नेपाल के पीएम के.पी. शर्मा ओली की 3 दिवसीय भारत यात्रा 6 अप्रैल से शुरू हो गयी। नेपाल के पीएम ओली की 3 सालों के लम्बे अन्तराल के बाद इस महत्वपूर्ण भारत यात्रा पर चीन की नजर बनी हुई है। यात्रा के दौरान कई संतुलन कार्य और राजनयिक औपचारिकताएं पर चर्चा होगी। वैसे इस यात्रा को लेकर चर्चा होने के पीछे की वजह भी सरल है, बीते वर्ष भारत ने मौन तरीके से नेपाल में चल रहे मधेशी नाकाबंदी आंदोलन का पक्ष लिया था, जिस वजह से नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली को अपने पहले कार्यकाल में ही 24 जुलाई, 2016 को नेपाल के प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था। भारत के ओली विरोधी कदम को हम पूरी तरह से अनावश्यक भी नहीं कह सकते। दरअसल, पीएम ओली की सरकार का चीन की ओर राजनीतिक झुकाव और उनके द्वारा तैयार किये गये नए सविंधान में मधेशी समुदाय के बहिष्कार ने भारत के हितों को खतरे में डाल दिया था। नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (यूनिफाइड मार्क्सवादी-लेनिनिस्ट) के अध्यक्ष के रूप में पीएम ओली ने सुनश्चित भी किया था कि भारत सरकार उनके चीन समर्थक रुख से खुश नहीं है।
नेपाल में प्रधानमंत्री पद के लिए 2018 में फिर से हुए चुनाव में पीएम ओली की जीत हुई और ये जीत भारत-नेपाल संबंधों में नया मोड़ लेकर आयी। नेपाल के प्रधानमंत्री के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत के लिए ओली को बधाई देते हुए भारत सरकार ने नर्म दृष्टिकोण अपनाया। भारत को अपने करीबी पड़ोसी और लंबे समय के सहयोगी के वापस साथ होने का महत्व समझ आया और नेपाल को भी ये बात समझ आ गयी थी। आने वाले वर्षों में भारत-नेपाल के संबंधों को निर्धारित करने में 53 प्रतिनिधियों के साथ नेपाल के प्रधानमंत्री की पहली भारत यात्रा काफी महत्वपूर्ण है, इस भारत यात्रा में पूर्वी नेपाल के संखुवासभा जिले में 1.5 अरब डॉलर से बनने वाले 900 मेगावाट की अरुण III हाइड्रो-इलेक्ट्रिक परियोजना की आधारशिला रखी जाएगी। इस परियोजना का निर्माण, सतलुज जल विद्युत निगम (SVJN) द्वारा किया जायेगा जो भारी मात्रा में हाइड्रो पॉवर (पानी से बिजली बनाने) का उत्पादन करेगा, जिनमें से एक बड़ा हिस्सा भारत द्वारा खरीदा जाएगा।
अभी तक तो चीजें सही नजर आ रही हैं लेकिन कुछ विवादित मुद्दे नेपाल के पीएम ओली और उनके प्रतिनिधियों का भारत दौरे पर इंतजार भी कर रहे हैं। इनमे से सबसे अहम है, ओली का चीन के साथ घनिष्ठ संबंध और माओवादियों के लिए उनका समर्थन। दूसरा, केंद्रीय-पश्चिमी नेपाल में गंडक नदी पर 2.5 अरब डॉलर की बुढ़ी गांडकी परियोजना का निर्माण। 2017 में पुष्प तत्कालीन कमल दहल के ‘प्रचंड’ नेतृत्व वाली सरकार ने बुढ़ी गांडकी परियोजना का काम गेज़ुबा वॉटर एंड पॉवर (ग्रुप) को सौंपा था। वहीं, उनके उत्तराधिकारी शेर बहादुर देउबा ने नवंबर 2017 में चीनी कंपनी को दिए गए बांध परियोजना को रद्द कर दिया था, लेकिन केपी ओली की पार्टी का 2018 के चुनाव में बहुमत सीट जीतने से परियोजना को पुनर्जीवित करने की बात फिरसे उठी है।
पीएम ओली ने दक्षिण चीन मोर्निंग पोस्ट पर कहा था कि, “प्रतिद्वंद्वी कंपनियों के राजनीतिक पक्षपात या दबाव शायद इस परियोजना को खत्म करने के पीछे अहम कारण हो सकते हैं। हालांकि, हमारे लिए, हाइड्रो पावर अहम है और जो भी हो, हम बुढ़ी गांडकी परियोजना को पुनर्जीवित करेंगे।“ इस परियोजना से दक्षिण एशियाई पड़ोसियों के बीच के संबंध को बेहतरीन बनाने की कोशिश भी हो सकती है। भारत ने अपने पडोसी देशों की सीमा के आसपास चीन के अतिक्रमण को रोकने की भरपूर कोशिश की है। चीन का अपने सीमा के आसपास के देशों पर प्रभाव भारत सरकार के लिए चिंता का विषय है। नेपाल को चीन के हित छुपे मंसूबों को समझने की जरुरत है, खासकर जब लम्बे समय से नेपाल और चीन की सीमाओं के बीच विश्वासघाती इलाकों की वजह से चीन में वापस उर्जा का संचार करना मुश्किल हो गया हो।
नयी दिल्ली में हुए अधिकारिक चर्चाओं के मुताबिक भारत सरकार चीन की मदद से निर्मित परियोजना से बिजली खरीदने का कोई इरादा नहीं रखती है और ये बात पीएम ओली को भी ज्ञात है। भारत का रुख स्पष्ट है, या तो भारतीय सार्वजनिक क्षेत्र या निजी कंपनियों को नेपाल के बांधों के निर्माण में शामिल किया जाए या उन्हें इसके इस्तेमाल की स्वतंत्रता दी जाए और अगर ऐसा होता है तब सरकार बिजली खरीदने के लिए तैयार होगी या फिर नेपाल इसे चीन को वापस बेच दें। चीनी थ्री गॉर्गेस कॉरपोरेशन के बांध परियोजना पर भी भारत यात्रा के दौरान चर्चा होगी।
हम उम्मीद करते हैं कि इस यात्रा से दोनों देशों के संबंधों में सुधार होगा लेकिन हम भारत सरकार को अपना रुख बनाए रखने का आग्रह करेंगे, क्योंकि उन मुद्दों पर फैसला लेना आसान नहीं होगा जो आगे चलकर भारत को प्रभावित करे। नेपाल की सरकार को श्रीलंका और पाकिस्तान से सीख लेनी चाहिए जिन्हें चीन की मदद लेने का भारी मूल्य चुकाना पड़ा है। भारत के समर्थन और मित्रता के लाभ और महत्व को समझना हमारे उत्तरी पड़ोसियों की प्राथमिकता होनी चाहिए।