ा अंतर है। पहली बात, 2014 के विपरीत भाजपा से उम्मीद की जाएगी कि वे अपने शासन के ट्रैक रिकार्ड की रक्षा करें और अधिक रक्षात्मक भूमिका निभाएं। दूसरी बात, कांग्रेस और उसके चतुर सहयोगी जातिगत राजनीति का सहारा लेने में कोई कसर नहीं छोड़ेगे, क्षेत्रवाद और कई अन्य संकीर्ण सामाजिक बुराईयां भाजपा और उसके ऐजेंडे में आड़े आ सकती हैं। तीसरा, 2014 में भाजपा ने कई सहयोगियों का सहारा लिया था और यूपीए, जो पहले से ही दयनीय स्थिति में थी, का सामना करने के लिए एक मजबूत भगवा गठबंधन किया था। 2019 में भाजपा के पास वह माहौल नहीं भी हो सकता है। पहले से ही कई सहयोगी दल भाजपा से नाराज हैं। अंततः, 2014 के विपरीत भारतीय जनता पार्टी के कई मतदाता, जो कई मुद्दों को लेकर पार्टी से निराश हैं (उदाहरण के लिए राम जन्म भूमि मंदिर का निर्माण करवाने में असफलता ) इन सभी मुद्दों को लेकर शायद वे 2014 की तरह एकजुट होकर मतदान ना करें। यदि संक्षेप में कहा जाय तो, भाजपा को 2019 में कई कठिनाईयों का सामना करना पड़ेगा।
2014 के लोकसभा चुनावों में देखा गया कि भारतीय जनता पार्टी ने पूरे देश में 31 प्रतिशत वोट शेयर के साथ जीत दर्ज की थी, जबकि 1999 में अटल बिहारी बाजपेई के नेतृत्व में पार्टी ने 23.75 प्रतिशत वोट शेयर प्राप्त किया था। हिन्दी राज्य जैसे राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, यूपी, हरियाणा, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में भाजपा ने 218 सीटों में से 183 सीटें जीतीं यानी एक चौंका देना वाला 84 प्रतिशत सीट शेयर। राजस्थान में भाजपा ने सभी 25 सीटे जीतीं, हिमाचल प्रदेश में बीजेपी ने सभी 4 सीटें जीतीं, उत्तराखंड में भी पांचों सीटें जीती और दिल्ली में सभी 7 सीटों पर भाजपा ने अपना कब्जा जमाया। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने क्रमशः केवल 2 और 1 सीट ही जीती थी। भारतीय चुनाव के इतिहास में ऐसे आंकड़े किसी ने भी नहीं सुने होंगे। पूरे इतिहास में केवल एक चुनाव से इसकी तुलना की जा सकती है जो कि 1984 का चुनाव था जो इंदिरा गांधी की मौत के तुरंत बाद लड़ा गया था, जिसके कारण लोकसभा में 404 सीटों पर राजीव गांधी को जीत प्राप्त हुई थी।
ऐसा लगता है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के लिए यह जीत दोहराना असंभव है। जिसके कुछ प्रमुख कारण हैं।
1.) हिंदी गढ़ः पहले से ही कुछ सुगबुगाहट आ रही है कि राजस्थान में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा हार सकती है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में लगातार तीन बार से भाजपा की सरकार होने के कारण इन राज्यों में सत्ता विरोधी हवाएं चल रहीं हैं। उत्तर प्रदेश लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने 80 में से 71 सीटें जीतीं और उसके बाद 300 से अधिक सीटें विधान सभा चुनाव में जीतकर इस उपलब्धि को दोहराया। बिहार में भाजपा ने 2014 में 40 से 22 सीटें पाईं थी और नितीश कुमार के साथ सत्ता में वापसी की। यह कहना उचित है कि भाजपा ने हिन्दी क्षेत्र, जो हमेशा से ही भाजपा के गढ़ रहे हैं, में अपना उच्चतम विस्तार किया है। परन्तु भाजपा को यहां सीटें बरकरार रखने में मुश्किल होगी है और यहां सीटों में नुकसान होने की पूरी सम्भावना है।
2.) पश्चिमी भारत: देश के पश्चिमी भाग में, भाजपा ने गोवा राज्य में दोनों सीटों पर जीत हासिल करते हुए सत्ता हासिल की और पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ भाजपा ने 48 में से 41 सीटें हासिल करके एक बड़ी जीत प्राप्त की। उसके बाद जल्द ही वहां पर गठबंधन टूट गया और भाजपा राज्य की सबसे बड़ी पार्टी के रूप सत्ता में आई। लेकिन अपने बहुमत से सरकार बनाने में विफल रही। पूरे देश में मोदी लहर होने के बावजूद भी ये सब हुआ। फिर दो अनोखे सहयोगियों ने समझौता किया और आखिरकार बीजेपी और शिवसेना ने गठबंधन की सरकार बनाई। इस प्रकार जब महाराष्ट्र की जनता 2019 में मतदान करेगी तब भाजपा को फड़नवीस सरकार के खिलाफ पैदा हुए लगभग 5 वर्षों के सत्ता विरोध के साथ संभावित बहुआयामी लड़ाई का सामना करना होगा। इसके लिए एकमात्र उम्मीद यह है कि जितना वोट शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के बीच विभाजित होगा, भाजपा को उतना ही फायदा हो सकता है। इस प्रकार सैद्धांतिक रूप से, पार्टी महाराष्ट्र में अपनी (48 सीटों में से 22 सीटों की) स्थिति में सुधार कर सकती है । गुजरात में 2014 में बीजेपी ने सभी 26 सीटें जीती थीं। यदि गुजरात विधान सभा चुनाव के नतीजों को देखा जाये तो गुजरात में कांग्रेस कुछ सीटें निकालने में कामयाब हो सकती है।
