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क्या बीजेपी सवर्ण-विरोधी पार्टी है ?

TFI Desk द्वारा TFI Desk
10 September 2018
in मत
बीजेपी सवर्ण
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वर्तमान समय में राजनीति से प्रेरित अभियान चलाया जा रहा है जिससे बीजेपी को सवर्ण विरोधी पार्टी के रूप में चित्रित किया जा सके। कांग्रेस को जिस तुष्टिकरण राजनीति की वजह से सत्ता से बाहर किया गया था बीजेपी पर भी उसी राजनीति के आरोप लगाये जा रहे हैं। इस अभियान के जरिये ये आक्रोश पैदा करने और ये दिखाने की कोशिश की जा रही है कि बीजेपी सवर्ण समूह (खासकर ब्राह्मण और ठाकुर) के हितों को ताक पर रखकर अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति को फायदा पहुंचा रही है। केंद्र सरकार के एससी/एसटी संशोधन कानून 2018 को बीजेपी के सवर्ण विरोधो रुख को चित्रित करने के लिए उपयोग किया जा रहा है। हालांकि, नीतियों और तथ्यों पर अगर गौर करें तो विश्लेषण से पता चलेगा कि आरोप बेबुनियाद है।

ये समझने के लिए कि क्या बीजेपी सवर्ण विरोधी पार्टी है या नहीं इसके लिए भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के जातिवाद राजनीति पर एक नजर डाल लेते हैं जहां बीजेपी को न सिर्फ लोकसभा चुनाव में बहुमत मिला था बल्कि विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी ने बहुमत की संख्या से ज्यादा की सीटों पर कब्जा किया था। इसके बाद योगी आदित्यनाथ को प्रदेश का सीएम बनाया गया था। योगी आदित्यनाथ को हिंदुत्व का ‘पोस्टर बॉय’ के रूप में चित्रित किया जाता है और एक बार फिर से पार्टी को सवर्ण ग्रुप की विचारधारा से जोड़कर पेश किया जाने लगा। इस संबंध में उत्तर प्रदेश को देखें तो बीजेपी सवर्ण विरोधी है या नहीं इस मामले को गहराई से समझने के लिए एक आदर्श राज्य होगा। इसे समझने से पहले केंद्र सरकार के एससी/एसटी संशोधन के रुख को समझ लेते हैं।

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बिहार चुनाव में BJP के स्टार प्रचारक तय —मैदान में उतरेगी मनोज तिवारी, पवन सिंह और निरहुआ की भोजपुरी तिकड़ी, लेकिन मुख्यमंत्री नायब सैनी, भजन लाल शर्मा और पुष्कर सिंह धामी को क्यों नहीं मिली जगह?

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हमेशा से ‘सेक्युलर-उदारवादी’ पार्टियों और उनकी कार्यप्रणाली ने सवर्ण ग्रुप को एससी/एसटी समूह का ‘दुश्मन’ बताया और इस डर को अपनी गंदी नीतियों से बनाये रखा। बीजेपी को पारंपरिक रूप से एससी/एसटी के ‘दुश्मन’ सवर्ण ग्रुप के हितैषी और एससी/एसटी विरोधी पार्टी के रूप में दिखाया गया। एससी/एसटी के संवैधानिक ‘सेफगार्ड’ और समाज में बदलाव के बावजूद ये डर वर्ष 2014 तक इस समूह में बना रहा और इसके बाद इस समूह ने पार्टी को अपना समर्थन दिया। बीजेपी को मिले इस अभूतपूर्व समर्थन के बाद जब सुप्रीम कोर्ट ने एससी/एसटी एक्ट में कुछ बदलाव तो विपक्षी पार्टियों ने इसका इस्तेमाल किया. कुछ पार्टियों ने सुप्रीम कोर्ट ने एससी/एसटी एक्ट को खत्म कर दिया है जैसी झूठी अफवाह फैलाकर पूरे देश में हिंसा को चिंगारी दी और विरोध प्रदर्शन का पीछे से समर्थन किया। इसके बाद भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसल के बाद भारी विरोध प्रदर्शन को देखते हुए उचित कदम उठाने का आश्वासन दिया था। इसके बाद जब केंद्र सरकार ने एससी\एसटी संशोधन विधेयक 2018 के जरिये पुराने कानून को बहाल करने का फैसला किया तो अब वही विपक्षी पार्टी भारतीय जनता पार्टी पर सवर्ण-विरोधी पार्टी होने और जातिवाद की राजनीति करने का आरोप मढ़ रही है। ऐसे में ये बताना उचित होगा कि बीजेपी ने न तो एससी/एसटी एक्ट बनाया और न ही इसे मजबूत करने के लिए कोई कदम उठाया। भारतीय जनता पार्टी ने भारी विरोध को देखते हुए सिर्फ इसे बने रहने देने के लिए कदम उठाया। ऐसे में एक संवैधानिक प्रावधान के लिए भारतीय जनता पार्टी को सवर्ण विरोधी पार्टी बताना न सिर्फ बेवकूफी है बल्कि नासमझी भी है।

