लोकसभा चुनावों के सम्पन्न होने में अब सिर्फ एक चरण बाकी है। दिल्ली में बैठे राजनीतिक विश्लेषक अक्सर अपने चुनावी विश्लेषणों को उत्तर प्रदेश और बिहार तक समेटकर उसपर पूर्ण विराम लगा देते हैं, लेकिन आज हमें दक्षिण भारत की राजनीति में लगातार बदलते चुनावी समीकरणों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। देशभर में जारी लोकसभा चुनावों के नतीजे वैसे तो 23 मई को आएंगे, लेकिन उससे पहले ही यूपीए और एनडीए के इतर दक्षिण भारत में एक अलग नेशनल फ्रंट बनाने की योजना बनाई जाने लगी है, और इस पूरी योजना के केंद्र में तेलंगाना के मुख्यमंत्री के.चन्द्रशेखर राव हैं।
पिछले पांच सालों में वे देश के सबसे बड़े क्षेत्रीय नेता बनकर उभरे हैं जिन्होंने बिना किसी राष्ट्रीय पार्टी के सहयोग से अपना वर्चस्व स्थापित करने में सफलता पाई है। उनकी छवि एक रिस्क लेने वाले नेता के तौर पर उभरकर सामने आई है, जिन्होंने अपनी अलग पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति के निर्माण से लेकर अपने लिए अलग राज्य तेलंगाना की मांग करने का जोखिम उठाया, और हर बार उनको इसके सकारात्मक नतीजे देखने को मिले। 2009 में जब उनकी पार्टी एनडीए के घटक दलों में से एक हुआ करती थी तब उनके पास सिर्फ 2 लोकसभा सीटें थीं। आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री वाईएस राजशेखरा रेड्डी के देहांत के बाद चन्द्रशेखर राव को अपने लिए एक अवसर दिखाई दिया। उन्होंने अलग राज्य की मांग करना शुरू कर दिया, जिसके लिए यूपीए सरकार पहले ही वादा कर चुकी थी। उनके लगातार दबाव और उनकी प्रभावशाली छवि का ही यह नतीजा था कि जून 2014 में भारत सरकार ने तेलंगाना के रूप में एक अलग राज्य के निर्माण को अपनी स्वीकृति दे दी।
केसीआर की मजबूत छवि का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि पिछले 34 सालों से वे लगातार चुनाव जीतते आ रहे हैं, और वो अभी तक एक भी चुनाव नहीं आ रहे हैं। उन्होंने अपनी सेकुलरवादी छवि को मजबूत बनाए रखा और राज्य के अल्पसंख्यक मुस्लिमों के प्रति अपना सकारात्मक रुख रखा। तेलंगाना आंदोलन में अपनी सक्रिय हिस्सेदारी की वजह से तेलंगाना के लोगों के बीच उनकी लोकप्रियता इतनी बढ़ गई कि राज्य के पहले मुख्यमंत्री के रूप में लोगों ने उनको ही अपनी पहली पसंद बनाया। तेलंगाना में शानदार प्रदर्शन के बाद इन लोकसभा चुनावों में भी मुख्यमंत्री के चन्द्रशेखर राव की पार्टी को राज्य में भारी जन समर्थन मिलने की उम्मीद है। हालांकि, ठीक नतीजों से पहले के चन्द्रशेखर राव अब दक्षिण भारत के कई बड़े नेताओं से लगातार संपर्क साधने की कोशिश कर रहे हैं ताकि केंद्र की राजनीति में वे अपनी एक बड़ी भूमिका निभा सके।
दरअसल, के चन्द्रशेखर राव दक्षिण भारत की कई गैर-कांग्रेसी पार्टी और नेताओं को साथ लेकर एक नेशनल फ्रंट का निर्माण करना चाहते हैं जिससे दक्षिण भारत में भाजपा और कांग्रेस के प्रभुत्व को पूरी तरह समाप्त किया जा सके। मुख्यमंत्री राव और तमिलनाडु के मुख्य विपक्षी नेता स्टालिन के बीच हुई मुलाक़ात को भी इसी संभावित फ्रंट से जोड़कर देखा जा रहा है। इसके अलावा पिछले ही हफ्ते वे केरल के मुख्यमंत्री पिनारई विजयन से भी मिले थे। तेलंगाना राष्ट्रीय समिति (टीआरएस) के नेता खुद इस बात को स्वीकार कर चुके हैं कि उनकी पार्टी एक नेशनल फ्रंट बनाने के विचार को अन्य पार्टियों के सामने रखने की इच्छुक है। इसी संबंध में के चन्द्रशेखर राव पिछले कुछ समय में पश्चिम बंगाल की मुखमंत्री ममता बनर्जी, जेडीएस से देव गौड़ा, वाईएसआर कांग्रेस से जगन मोहन रेड्डी से मुलाक़ात कर चुके हैं। हालांकि, यह बात और हैं कि जगनमोहन रेड्डी के अलावा उन्हें अब तक किसी अन्य पार्टी से समर्थन मिलने का आश्वासन नहीं मिला है। तमिलनाडु के मुख्य विपक्षी नेता स्टालिन तो पहले ही अपना कांग्रेस प्रेम दिखा चुके हैं। हाल ही में उन्होंने राहुल गांधी को पीएम पद के लिए सबसे योग्य उम्मीदवार बताया था, जिसके बाद उन्होंने केसीआर के एक अलग फ्रंट बनाने वाले विचार को पूरी तरह नकार दिया। हालांकि, यह देखना भी दिलचस्प होगा कि क्या वे अपने इस स्टैंड को 23 मई के नतीजे आने के बाद भी बरकरार रख पाते हैं या नहीं!
यहां गौर करने वाली बात यह है कि के चन्द्रशेखर राव दक्षिण भारत के कांग्रेस के साथी दलों और नेताओं को अपने साथ लेने की कोशिश कर रहे हैं। एनसीपी के शरद पवार और जेडीएस के देव गौड़ा और एचडी कुमारस्वामी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। हालांकि, इसके अलावा टीआरएस के नेता एनडीए को पूर्ण बहुमत ना मिलने की स्थिति में एनडीए को समर्थन करने की बात भी कह चुके हैं। इसको लेकर टीआरएस के एक नेता ने कहा ‘सब कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि यूपीए और एनडीए को कितनी सीटें मिलेंगी, केसीआर बेशक एक राष्ट्रीय मोर्चे का गठन करना चाहते हैं लेकिन अगर एनडीए थोड़े अंतर से बहुमत पाने में कामयाब नहीं हो पाती है तो हम एनडीए का समर्थन भी कर सकते हैं’।
अभी बेशक ऐसे किसी संभावित फ्रंट के बनने में कई चुनौतियां सामने दिखाई दे रही हों, लेकिन अगर दक्षिण भारत के ये बड़े राजनीतिक चेहरे एक साथ आकर ऐसे किसी गठबंधन का निर्माण करते हैं तो इसका दक्षिण भारत की राजनीति के साथ-साथ, केंद्रीय राजनीति पर भी गहरा असर पड़ना तय है।