3.) पूर्व और दक्षिण भारत: देश के इन भागों में भारत का दक्षिणी और पूर्वी राज्य आते हैं। ये क्षेत्र भाजपा के लिए हरे मैदान की तरह हैं, लेकिन यह भी सत्य है कि इस क्षेत्र में एक लम्बे समय तक भगवा पार्टी का नामोंनिशां तक नहीं था। केवल हाल ही में उत्तर-पूर्व ने भाजपा की सरकार को स्वीकार किया है। असम में 2014 में भाजपा ने 14 में से 7 सीटें जीती थीं। राज्य में मुस्लिम बाहुल्यता को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि संख्या में सुधार हो सकता है। लेकिन, असम और मणिपुर में भाजपा की सरकारें बनी हैं। उत्तर पूर्व में कुल 25 सीटें हैं, जिनमें से भाजपा ने 8 सीटें जीती, और उन 8 में से 7 असम में जीतीं। पूर्वोत्तर राज्यों पर प्रधानमंत्री मोदी के ध्यान को देखते हुए, यह संख्या बढ़ने की उम्मीद है। जाहिर है इसमें बहुत सी बातें इस बात पर निर्भर करती हैं कि असम में पार्टी कैसा प्रदर्शन करेगी, एक ऐसा राज्य जहां उनकी सरकार है। देश के पूर्वी हिस्से में, भाजपा ने ओडिशा में 21 में से 1 सीट और पश्चिम बंगाल में 42 में से 2 सीटें जीती थीं। जमीन रिपोर्टों से ऐसा लगता है कि जनता का विचार है कि ओडिशा में धर्मेंद्र प्रधान के नेतृत्व में बीजेपी की सरकार बने। इस तरह ऐसा लगता है कि पार्टी ओडिशा में अच्छा प्रदर्शन करेगी। लेकिन पश्चिम बंगाल, अमित शाह के सबसे सशक्त प्रयासों और राज्य में हिंदुत्व की भावना फैलाने के बावजूद, भाजपा के लिए पश्चिम बंगाल में कोई बढ़त नहीं है। पार्टी के पास राज्य में कोई जिम्मेदारी योग्य स्थानीय चेहरा नहीं है। यह कहना ठीक ही होगा कि दिशाविहीन भाजपा और आधारहीन लेफ्ट की वजह से, पश्चिम बंगाल में 2019 का चुनाव कांग्रेस और टीएमसी के बीच लड़ा जायेगा। भगवान ना करें, कि वहां पर कांग्रेस और टीएमसी गठबंधन कर लें, इन परिस्थितियों में कहीं ऐसा ना हो कि भाजपा को अपनी जीती हुई 2 सीटों से भी हाथ धोना पड़े। दक्षिण में भी परिस्थिति बिल्कुल पूर्वी राज्यों जैसी ही है। पांच दक्षिणी राज्यों में 129 सीटों में से भाजपा के पास केवल 21 सीटें ही हैं, उनमें से 17 कर्नाटक में ही हैं। अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद केवल कर्नाटक में ही है जहां पार्टी ने 28 में से 17 सीटों पर जीत हासिल की थी और तेलंगाना में पार्टी ने 17 सीटों में से केवल 1 सीट ही जीती थी। कर्नाटक में, 2018 में होने वाले विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए 2019 के लोकसभा चुनावों की परिस्थिति को परिभाषित करेंगे। अब तक, कांग्रेस ही ऐसी है जो इन राज्यों में मजबूत स्थिति में दिखाई दे रही है। आंध्र प्रदेश में, भाजपा को एन चंद्रबाबू नायडू पर ही भरोसा करने की आवश्यकता है, जबकि तमिलनाडु और केरल में पार्टी के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं।
कुल मिलाकर, बीजेपी के लिए 2019 में जीत की राह तो बिलकुल स्पष्ट है। उत्तर और पश्चिम के नुकसान की भरपाई के लिए दक्षिण और पूर्व में शक्ति संचय करने की आवश्यकता होगी। व्यावहारिक रूप से, ऐसा देखा गया है कि किसी बात को कहना आसान होता है लेकिन करना आसान नहीं होता। लोकसभा चुनाव, भले ही राष्ट्रीय मुद्दों को ध्यान में रखते हुए लड़े जाते हों लेकिन फिर भी स्थानीय मुद्दों का एक कठिन जाल सामने होता है। ऐसा लगता है कि, भाजपा को 2014 में मिली सीटों की तुलना में 2019 में कम सीटें मिलेंगी, लेकिन उम्मीद है इतनी सीटें जरूर मिलेंगी कि सरकार बनाई जा सके। हांलाकि राजनीति में, एक सप्ताह भी काफी लंबा होता है। 2019 तो अभी अच्छा खासा 1.5 साल दूर है।