‘संयुक्त’ विपक्ष के सामने अभी बहुत सारी मुश्किलें हैं जिनका उन्हें सामना करना है और इसमें ‘महत्वाकांक्षा’ सबसे बड़ी है। इसमें कोई शक नहीं है कि ‘संयुक्त’ विपक्ष का बेमेल गठबंधन अत्यंत महत्वाकांक्षी और सर्वोच्च अवसरवादी राजनेताओं का गठबंधन है जो अक्सर विवाद को जन्म देते हैं। राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद को अपनी पैतृक संपत्ति मानते हैं। ममता बनर्जी खुद को विपक्षी नेताओं के बीच सबसे बड़ा उम्मीदवार मानती हैं क्योंकि 2014 में वो मोदी लहर का सामना करने में सक्षम थीं। दो पुराने अनुभवी नेता मुलायम सिंह यादव और शरद पवार हमेशा से ही प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा रखते हैं। अब ऐसा लगता है कि हमारे पास प्रधामंत्री पद के लिए एक नया दावेदार सामने आया है। ये और कोई नहीं बल्कि कुमारी मायावती हैं।
शनिवार को पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन व कार्यसमिति की बैठक में 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए पार्टी की तरफ से प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवार के रूप में बसपा प्रमुख मायावती की पदोन्नति की मांग की गयी है। एक बसपा नेता ने कहा कि, वो देश में दलित समुदाय की सबसे बड़ी नेता हैं, उन्हें प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवार बनाने से दलित समाज गठबंधन के समर्थन में एक हो जायेगा।’
इसी बैठक में, मायावती ने परिवारवाद के बढ़ते आरोपों के चलते इस मामले में अपने कदम पीछे खींच लिए हैं और अपने भाई आनंद कुमार को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष पद से हटा दिया है। इसके साथ ही उन्होंने अपने भरोसेमंद नेता राम अचल राजभर को पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव नियुक्त किया है।
हालांकि, इन सबके बीच बैठक में मायावती के एक बयान ने सबका ध्यान खींचा। दरअसल, मायावती ने कहा कि बसपा किसी भी पार्टी के साथ केवल ‘सम्मानजनक’ सीटें मिलने की स्थिति में ही चुनावी गठबंधन करेगी। इतने शोरगुल के बावजूद, मायावती ने स्पष्ट किया कि बसपा की तरफ से 2019 के लिए कोई चुनाव पूर्व गठबंधन की संभावना नहीं है। ऐसे में ये मायावती के मजबूत उम्मीदवार होने के दावों को ये और मजबूत करता है।
ये पहली बार नहीं है जब मायावती द्वारा प्रधानमंत्री बनने की महत्वकांक्षा सामने आयी है। 2009 में जब मायावती उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री थीं उनकी महत्वकांक्षा वैसी ही थी जैसी आज ममता बनर्जी की हैं। उस दौरान मायावती ने प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवार बनने के लिए कई जतन किये थे। हालांकि, वो चुनाव हार गयीं थीं, फिर भी कुल 21 लोकसभा सीटें जीतना उनकी ऐतिहासिक उपलब्धि थीं।
अब आते हैं 2018 में: आज मायावती कहीं नहीं है। संसद में उनके शून्य सांसद हैं और उत्तर प्रदेश में 20 से कम विधायक हैं, आज वो उस बहुमत के लिए तरस रही हैं जो 2007 में उन्हें मिला था। 1995 में हुए गेस्टहाउस कांड के आरोपी और अपने धुर विरोधी रही सपा से हाथ मिलाकर उन्होंने अपने ही लोगों के बीच अपनी विश्वसनीयता को कम कर दिया है। मायावती का पीएम पद के रूप में खुद को प्रस्तुत करना ठीक वैसा है जैसा अरविंद केजरीवाल का लोकसभा चुनावों में अपनी पार्टी के आंतरिक सर्वेक्षणों के माध्यम से भारी जीत का दावा करना।
हालांकि, सपा और बसपा ने चालाकी से गठबंधन कर फूलपुर और गोरखपुर उपचुनाव जीत लिया लेकिन ये गठबंधन ज्यादा दिनों तक चलेगा इसकी संभावना नजर नहीं आती है। हाल में ही जब पूरा विपक्ष कर्नाटक के नए मुख्यमंत्री कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में इकट्ठा हुआ था तब मायावती कांग्रेस के प्रति अपनी दुश्मनी को भुलाकर कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी से गले मिलीं जोकि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ इत्यादि में आगामी विधानसभा चुनावों के लिए संभावित गठबंधन या समर्थन की ओर इशारा करता है।
साथ ही जिस तरह से मायावती ने राष्ट्रीय लोकदल के राष्ट्रीय अध्यक्ष अजित सिंह और उस पार्टी का अपमान किया जो कभी समाजवादी पार्टी के करीब हुआ करती थी, साफ़ दर्शाता है कि दोनों पार्टियों के बीच सबकुछ ठीक नहीं है। गौरतलब है कि, पहले ही राज्यसभा चुनाव में क्रॉस वोटिंग करने वाले बसपा विधायक ने बीजेपी को वोट देकर पार्टी के साथ धोखा किया था। ऐसे में सपा के संरक्षक जैसे अखिलेश यादव और उनकी मंडली निश्चित रूप से इसे हलके में नहीं लेंगे।
अगर ऐसी घटनाओं को रोक पाने में विपक्ष सक्षम नहीं है तो ऐसे में विपक्ष 2019 के चुनावों में नरेंद्र मोदी को हराने की सोच भी कैसे सकता है? खैर, जैसे सर्किट ने मुन्नाभाई में कहा था, ‘ये शुरू होते ही खत्म हो गया’ ठीक वैसे ही अगर इस डायलॉग को वर्तमान की राजनीति से जोड़ें तो कह सकते हैं कि विपक्ष का महागठबंधन आगे बढ़ने से पहले ही धराशायी हो गया!