अब इस सवाल पर आते हैं कि क्या बीजेपी सवर्ण समूह के हित के लिए काम कर रही है? इसके लिए चलिए उत्तर प्रदेश पर लौट आते हैं।

उत्तर प्रदेश में राजनीतिक इतिहास को देखें तो यहां की राजनीति हमेशा से धार्मिक और जाति के आधार पर रही है। जातिवाद की राजनीति करने वाली समाजवादी पार्टी की पूर्व की सरकार में जो उपेक्षा से भरी राजनीति सामने आई थी वो पहले कभी नहीं देखा गया था। यादव जाति के लोगों को सपा से न सिर्फ राजनीतिक संरक्षण मिल रहा था बल्कि उनके लिए नीतियां भी ख़ास थीं जिसने प्रदेश सरकार के शासन के एक बेतुके स्तर को सामने रखा था। 2015 में, अखिलेश यादव द्वारा नियुक्त 86 एसडीएम में से 56 यादव समुदाय से थे। टाइम्स ऑफ़ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक 2014 में 60 फीसदी से ज्यादा पुलिस स्टेशन में अधिकारी यादव समुदाय से थे। प्रदेश की राजधानी लखनऊ में 40 में से 32 पुलिस स्टेशन का नेतृत्व यादव अधिकारी द्वारा किया जाता था।

सपा की पूर्व सरकार के ‘यादवीकरण’ के प्रक्रिया यूपीपीएससी में भी सामने आई थी जहां भर्ती में एक विशेष जाति को प्राथमिकता देने के आरोप लगे थे। जहां यादव अभ्यर्थियों के लिए परीक्षा केंद्र बदलने से लेकर इंटरव्यू में दिल खोलकर नंबर देने का मामला सामने आया था वहीं, एससी/एसटी के साथ भेदभाव किया गया था। यूपीपीएससी 2011 के इंटरव्यू में गैर-यादव और ओबीसी को 110 नंबर दिए गये थे और समान्य और अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति को अधिकतर 105 नंबर दिए गये थे जबकि यादव अभियार्थियों को औसतन 138 नंबर दिए गये थे। 2013 में यूपीपीएससी के लिए ओबीसी वर्ग के जिन 86 अभ्यर्थियों को चुना गया था  उसमें 50 सिर्फ यादव समुदाय के थे। उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश में यादव समुदाय की जनसंख्या सिर्फ 9 फीसदी है वहीं एक वर्ष में यूपीपीएससी में उनका प्रतिनिधित्व 60 फीसदी से अधिक है। ऐसे में सवाल उठता है कि या तो यादव अभियार्थी कुछ ज्यादा ही प्रतिभापूर्ण हैं या कुछ गड़बड़ है जो दिखिया नहीं दे रहा। हेडलाइंस टुडे ने इस मामले में एक स्टिंग ऑपरेशन किया और परिणाम हैरान कर देने वाले थे। यादव के अभ्यर्थियों को ख़ास लाभ दिया गया था।

ये मामला उत्तर प्रदेश के हाई कोर्ट पहुंचा और आखिर में यूपीपीएससी के चेयरमैन अनिल कुमार यादव नियुक्ति को रद्द कर दिया।

यूपी पुलिस में नियुक्ति और प्रमोशन की ये ‘यादवीकरण’ की कहानी तो बस एक छोटा से हिस्सा है। ये तथ्य साबित करते हैं कि अखिलेश यादव की पूर्व सरकार किस स्तर की राजनीति में लिप्त थी और इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि अखिलेश यादव की नेतृत्व की सरकार किसी भी पद पर नियुक्ति के लिए प्रतिभा नहीं बल्कि जाति आधारित थी। ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि सवर्ण समुदाय के लोगों को अनदेखा किया गया उनकी मेहनत पर पानी फेरा गया और उन्हें जो अधिकार मिलना चाहिए था उससे उन्हें वंचित रखा गया था। ये सिर्फ एक खासवर्ग के समुदाय को लुभाने के लिए किया गया था जो सत्ता में रहने के लिए उनके कार्यप्रणाली का हिस्सा था। मेरिटोक्रेसी, ये कसी भी समाज की आधारशिला है जो विकास को सही दिशा में बढ़ावा देता है और अखिलेश यादव की सरकार में इसे पूरी तरह से अनदेखा किया गया।

लोकतंत्र में सरकार की भूमिका संवैधानिक प्रावधानों के दायरे में काम करना है जहां सक्षम और मेधावी लोगों को मौका देना है और उन्हें समाज के विकास में योगदान के लिए तैयार करना है। ये बीजेपी सरकार का मूलमंत्र है जिसपर सीएम योगी के नेतृत्व में बीजेपी सरकार सत्ता में आने के बाद से काम कर रही है। योगी सरकार के प्रमुख क़दमों में से एक पूर्व सपा सरकार के तहत भर्ती की प्रक्रिया में हो रही गड़बड़ी की सीबीआई जांच करने का आदेश देना था

अधिकारियों की नियुक्ति के लिए योगी सरकार ने मेरिटोक्रेसी, क्षमता और प्रदर्शन को सबसे ऊपर रखा जिससे चापलूसों के लिए कोई जगह नहीं रही और परिणाम-

