यदि 2014 के चुनाव सिर्फ और सिर्फ मोदी के इर्द गिर्द घूम रहे थे, तो इस बार के चुनाव शाणक्य के इर्द गिर्द भी घूमे, यानि अपने भाजपा के चाणक्य, अमित शाह के इर्द गिर्द। चाहे वो प्राथमिक सदस्यता को रिकॉर्ड स्तर तक ले जाना हो, या फिर बड़े ही कम समय में नॉर्थ ईस्ट, बंगाल और ओडिशा जैसे राज्यों में भाजपा की पैठ जमाना हो, पिछले पांच वर्षों में जिस तरह अमित शाह ने भाजपा के लिए काम किया है वो सराहनीय है।
चाहे पीएम मोदी और भाजपा का समर्थन करने वाले कर्यकर्ता हो या आरएसएस प्रचारक या गैर पार्टी स्वयंसेवक ही क्यों न हों वो सभी में नया जोश भरने का काम करते रहे हैं..यही नहीं पश्चिम बंगाल और केरल में मिलने वाली चुनौतियों का डटकर सामना करने वाले भाजपा सदस्य और कार्यकर्ताओं के अंदर उत्साह भरने का काम अमित शाह बखूबी करते हैं। इसके अलावा अमित शाह के बूथ स्तर की माइक्रो मैनेजमेंट ने कई राजनीतिक विशेषज्ञों को उनकी प्रतिभा का लोहा मानने पर विवश कर दिया।
खुद कांग्रेस भी इस बात को अच्छी तरह से समझती है कि कौन सा नेता दमदार हो और उसकी नीतियों के लिए खतरा है। यूपीए के पहले सत्र में ही इस पार्टी ने मोदी-शाह की दमदार जोड़ी को भांप लिया था और समझ गयी थी आने वाले दिनों ये दोनों योग्य नेता देश की राजनीति में कुछ बड़ा करने वाले हैं।
यही कारण था की अमित शाह को तत्कालीन कांग्रेस सरकार सोहराबुद्दीन शेख और इशरत जहां के फर्जी एनकाउंटर के झूठे आरोपों में फंसाकर उन्हें देश की राजनीति से हमेशा के लिए बाहर कर देना चाहती थी। इस घृणित काम में लेफ्ट लिब्रल गैंग ने तत्कालीन यूपीए सरकार का पूरा पूरा साथ दिया, और लगभग दो सालों तक अमित शाह को गुजरात की राजनीति से बाहर रखने में कामयाब भी रही।
पर वे शायद भूल गए थे कि अमित शाह किस मिट्टी के बने हैं। जैसे ही 2012 में पीएम मोदी और अमित शाह पर लगे आरोप झूठे साबित हुए, उन्होंने अपना सारा ध्यान आगामी लोकसभा चुनावों पर केन्द्रित किया। कांग्रेस और लेफ्ट लिबरल गैंग की उम्मीदों के विपरीत प्रधानमंत्री उम्मीदवार बने नरेंद्र मोदी ने जब अमित शाह को उत्तर प्रदेश में भाजपा को वापिस सत्ता में लाने की ज़िम्मेदारी सौंपी, तो कई ‘दरबारियों’ ने उनके इस निर्णय का मज़ाक उड़ाया, और यह तर्क भी दिए कि वो एक पैराशूट नेता हैं जिन्हें गुजरात से उत्तर प्रदेश में उतारा गया है और वो यहां के समीकरण को भला क्या समझेंगे.
यहीं सभी ने अमित शाह को परखने में बड़ी भूल कर दी। जब उत्तर प्रदेश बदायूं कांड और मुज़फ्फ़रनगर के दंगों की आग में सुलग रहा था उस समय अमित शाह ने प्रदेश की जनता की नब्ज को समझा और उसी के अनुसार पार्टी की रणनीतियां बनाई.
उत्तर प्रदेश की पहचान माने जाने वाली जातिगत राजनीति की काट हिन्दू एकता के रूप में निकालते हुये अमित शाह ने बूथ स्तर के प्रचार पर ध्यान दिया, जहां प्रदेश की राजनीति को जाति से ऊपर उठाकर हिन्दू एकता और राष्ट्रवाद से जोड़ा और नतीजा सभी ने देखा. परिणाम यह रहा कि सभी विशेषज्ञों के समीकरणों को झुठलाते हुए न केवल भाजपा ने उत्तर प्रदेश में अविश्वसनीय बहुमत प्राप्त करते हुये 73 सीटों पर कब्जा जमाया, बल्कि कुछ ही साल बाद हुए विधानसभा चुनावों में अप्रत्याशित 312 सीट अपने दम पर जीतकर पूरे दो दशक बाद राज्य में अपनी सरकार बनाने में सफलता हासील की।
इसीलिए 2019 के चुनाव से पहले गठबंधन में रूठे हुए दलों को मनाना हो, या उत्तर प्रदेश में सपा बसपा रालोद महागठबंधन की चुनौती से पार पाना हो, या इन पार्टियों के जातिवादी वैमनस्य से निपटना हो…ये सब करना बिलकुल भी आसान कार्य नहीं था। लेकिन इसके बावजूद अमित शाह ने यह घोषणा की, कि न सिर्फ भाजपा उत्तर प्रदेश में जीत दर्ज करेगी, बल्कि 50 प्रतिशत से भी ज़्यादा मत प्रतिशत प्राप्त करेगी।
पिछले साल जब पार्टी राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में करारी हार झेल चुकी हो, ऐसे में ये बयान या तो सरासर बेवकूफी थी, या फिर ज़बरदस्त आत्मविश्वास का प्रत्यक्ष प्रमाण। और जब परिणाम घोषित हुए, तो पिछली बार इन राज्यों में जीती हुई सीटों में से न सिर्फ 90 प्रतिशत से ज़्यादा सीट बचाने में भाजपा सफल रही, बल्कि अपने दम पर पार्टी ने 300 से ज़्यादा सीटों पर जीत दर्ज की. ऐसे में इस जीत ने अमित शाह के महत्व को बढ़ाया । ऐसे में यदि इस चुनाव के लिए उन्हें ‘मैन ऑफ द मैच’ घोषित किया जाये, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
ये बड़ी उन्हें जीत तब मिली है जब उन्हें झूठें मामलों में आरोप प्रत्यारोप से जूझना पड़ा था। चाहे वो जस्टिस लोया की मृत्यु पर विपक्ष द्वारा लगाये गये आरोप हो, या पुराने एंकाउंटर से जुड़े मामलों में उन्हें ज़बरदस्ती घसीटना हो, या फिर जय शाह के व्यवसाय से जुड़े मामलों में उनका नाम उछालना हो, अमित शाह को हर प्रकार की मुसीबत का सामना करना पड़ा।
देश के लिए समर्पित अमित शाह ने हर तरह के आरोपों का सामना किया लेकिन कभी इसका असर देश और पार्टी की उन्नति के प्रति अपने कर्तव्यों पर पड़ने नहीं दिया। अमित शाह के लिए कोई भी चुनाव तब तक समाप्त नहीं होता, जब तक उनके अनुरूप परिणाम न आए, और चुनाव अगर हार भी गए, तो भी वे उस राज्य को अपनी दृष्टि से विजयी होने तक ओझल नहीं होने देते।