मीडिया द्वारा किये गए परिक्षण ने सार्वजनिक हितों को काफी नुकसान पहुंचाया है। इससे व्यक्तिगत आजादी को क्षति पहुंची है और कई लोगों का चरित्र हनन हुआ है जैसा कि आरुषी हत्याकांड में देखा गया है। टेलीविज़न पर दिखाई जाने वाली सनसनीखेज खबरों को दर्शक बड़ी उत्सुकता से देखते हैं और कई बार बनावटी हेडलाइनस, सीधे आरोप और सवाल से कई व्यक्तिगत के जीवन पर गहरा असर पड़ा है। ऐसा ही कुछ फाइनेंशियल रेजोल्यूशन एंड डिपॉजिट इन्श्योरेंस बिल (एफआरडीआई बिल) के साथ भी हुआ है जो वित्तीय संस्थानों को संकट की घड़ी से निकालने और जमाकर्ता के हितों की रक्षा के लिए लाया गया था।
मीडिया द्वारा एफआरडीआई से जुड़े तथ्यों को गलत तरह से पेश किये जाने की वजह से जनता का भरोसा टुटा है और जमाकर्ता द्वारा नकदी की निकासी बढ़ी है। जिसके दबाव में अब सरकार चालू संसद सत्र में फाइनेंशियल रेजोल्युशन एंड डिपॉजिट इंश्योरेंस (FRDI) बिल के प्रस्ताव को वापस ले सकती है। सरकार एफआरडीआई बिल लोकसभा में 11 अगस्त 2017 को लेकर आयी थी, फिलहाल ये संसद की स्थायी समिति में विचाराधीन है। समिति बुधवार से शुरू हुए संसद के मानसून सत्र में अपनी अंतिम रिपोर्ट जमा कर सकती है। संसद का मौजूदा सत्र 10 अगस्त को खत्म हो रहा है। सरकार के प्रवक्ता सितांशु कर ने बुधवार को ट्वीट करके कहा, “सरकार दिवालियापन संकल्प को अधिक पारदर्शी, कुशल और न्यायसंगत बनाने के लिए काम कर रही है और यही वजह है कि इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड (आईबीसी) संशोधन बिल, 2018 को मंजूरी दी गई।“
कंपनियों के दिवालिया होने से जुड़े इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड (आईबीसी) बिल को एफआरडीआई के साथ ही लाया गया था। आईबीसी और एफआरडीआई में अंतर ये है कि आईबीसी कानून के दायरे में वित्तीय और गैर वित्तीय दोनों तरह के संस्थान आते हैं, जबकि एफआरडीआई बिल के दायरे में केवल वित्तीय संस्थान ही आते हैं। 2008 के वित्तीय संकट के बाद से हाई प्रोफाइल कंपनिया भी खुद को दिवालिया घोषित करने लगी थीं जिसके बाद इस तरह के विनियमन को लाने की आवश्यकता पड़ी थी। संकट से गुजर रहे कई देश डिपॉजिट इंश्योरेंस बिल लेकर आये थे। भारत में मोदी सरकार ने लोगों को बैंकिंग सेक्टर में उनकी भागीदारी को बढ़ाने के लिए जन धन योजना और नोटबंदी जैसी योजनाओं को लेकर आये थे। इसलिए भारत में डिपॉजिट इंश्योरेंस बिल की आवश्यकता थी। और सरकार द्वारा एफआरडीआई बिल लाने के पीछे भी यही वजह थी।
एफआरडीआई बिल के मुख्य रूप से दो घटक हैं, वित्तीय संस्थाओं का रेज्योलूशन और वित्तीय संस्थाओं के साथ जमाकर्ताओं की रकम का डिपॉजिट इंश्योरेंस। इस बिल के प्रावधान के मुताबिक वित्तीय संस्थान दिवालिया होने की स्थिति में जमाकर्ताओं एक लाख रुपये से अधिक पैसे का इस्तेमाल कर सकता है जो कि डिपॉजिट इंश्योरेंस और डिपॉजिट इंश्योरेंस ऐंड क्रेडिट गारंटी कॉर्पोरेशन (डीआईसीजीसी) के समान है। डीआईसीजीसी की स्थापना डिपॉजिट इंश्योरेंस और क्रेडिट गारंटी कारपोरेशन एक्ट 1961 के तहत 15 जुलाई 1978 में की गयी थी। 1961 के अधिनियम की जगह ये नया बिल लाना चाहता है और ये रेज्योलूशन कारपोरेशन की स्थापना के लिए ये प्रावधान प्रदान करता है जिससे वित्तीय कंपनियों की निगरानी, कंपनियों की रिस्क प्रोफाइल के हिसाब से वर्गीकरण, कंपनियों को दिवालिया होने जैसी समस्याओं का समाधान करना है। कारपोरेशन विफलता के जोखिम पर वित्तीय फर्मों को वर्गीकृत करने के लिए भी काम करेगा- कम, मध्यम, सामग्री, आसन्न, या महत्वपूर्ण। यदि कोई कंपनी गंभीर वित्तीय में पहुंचा जाता तो रेज्योलूशन कारपोरेशन उस कंपनी के प्रबंधन को संभालता। इसलिए, कुल मिलाकर बिल ने वित्तीय कंपनियों को 1961 के अधिनियम के मुकाबले ज्यादा विश्वसनीय और सुरक्षित बना दिया होगा।
मीडिया ने रेज्योलूशन से जुड़े तथ्यों को गलत तरह से पेश किया था। बिल का वो रेज्योलूशन भाग जिसमें बेल-इन क्लॉज शामिल है जो कहता है कि अगर आपका बैंक दिवालिया हो जाए तो सिर्फ एक लाख रुपये की रकम ही आपको बैंक से मिलती है। भले ही आपके खाते में इससे ज्यादा पैसा जमा हो। मीडिया ने इस तथ्य को ऐसे पेश किया कि अगर वित्तीय संस्थान दिवालिया हो जाए तो जमाकर्ताओं की जमाराशि में कटौती होगी। वास्तव में ‘बेल-इन क्लॉज’ 1 9 61 अधिनियम के प्रावधानों के जैसा ही है। लेकिन मीडिया द्वारा दिखाए गये झूठे तथ्यों की वजह से जनता का भरोसा टुटा है और जमाकर्ता द्वारा नकदी की निकासी बढ़ी है। लोगों द्वारा बैंकों से बड़ी मात्रा में नकदी की निकासी की वजह से सरकार की चिंता बढ़ गयी है और यही कारण है कि सरकार अब इस बिल को ठंडे बसते में डालने का विचार कर रही है।
यदि ये बिल पास हो जाता है तो ये जमाकर्ताओं के पैसों को सुरक्षित करेगा क्योंकि ये एजेंसी को एक ऐसा प्रबंधन प्रदान करता जो फर्मों की प्रोफाइल के आधार पर उनका वर्गीकरण करके आवश्यकता अनुसार कार्य करती। फिर भी मीडिया ने तथ्यों को तोड़-मोड़ कर पेश किया जिस वजह से जनता में अपनी पूंजी को लेकर चिंता की लहर दौड़ गयी और नतीजतन सरकार को इस बिल को वापस लेने का फैसला करना पड़ रहा है। इसीलिए जैसे कि मीडिया ने अपने हित में निहित लाभ को देखते हुए सार्वजनिक हित को ताक पर रखा था इस बार भी मीडिया ने वही किया है।



