उत्तर प्रदेश में बीजेपी की सरकार का दूसरा महत्वपूर्ण कदम कानून और अपराधियों के गठजोड़ को खत्म करना था और अनुशासनात्मक कार्रवाई कर यूपी की योगी सरकार ने ऐसा करके भी दिखाया और यूपी के कानून व्यवस्था को दुरुस्त किया। कानून में यादवीकरण को उन्होंने खत्म करना शुरू कर दिया और उसे एक खास समुदाय से मुक्त करने के प्रयास शुरू किये। वो अभी भी सपा शासन में बढ़े गुंडाराज को खत्म करने के लिए प्रयास कर रहे हैं। उनके प्रयासों के कारण ही पुलिस और अपराधियों के जुड़ाव पर गहरा प्रभाव पड़ा। जैसी की उम्मीद थी इस तरह के प्रयासों के लिए योगी सरकार की आलोचना भी शुरू हो गयी।

बड़े पैमाना पर मिल रही आलोचनाओं के बावजूद बीजेपी सरकार ने लगातार आपराधिक गतिविधियों के खिलाफ अपने प्रयासों को जारी रखा और इसके अभूतपूर्ण परिणाम भी मिले।

बीजेपी सरकार के प्रयासों के कारण ही सरकार की कार्यप्रणाली में ख़ास वर्ग के प्रभुत्व को कम किया गया। अब अधिकारियों की नियुक्ति में पारदर्शिता है, प्रतिभावान और क्षमतापूर्ण अभ्यर्थियों की मेहनत बर्बाद नहीं जा रही और प्रतिस्पर्धा के परिणाम में कोई गड़बड़ी नहीं की जा रही है। इसके अलावा उत्तर प्रदेश में योगी सरकार ने आरक्षण पर एक बड़ा फैसला लेते हुए यूपी में निजी मेडिकल और डेंटल कॉलेजों के पीजी कोर्स में आरक्षण को भी ख़ारिज कर दिया है। इस आरक्षण को लागू करने का फैसला अखिलेश सरकार में लिया गया था।

किसी भी खास वर्ग को लाभ पहुंचाने या पक्षपात करने की बजाय बीजेपी सरकार ने यूपीएससी के परीक्षा पैटर्न में बड़ा बदलाव करते हुए यूपीपीसीएस का इंटरव्यू सिर्फ 100 अंक का होगा। पहले इंटरव्यू में 200 अंकों का होता था, लेकिन इस व्यवस्था में बदलाव करते हुए अंको में घटोत्तरी की गयी।

राज्य की मशीनरी को यादवीकरण से मुक्त करने में वक्त लगेगा और बीजेपी सरकार इस महत्वपूर्ण मामले को सुलझाने के लिए प्रयास कर रही है। इस पूरे विश्लेषण से ये स्पष्ट है कि बीजेपी एक भेदभावपूर्ण नीतियों को खत्म कर रही है जो पूर्व की सरकार की देन है जो सिर्फ एक खास वर्ग को लाभान्वित करने के लिए कार्य करती थी। इसी का नतीजा है कि आज पुलिस बल में अधिकारियों की नियुक्ति उनके मेरिट के अनुसार होता है न कि उनके सरनेम के अनुसार।

समाजवादी पार्टी में यादवीकरण की प्रक्रिया और सेक्युलर-उदारवादी पार्टियों का भी अन्य समुदायों के लिए इसी तरह की रणनीति न सिर्फ सामाजिक एकता के लिए खतरा है बल्कि ये अन्य समुदायों के लोगों में डर की भावना को बढ़ावा देता है खासकर ब्राह्मणों में जिन्होंने 2007 के राज्य चुनावों में ज्यादातर समर्थन बीजेपी को दिया था और कुछ हद तक बीएसपी को भी अपना समर्थन दिया था।

बीजेपी सरकार द्वारा उठाये जा रहे कदम से पूर्व की सरकारों द्वारा एक विशेष समुदाय के वर्ग को लाभ पहुँचाने की रणनीति के विपरीत है। उत्तर प्रदेश की राजनीति में ब्राह्मण समुदाय उदारवादी-सेक्युलर पार्टियों के लिए एक ‘पंचिंग बैग’ रहा है और कोई भी नेता इस समुदाय पर हमला कर लोकप्रियता चाहता है। जैसा कि बताया गया बीजेपी सरकार द्वारा लिए गये फैसले सिर्फ ब्राह्मण समुदाय को लाभ पहुंचाना है जिससे उन्हें वंचित रखा गया। राजनीतिक रूप से संवेदनशील समुदाय (खासकर ब्राह्मण समुदाय जिनके पास उन्मादी भीड़ का हथियार है) बदले की राजनीति से स्वयमं को सुरक्षित महसूस कर सकें ऐसी  नियम-आधारित प्रणाली को सुनिश्चित किया जा रहा।

वत्सव में सवर्ण समुदाय जिसकी मांग कर रहा है ये नियम-आधारित मेरिटोक्रेसी वही है जो एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने के उद्देश्य से लाया गया।

Tags: अखिलेश यादवउत्तर प्रदेशबीजेपीसवर्ण
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