देश की सत्ता पर 54 साल तक काबिज रहने वाली कांग्रेस, वापस सत्ता पाने के लिए इतना झटपटा रही है कि 23 मई को नतीजे आने से पहले ही उसने जोड़-तोड़ की राजनीति करना शुरू कर दिया है। कांग्रेस चाहती है कि वह नतीजों के आने से पहले ही सभी महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों को अपने साथ मिला ले ताकि नतीजे आने के बाद बिना कोई समय बर्बाद किये राष्ट्रपति कोविन्द उन्हें सरकार बनाने का निमंत्रण पेश कर सकें। हालांकि, हैरानी की बात यह है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की बजाय कांग्रेस पार्टी की इस रणनीति को आगे बढ़ाने के लिए यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी सामने आई हैं। यही नहीं वो दिल्ली में 21 मई से शुरू होने वाली बैठक का नेतृत्व भी वो खुद करेंगी। सोनिया गांधी के इस फैसले के बाद राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता पर अब एक बार फिर से सवाल खड़े हो गए हैं।
2019 के चुनाव में राहुल गांधी जबरदस्त एक्टिव रहे और राफेल के मुद्दे पर वह मोदी सरकार पर हमलावर नजर आये। लेकिन 6 चरणों के चुनाव के बाद पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं के बयानों से ऐसा लग रहा है कि, वह सफल नहीं हुए। पीएम मोदी और अमित शाह की रणनीति के सामने राहुल गांधी और प्रियंका गांधी फीके नजर आये और अब सोनिया गांधी खुद सामने आ गई हैं।
खबरों के मुताबिक सोनिया गांधी ने सभी विपक्षी पार्टियों के नेताओं को पत्र लिखकर 21 मई से 23 मई तक दिल्ली में होने वाली बैठक के लिए समय निकालने की मांग की है। डीएमके अध्यक्ष एमके स्टालिन ने इस बात की पुष्टि की है कि दिल्ली में होने वाली इस बैठक में शामिल होने के लिए उन्हें निमंत्रण मिल चुका है। इसके अलावा जेडी(एस) के नेता एचडी देवगौड़ा ने इस बैठक में शामिल होने की बात को भी स्वीकार लिया है। सूत्रों के मुताबिक सोनिया गांधी ने केसीआर के नेतृत्व वाली टीआरएस और बीजू जनता दल के नेताओं से भी संपर्क साधने की कोशिश की है। गौर करने वाली बात यह है कि वर्ष 2004 के लोकसभा चुनावों के दौरान भी सोनिया गांधी ने कुछ इसी तरह की रणनीति अपनाई थी।
यहां यह जानना भी दिलचस्प है कि विपक्षी दलों को साथ लाने के लिए की जा रही यह सारी दौड़-धूप मौजूदा कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में नहीं, बल्कि कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी के नेतृत्व में की जा रही है। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि खुद सोनिया गांधी भी उनके बेटे की नेतृत्व क्षमता को लेकर असमंजस की स्थिति में हैं। सोनिया गांधी एक बार फिर से पार्टी के लिए मुख्य भूमिका निभाकर पार्टी की छवि को मज़बूत करना चाहती हैं क्योंकि कोई भी राजनीतिक दल राहुल गांधी की अध्यक्षता वाली कांग्रेस के साथ बातचीत करने में सहज महसूस नहीं करता। ठीक चुनावों से पहले कांग्रेस द्वारा राहुल गांधी की बहन प्रियंका गांधी वाड्रा को सक्रिय राजनीति में लाया गया था, लेकिन अपनी नेतृत्व क्षमता के बूते वो भी कुछ खास कमाल नहीं दिखा पाई। जब राहुल गांधी को पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया था, तो इस बात की अटकलें लगाई जा रही थी कि सोनिया गांधी अब सक्रिय राजनीति से सन्यास ले सकती हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की दयनीय स्थिति को देखते हुए सोनिया गांधी को सक्रिय राजनीति में लाया गया और रायबरेली से उनको उम्मीदवार बनाया गया था।
राहुल गांधी आज देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी की अध्यक्षता करते हैं और जब उनको पार्टी की अध्यक्षता सौंपी गई थी तो सबको यह उम्मीद थी कि वे पार्टी के कार्यकर्ताओं में एक नया जोश भरने का काम करेंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। पिछले पांच सालों में कांग्रेस की को दुर्दशा हुई, वह अभूतपूर्व रही है। कांग्रेस पार्टी के घटिया नेतृत्व का ही यह नतीजा है कि आज कांग्रेस को सिर्फ छत्तीसगढ़ और पंजाब जैसे राज्यों में पूर्ण बहुमत हासिल है जबकि तीन राज्यों में कांग्रेस अपने साथी दलों के साथ मिलकर सरकार चला रही है। यही कारण है कि ऐसे निर्णायक समय पर सोनिया गांधी ने खुद सामने आकर सारी जिम्मेदारियाँ अपने कंधे पर लेने का फैसला लिया है।