पहले एक धर्म ही खतरे में आता था अब तो लोकतंत्र भी खतरे में आने लगा
हमारे देश में दो चीजे बार बार खतरे में आ जाती है। एक तो है “धर्मविशेष” जो पिछले कई दशकों से खतरे में न आये इसीलिए देश की पिछली सरकारों ने बड़े जतन से रखा हुआ था लेकिन 2014 के बाद से नरेन्द्र मोदी सरकार के कार्यकाल में यह “धर्मविशेष” बार बार खतरे में आ ही जाता है। दूसरा है यहाँ का लोकतंत्र जो 2014 के पहले तक कभी खतरे में तो नहीं था लेकिन 2014 में जैसे ही नरेन्द्र मोदी ने शपथ ग्रहण की है लोकतंत्र के खतरे में आने की शुरुआत हो गयी। आजकल एक धर्म और लोकतंत्र यह दोनों ही चीजे ऐसी है जो हर चौथे दिन खतरे में आ जाती है।
मोदी प्रधानमंत्री बने धर्म खतरे में आ गया, योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बन गए धर्म खतरे में आ गया, ट्रिपल तलाक बिल आ गया धर्म खतरे में है, हलाला और नारी शक्ति पर बात करो तो धर्म खतरे में है, आतंकी को फांसी की सजा सुना दो धर्म खतरे में है, वन्दे मातरम के नारे लगा दो, राष्ट्रगान गा दो धर्म खतरे में है, मंदिर-मस्जिद से लाउड स्पीकर हटाने की बात कर दो तो धर्म खतरे में है। एक अख़लाक़ क्या हुआ धर्म खतरे में आ गया। दीवार पर गेरुआ रंग रंग दिया तो भी धर्म खतरे में आ गया। तो ये तो थी धर्म के खतरे में आने की बात, अब करते है लोकतंत्र की बात।
देश ने इमरजेंसी के वो “सुहाने” दिन भी देखे थे लेकिन तब लोकतंत्र सही था तब तो पता भी नही था किसी को की लोकतंत्र भी खतरे में आ सकता है। ये तो 2014 का साल ही ऐसा मनहूस था जब पूर्ण “लोकतान्त्रिक” तरीके से दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की जनता ने पूर्ण बहुमत से नरेद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाया जिसके बाद से लगातार आये दिन लोकतंत्र खतरे में आने लगा है। एक नेशनल हेराल्ड क्या हुआ लोकतंत्र खतरे में आ गया। याकूब को फांसी हुई, 2G घोटाला, चारा घोटाला, अन्य घोटालों में सजा मिलने की शुरुआत क्या हुई लोकतंत्र खतरे में आ गया।
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इमरजेंसी, कश्मीर और सिख नरसंहार तो रामराज्य था, लोकतंत्र को खतरा तो विकास और राष्ट्रवाद से है
तुम 404 सीटें जीतते रहे गरीबी हटाने के नाम पर गरीबी तो हटी नहीं घोटाले जरुर हो गए लेकिन बीजेपी ने विकास के नाम पर 300 सीटें जीतते ही लोकतंत्र को खतरा हो गया। फिर जैसे जैसे हर राज्य में बीजेपी ईवीएम में गड़बड़ी कर कर के प्रचंड बहुमत पाकर सरकार बनाते गयी लोकतंत्र खतरे के निशान के अन्दर ही रहा ऊपर निकल ही नहीं पाया। दशकों से अटके देश के गंभीर सवालों में से एक रामजन्मभूमि पर फैसला जल्द करने की बात क्या कर दी लोकतंत्र फिर खतरे में आ गया। लालू जेल पधार लिए तो लोकतंत्र भारी खतरे में आया ही था की माननीय चीफ जस्टिस महोदय ने 1984 के दंगो की फाइल खुलवाने की बात क्या कर दी लोकतंत्र तो मानो महा खतरे में आ गया है। अब इसे बचाने की जरुरत है वो भी उसी जनता पर इसको बचने की जिम्मेदारी आन पड़ी है जिसने 2014 में नरेन्द्र मोदी सरकार को “लोकतान्त्रिक” तरीके से चुनकर लोकतंत्र को खतरे में ला दिया था। कितनी नाइंसाफी है बताओ?
