उत्तर प्रदेश में समाजवादी प्रमुख अखिलेश यादव और बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती ने मुस्लिमों को जिस तरह से नजरअंदाज करके गठबंधन किया, उससे पूरे मुस्लिम समुदाय में नाराजगी है। गठबंधन का निर्णय लेते समय किसी भी मुस्लिम प्रतिनिधि को शामिल नहीं किया गया, उससे मुसलमानों को इस बात का एहसास हो गया है कि वो सिर्फ वोट बैंक बनाने का एक जरिया हैं। इसे लेकर अब मुस्लिम समुदाय ने नोटा के विकल्प की बात कही है। ऐसे में मुस्लिम समुदाय ने स्पष्ट कर दिया है कि वो सपा-बसपा को वोट नहीं देंगे।
दरअसल, सपा-बसपा द्वारा हाल ही में हुए गठबंधन के फैसले में कोई भी मुस्लिम प्रतिनिधि न होने के कारण मुसलमान खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। इस तरह से अनदेखी किए जाने के बाद राज्य में 19.20 प्रतिशत की आबादी वाले मुसलमानों के अलग-अलग संगठनों ने बगावती स्वर उठाने शुरू कर दिए हैं। नेशनल उलेमा काउंसिल, आल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) समेत अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) के उपाध्यक्ष समेत तमाम मुस्लिम संगठनों ने आवाज उठाई है। इन सबका मानना है कि यूपी में हुए गठबंधन में मुसलमानों को ठगा गया है।
मुस्लिम संगठनों का मानना है कि उन्होंने हमेशा सपा-बसपा का समर्थन किया लेकिन इस गठबंधन के वक्त उन्हें बुरी तरह नजरअंदाज किया गया है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में खासा प्रभाव रखने वाले नेशनल उलेमा काउंसिल के एक सदस्य ने कहा कि इस गठबंधन में हम भी भाग लेने की सोच रहे थे। मुसलमानों ने इन पार्टियों को सींचा है लेकिन इन पार्टियों ने हमें ही बाहर रखा। उलेमा काउंसिल के नेताओं ने पूछा है कि अगर राष्ट्रीय लोक दल और निषाद पार्टी को गठबंधन में जगह मिल सकती है तो फिर हमें क्यों नहीं।
बात दें कि उलेमा काउंसिल सूबे की कुल 80 सीटों में से कम से कम 16 सीटों की मांग रखी है। वहीं दूसरी ओर असदुद्दीन की पार्टी एआईएमआईएम की यूपी विंग के एक नेता का मानना है कि राज्य की जनसंख्या 20 प्रतिशत है। उस हिसाब से मुसलमानों को लिए 20 प्रतिशत सीटों की मांग गलत नहीं है। हालांकि पार्टी के ही नेता डॉ. मोहम्मद अयूब का मानना है कि अभी भी मुसलमानों को गठबंधन में जगह दी जाएगी।
बता दें कि पीस पार्टी और निषाद पार्टी ने गोरखपुर उपचुनाव समाजवादी पार्टी को समर्थन दिया था। उस चुनाव में निषाद पार्टी के प्रत्याशी की जीत हुई थी। वहीं दूसरी ओर गैंगस्टर से नेता बने कौमी एकता दल के प्रमुख मुख्तार अंसारी और उनके भाई ने बसपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की घोषणा की है। बता दें कि मुख्तार का गाजीपुर और मऊ जिलों में खासा प्रभाव है।
वहीं दूसरी ओर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय छात्रसंघ में भी सपा-बसपा के इस बर्ताव पर खासी नाराजगी है। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी(एएमयू) छात्र संघ ने नाखुशी जताते हुए गठबंधन पर सवाल उठाए हैं। यूनियन हॉल में शनिवार को पत्रकारों से बातचीत के दौरान एएमयू छात्र संघ के उपाध्यक्ष हमजा सुफियान ने इस गठबंधन को ‘ठगबंधन’ तक कह दिया। हमजा सुफियान ने कहा कि दोनों दल मुसलमानों का वोट लेकर हमेशा सत्ता हासिल करते आ रहे हैं, लेकिन इस तथाकथित गठबंधन में मुस्लिम राजनीतिक दलों का कोई प्रधिनित्व नहीं दिख रहा है।
हमजा सुफियान ने आगे कहा कि आज देश का मुस्लमान सत्ता में हिस्सेदारी चाहता है। वो सिर्फ दरबारी बन कर नहीं रहना चाहता। विश्वविद्यालय उपाध्यक्ष ने कहा कि उत्तर प्रदेश में बहुत सी मुस्लिम पार्टियां हैं जैसे उलेमा कौंसिल, पीस पार्टी और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) बहुत समय से काम रही है। तो क्या उनको इस गठबंधन में शामिल नहीं किया गया। ताकि मुसलमानों का भी प्रतिनिधित्व इसमें हो सके। ये गठबंधन नहीं ठगबंधन है। शिकारी वही है बस जाल बदल गया।
हमजा सुफियान ने आगे कहा की मुसलमानों के नसीब में मोब लीचिंग या दंगा मिला। चाहे किसी की भी सरकार हो मुसलमानों को कुछ नहीं मिला। बहनजी दलितों की और बाबूजी यादवों की राजनीति करते हैं। उन्होंने कहा कि अगर पार्टियों को शामिल नहीं करते तो हमारे पास नोटा का भी ऑप्शन है। इसका मतलब साफ़ है कि उत्तर प्रदेश के मुस्लिम सपा-बसपा को वोट नहीं देंगे। ऐसे में सपा-बसपा लो मुश्किलें और बढ़ सकती हैं।
अगर मुल्सिम समुदाय नोटा विकल्प को चुनता है तो ये भारतीय जनता पार्टी के लिए फायदेमंद साबित होगा और बसपा-सपा के लिए एक नयी मुश्किल खड़ा करेगा। ये नोटा ही है जिस वजह से भारतीय जनता पार्टी को पिछले साल तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा था जिसके बाद से भारतीय जनता पार्टी ने भी नोटा की ताकत को माना था जिसे हथियार बनाकर कांग्रेस ने अपनी जीत की राह तैयार की थी। ऐसे में उत्तर प्रदेश में मुस्लिम समुदाय का नोटा ऑप्शन की ओर झुकाव सपा-बसपा की चुनावी रणनीति को बिगाड़ सकता है।