औपनिवेशिक हैंगओवर से अभी तक बाहर नहीं निकल पाए कुछ इतिहासकारों को हाल ही में हुए पुरातत्व उत्खनन के कुछ तथ्यों से बड़ा झटका लगा है। हाल ही में राखीगढ़ी में मिले कंकाल के अवशेषों के डीएनए सैंपल की जांच में मध्य एशिया का कोई अंश नहीं मिला है। इकनोमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक, अध्ययन के प्रमुख शोधकर्ता वसंत शिंदे और नीरज राय ने कहा कि, बाहरी लोगों से सीमित संपर्क के साथ वैदिक काल पूरी तरह से देसी दौर था।
राखीगढ़ी दुनिया के सबसे बड़े एवं पुराने हड़प्पा सभ्यता के स्थलों में से एक है और ये हरियाणा के हिसार जिले में 300 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला हुआ है। माना जाता है कि यहां बरामद किये गये अवशेष 6000 वर्ष पुराने हैं। मुख्य शोधकर्ताओं ने कहा कि कंकाल अवशेषों के डीएनए सैंपल के जांच में कोई भी मध्य एशियाई अंश नहीं मिले हैं और न ही किसी हिंसा और लड़ाई के निशान मिले हैं।
शिंदे ने कहा कि, “राखीगढ़ी में मिले कंकालों के डीएनए से साफ़ पता चलता है कि उसमें लोकल एलिमेंट यानी माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए बहुत मजबूत है। कुछ मामूली विदेशी अंश है जिससे बाहर की विदेशी आबादी से कुछ मिक्सिंग का पता चलता है, लेकिन डीएनए स्पष्ट रूप से लोकल है।“ उन्होंने आगे कहा, “ये नतीजे साफ़ दर्शाते हैं कि बाद में आया वैदिक काल कुछ बाहरी अंशों के साथ पूरी तरह से देसी दौर था।”
हाल ही में सनौली गांव में खुदाई के दौरान एक रथ मिला था जो आर्य आक्रमण सिद्धांत पर कई सवाल खड़े कर दिए हैं कि क्या आक्रमणकारी उपमहाद्वीप में घोड़ों को लेकर आये थे। न ही ये स्थापित किया गया था और न ही ये स्वीकार किया गया था कि रथ घोड़ों द्वारा चलाए जाते थे लेकिन इस खोज ने राखीगढ़ी में मिले अवशेषों के डीएनए अध्ययन के साथ इस सिद्धांत की विश्वसनीयता पर कई सवाल खड़े कर दिए हैं।
आर्य आक्रमण सिद्धांत में जोर देकर कहा गया है कि वैदिक संस्कृति और प्रथाएं विदेशी मूल की थीं जिसे माना जाता है कि भारतीय उपमहाद्वीप की स्वदेशी आबादी पर गोरे व साफ रंग लोगों के समूहों द्वारा विकसित हुई थीं जिन्होंने स्वदेशी आबादी की मुख्य भूमि पर आक्रमण किया और स्थानीय आबादी को दक्षिण संस्कृति की ओर धकेल दिया था। इस सिद्धांत से ब्रिटिश को काफी मदद मिली थी जिसके जरिये उन्होंने भारतीय जातिवादी विचारधारा या सामान्य पहचान की समझ को प्रभावित किया था और अपनी फूट डालों और शासन करो की नीति को प्रतोसाहित किया था। भारत में इसी सिद्धांत को कई इतिहासकारों ने अपनाया जिन्हें विदेशी नीति के तहत भारतीय उपमहाद्वीप में वैदिक प्रथा को स्थापित करने के लिए लेबल किया जाता है। हाल ही में खोज में मिले सबूतों से आर्य आक्रमण सिद्धांत को बड़ा झटका लगा है जो ये कहता है कि वैदिक काल पूरी तरह से विदेशी आक्रमणकारियों का दौर था और इसमें देसी अंश बहुत कम था।
आर्य आक्रमण सिद्धांत का इस्तेमाल आज के आधुनिक दौर में दक्षिणी भारत में राजनीतिक दलों द्वारा खूब किया जाता है जो द्रविड़ (दक्षिण भारतीय ) और उत्तर भारतीयों को विभाजित करता है और ये उत्तर भारतीय यानि आर्य विदेशी और द्रविड़ (दक्षिण भारतीय) को यहां के मूल निवासी के रूप में संदर्भित किया जाता है। आजादी के बाद से इस सिद्धांत ने डीएमके और एआईएडीएमके जैसे दलों की मदद की है जो अपने जीनोफोबिक को बढ़ावा देते हैं और इससे वो अपनी क्षेत्रीय राजनीति को आगे बढाते हैं।
फिर भी, आर्य आक्रमण सिद्धांत को अभी छोड़ देते हैं क्योंकि अभी तक अध्ययन में इस बड़े सवाल का जवाब नहीं मिला है कि सिंधु घाटी सभ्यता के साथ क्या हुआ था? इमारतों, कंकाल और पुरातात्विक स्थलों की क्षति को देखकर यही संकेत मिलता है कि युद्ध जनसंख्या के विस्थापन की वजह से नहीं हुआ था।
राय ने कहा कि, “खोज में मिले मानव कंकालों की स्थिति, उन्हें दफनाने की व्यवस्था आदि से ऐसा कोई भी संकेत नहीं मिला है, जिससे पता चलता हो कि चिकित्सकीय देखभाल न मिलने के कारण लोगों को कोई बीमारी हुई हो। वहां के लोग स्वस्थ थे। दांतों के आकार और उनकी हालत से पता चलता है कि उनमें कोई इंफेक्शन नहीं था। हड्डियां भी स्वस्थ थीं।“
ऐसे ही एक सिद्धांत में कहा गया है कि सिंधु नदी में आये बदलाव से नदी के आसपास रहने वाले लोगों के लिए कृषि करना और आजीविका को चलाना मुश्किल हो गया था। हालांकि, तथ्य ये है कि नदी किनारे रहने वाले लोग बड़े पैमाने पर अनाज समेत घरेलू सामान के साथ स्थानांतरित हो गये थे जिस वजह से सिंधु घाटी की सभ्यता से जुड़े कई सवाल आज भी सवाल बने हुए हैं।