शिव सेना जैसे एनडीए गठबंधन के सहयोगियों और अरुण शौरी जैसे असंतुष्ट भाजपा नेताओं के बीच एक विलक्षण समानता है। दोनों ही मोदी शाह की जोड़ी के खिलाफ सार्वजनिक क्षेत्र में बढ़ चढ़ के बोलते रहे हैं। उनकी आलोचनाओं का स्तर भाजपा के राजनीतिक शत्रुओं से भी ज्यादा उग्र दिखाई देता है। खासकर शिवसेना नेतृत्व ने खुले तौर पर बीजेपी की बहुत आलोचना की और ये सिलसिला कई बार दोहराया गया।
गुजरात विधानसभा चुनाव एक कांटे की टक्कर के साथ समाप्त हुआ। शुरुआती रुझानों में कांग्रेस के आगे दिखने के बाद भी भाजपा किला फतह करने में कामयाब रही। उन्होंने जातिगत राजनीति और सत्ता विरोध को छकाते हुए बहुमत प्राप्त किया। हालाँकि विपक्ष यह कहानी फैलाने में लगी थी कि बीजेपी अपने ही गढ़ में घुटनों पर आ गयी है। शुरुआती रुझानों में क्षणिक बदलाव को कांग्रेस के लिए एक नैतिक जीत मान लिया गया। इसे कांग्रेस का नया अवतार करार दिया गया। हालाँकि कांग्रेस की 16 सीटों की वृद्धि को भाजपा के लिए एक बड़े झटके की तरह देखना महज एक मूर्खता है, जिसे कांग्रेस भी बखूबी समझती है।
मोदी विरोधी क्लब जिसमें अखिलेश यादव या ममता बनर्जी सरीखे नेता शामिल हैं, उन्होंने कांग्रेस पार्टी के अच्छे (मान लिए गए) प्रदर्शन पर ख़ुशी ज़ाहिर की। शिवसेना ने भी इस राहुल गाँधी फैक्टर में सुर से सुर मिला के गाते हुए नज़र आये। वरिष्ठ शिव सेना नेता संजय राउत ने नवनियुक्त कांग्रेस अध्यक्ष की न सिर्फ प्रशंसा की बल्कि इसे भाजपा की हार भी करार दिया। संबंधों में तनाव के चलते उनकी इस ताजा नोक झोंक का पूर्वानुमान लगाया जा सकता था लेकिन उनका शब्द चयन विपक्ष से भी ज्यादा तीखा था। चाहे जो भी हुआ हो, शिव सेना अब भी एनडीए का ही एक हिस्सा है। इस जुबानी हमले ने ये प्रदर्शित कर दिया कि समय के साथ साथ भगवा सहभागियों के आपसी सम्बन्ध कितने कमजोर हो गए हैं।
शिवसेना द्वारा के अवसाद के चार कारण हैं।
पहला कारण ये है कि शिवसेना को भाजपा की आवश्यकता है और ये अपने दम पर राज्य में आगे नहीं बढ़ सकती। अभी हाल में ही हुए निकाय चुनावों में भाजपा ने 10 में से 6 नगर निगमों में जीत हासिल की है। इससे पहले, बीएमसी चुनावों में बीजेपी ने 10 में से 8 निगमों में जीत हासिल करके शिवसेना को नतमस्तक कर दिया था। इस परिद्रश्य को देखते हुए, शिवसेना ये जानती है कि किसी भी आगामी चुनाव का सामना करने में इसे भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। इसके विपरीत, महाराष्ट्र को भी बिहार मॉडल की तरह समीकृत किया जा सकता है, जहाँ जेडीयू को राज्य की राजनीति में बने रहने के लिए भाजपा की आवश्यकता थी। शिव सेना की खीज दरअसल में उनकी कुंठा है!
दूसरा कारण, शिव सेना में बिखराव पैदा होने के संकेत हैं। आदित्य ठाकरे द्वारा बहुत सारी ऐसी बातें की गयीं जिसमें उन्होंने कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि शिवसेना अपने आप को भाजपा से अलग कर लेगी और एक साल में अपने दम पर सरकार बनाएगी। यदि वे ऐसा सोचते हैं तो इसके प्रभाव विनाशकारी होंगे। एक संभावित अलगाव से शिवसेना के मंत्री अपना पाला बदल सकते हैं और वे भाजपा में शामिल हो सकते हैं। चूँकि शिवसेना ने सत्ता का स्वाद बहुत दिनों बाद चखा है इसलिए मंत्रियों का टूटना संभव है, दो पार्टियों के शीर्ष नेतृत्व की लड़ाई में शिव सेना के मंत्री अपने मंत्रालयों को त्यागने में बिलकुल ही अनिच्छुक होंगे। शिवसेना इस समय संगठन और सरकार के बीच में फंसी हुई है।
तीसरा कारण, बीएमसी के रूप में शिव सेना की सत्ता का गढ़ भाजपा के मूलभूत समर्थन पर टिका हुआ है। यदि राज्य सरकार का गठबंधन टूटता है तो भाजपा को बीएमसी में अपना समर्थन वापस लेना पड़ेगा। इसके परिणामस्वरूप शिवसेना अपनी प्राथमिक सत्ता के केंद्र को खो देगी। बीएमसी देश का सबसे धनी नगर निगम है और ये शिवसेना का एकमात्र ऐसा सत्ता केंद्र है जहाँ भाजपा की बजाय शिवसेना स्वयं सत्ता में प्रमुख रूप से आसीन है। बीएमसी चुनावों में भाजपा शिवसेना को एक कड़ी टक्कर देने में सफल रही और शिवसेना को हराकर निगम में सबसे बड़ी एकल पार्टी बनने से बस कुछ ही सीटों से चूक गयी। लेकिन निगम की सत्ता में आने के लिए शिवसेना को भाजपा का समर्थन लेना पड़ा। यदि भगवा साझेदार अलग अलग हो जाते हैं तो शिवसेना को अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ेगा।
चौथा कारण, किसी भी आकस्मिक चुनाव से बीजेपीको लाभ मिलेगा और शिवसेना भी ये भलीभांति जानती है। भाजपा न सिर्फ विधान सभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन कर रही है बल्कि छोटे छोटे चुनावों में जमीनी स्तर पर भी अपने लिए नए रास्ते तैयार कर रही है। यदि इस समय महाराष्ट्र में विधान सभा चुनाव कराये जाए तो शायद फडनवीस सरकार को पूर्ण बहुमत मिल सकता है। शिवसेना के प्रबुद्ध विशेषज्ञ इस परिद्रश्य से भलीभांति परिचित हैं और इसीलिए वे केवल ताने और टिप्पणियों की युक्ति से भाजपा को अस्थिर करने का प्रयास कर रहे हैं।
अंततोगत्वा बीजेपी की आलोचना से शिवसेना को अपनी समस्याओं से ध्यान हटाने में सहायता मिलती है।
समय बदल चुका है। एक समय था जब ठाकरे-महाजन युग के दौरान शिवसेना बड़े भाई की भूमिका निभाया करती थी।
प्रतिक्रिया न देना भाजपा की सबसे अच्छी रणनीति है। शिवसेना भाजपा पर जुबानी हमले तेज कर चुकी है।
बीजेपी ने एक या दो बार को छोड़कर उनके फालतू बडबडाने पर ध्यान भी नहीं दिया। लेकिन हालिया बयानों के बाद शिवसेना का भाजपा के साथ बने रहना सही है, कांग्रेस के नैतिक जीत की डुगडुगी बजा के शिव सेना ने भाजपा के साथ बने रहने का अपना नैतिक अधिकार खो दिया है।