2014 के पहले सब कुछ सही चल रहा था। देश में एकदम राम राज्य था सभी धर्म मिल जुलकर रहते थे ना कोई धर्म खतरे में था न देश का लोकतंत्र। इमरजेंसी तो ऐसे ही मजाक में लगा दी थी लेकिन इतनी छोटी सी बात पर थोड़ी लोकतंत्र को खतरा हो सकता है। खतरा तो तब होता है जब देश के गद्दारों को, आतंकियों को, घोटालेबाजों को सरकार जेल भेजने लगे और विकास पर ध्यान दे, जनता से विकास पर वोट मांगे, फैसलों पर न्याय करें, देश विरोधी ताकतों को कमजोर करें और राष्ट्रवाद मजबूत होने लगे, विश्व भर में देश की साख बढ़ने लगे तब असली मायनों में लोकतंत्र खतरे में आता है। मानो लोकतंत्र न हुआ 80 के दशक की फिल्म में हीरो की बहन की इज्जत हो गयी जो खतरे में है। अब जनता की जिम्मेदारी है की वे 2019 में लोकतंत्र को खतरे से बाहर निकाले और अगर फिर नरेंद्र मोदी की सरकार बन गयी तो मतलब जनता भी मिली हुई है और लोकतंत्र फिर खतरे में ही रहेगा अगले 5 साल तक।
चार लोगों ने कह दिया तो देश असहिष्णु हो गया और लोकतंत्र खतरे में आ गया, बाकी 125 करोड़ की कौन सुनें?
आज सर्वोच्च न्यायलय के 4 जजों ने मिलकर ये घोषित कर दिया की लोकतंत्र को कितना बड़ा खतरा है वो भी उस इंसान से जो लोकतंत्र और न्याय का तराजू अपने हाथ में लिए बैठा है। मतलब जब न्यायपालिका ही खतरे में है तो आम आदमी को काहे का न्याय बाँट रहे थे यह अबतक ये समझ से परे है। यह चारों वही जज साहेब लोग है जिन्हें केरल में सैकड़ों स्वयंसेवकों की हत्या पर सांप सूंघ जाता है लेकिन एक अख़लाक़ पर लोकतंत्र पर हमला नजर आता है। वैसे हजारों कश्मीरी पंडितों और सिखों का नरसंहार तो छोटी सी बात है इसमे कैसा खतरा? लेकिन एक रोहित वेम्मुला आत्महत्या कर ले तब असलियत में लोकतंत्र की हत्या हो जाती है और देश असहिष्णु हो जाता है।
देश में दशकों से हजारों केसेस लटके पड़े है, अयोध्या रामजन्मभूमि पर हिन्दू मुस्लिम एक दूसरे से बरसो से लड़ रहे है लेकिन माननीय न्यायाधीशों को इसका क्या उन्हें तो तारीख पे तारीख देकर बस अपने रिटायरमेंट तक इसे खींचना है उसके बाद अगला देखते बैठे। कहने का मतलब लाखों केस देश में पेंडिंग है लेकिन सर्वोच्च न्यायलय के जज साहब का जो सबसे पसंदीदा केस है वो है जन्माष्टमी की दही हांड़ी की उंचाई ! जज साहब को बिलकुल नहीं पसंद ये दही हांड़ी मनाना इसीलिए वे बड़ी याद से हर साल इसकी उंचाई दो बिलांग छोटी कर देते है। जज साहब को दीवाली के पटाखे भी बिलकुल नहीं पसंद इसलिए लाखों केस के निपटारे को छोड़कर वे याद से दीवाली में पटाखे न चलाने की याद दिला ही देते है। वैसे ही इन्हें होली के पानी की बर्बादी याद रहती है लेकिन जज साहब को बिलकुल नहीं पसंद की कोई क्रिसमस और ईद पर मासूम पेड़ों और जानवरों को काटने के खिलाफ कोई एक लफ्ज भी कह दे। गुस्ताखी नहीं चाहिए जज साहब के शान में और वो 15 लाख केसेस का क्या है वो तो कभी न कभी हो ही जायेंगे 21 वीं नहीं तो 22 वीं सदी में पूरे होंगे।
इस देश में 4 लोग खड़े होकर कुछ कह दे तो वो बड़ी बात हो जाती है और मीडिया के लिए तो पत्थर की लकीर है चाहे 125 करोड़ जनता उनके खिलाफ हो। 4 मुफ्त के साहित्यकारों ने कह दिया तो असहिष्णु हो गया ये देश। एक अख़लाक़ मारा गया तो देश असहिष्णु हो गया। 4 फर्जी दलितों ने कह दिया तो देश में तानाशाही सरकार आ गयी और अब 4 जजों ने कह दिया तो देश का लोकतंत्र खतरे में आ गया लेकिन कोई उन बचे हुए 125 करोड़ जनता से या बचे हुए 20 सर्वोच्च न्यायालय के जजों से नहीं पूछेगा की सच में देश का लोकतंत्र खतरे में है? वैसे भी 2018 साल ही ऐसा है अब ये तो शुरुआत है अब पूरे साल कभी कोरेगांव में “मनुवादी” ताकतें जुल्म करेंगी तो कभी लोकतंत्र खतरे में आते रहेगा कभी देश असहिष्णु होता रहेगा। अभी तो राम मंदिर पर फैसला आना भी बाकि है, तब भी लोकतंत्र खतरे में आएगा इसकी आदत डाल लीजिये एक साल के लिए, 2019 फिर सब शांत कर देगा।
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