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भ्रष्टाचार के ‘मोहरे’ और नेहरू से राहुल तक गांधी परिवार का शातिर खेल!

Harish Chandra Srivastava द्वारा Harish Chandra Srivastava
6 May 2019
in समीक्षा
राहुल गांधी भ्रष्टाचार

PC: YouTube

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अभी उत्तर प्रदेश के अंबेडकरनगर के एक दूरदराज गांव में जाना हुआ। गांव की चौपाल में ग्रामीण चर्चा कर रहे थे कि कांग्रेस की यूपीए सरकार में राहुल गांधी के बिजनेस साझेदार को 20 हजार करोड़ के पनडुब्बी रक्षा सौदे में आफसेट ठेका मिलने का खुलासा बताता है कि गांधी परिवार की दलाली व भ्रष्टाचार का खेल कितना शातिराना है। 20-21 साल का एक नौजवान कह रहा था, ‘गांधी परिवार ही अपने आप में घोटाला है, नेहरू से लेकर राहुल और प्रियंका तक खुद को निरंकुश राजा मानते हुये भ्रष्टाचार को जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं।’ इस चर्चा से याद आया कि महात्मा गांधी के निजी सचिव रहे वी. कल्याणम ने अक्टूबर 2011 में सार्वजनिक मंच से कहा था, ‘आज देश में भ्रष्टाचार चरम पर है और इसके लिये मैं जवाहर लाल नेहरू को जिम्मेदार मानता हूं। ब्रिटिश राज में इतना भ्रष्टाचार नहीं था। लेकिन आजादी के तुरंत बाद भ्रष्टाचार शुरू हो गया और आज यह करोड़ों में होता है।’  

कल्याणम 1943 से 1948 तक महात्मा गांधी के निजी सचिव रहे थे। उनका कहना था, ‘नेहरू वैसे ही ईमानदार थे, जैसे कि मनमोहन सिंह। आज के भ्रष्टाचार के लिये मनमोहन सिंह भी जिम्मेदार हैं। मनमोहन सिंह व्यक्तिगत रूप से बहुत ईमानदार थे, लेकिन उन्होंने भ्रष्टाचार का संरक्षण किया। ऐसे ही नेहरू ने किया।’

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1947 में आजादी मिलने के बाद जब जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री बन गये तो इसके एक महीने के भीतर ही महात्मा गांधी के पास 50 चिट्ठियां आयी थीं, जिसमें से दस चिट्ठियां देश में चल रहे भ्रष्टाचार के शिकायत की थीं। कल्याणम बताते हैं कि नेहरू के लिये भ्रष्टाचार मुद्दा ही नहीं था। एक व्यक्ति ने जब नेहरू से बढ़ रहे भ्रष्टाचार की शिकायत की तो उन्होंने जवाब दिया, ‘भद्र पुरुष, इन छोटे-मोटे भ्रष्टाचार की चिंता मत करो।’ तब उस व्यक्ति ने नेहरू को करारा जवाब देते हुए कहा, ‘श्रीमान, छोटा भ्रष्टाचार छोटे भ्रूण की तरह है जो बढ़ता जाता है।’

कहा जाता है कि उस समय के तीन व्यक्ति अति भ्रष्ट थे और ये तीनों नेहरू के बेहद करीबी भी थे। इनमें से एक थे नेहरू के रक्षा मंत्री केके मेनन, वित्त मंत्री टीटी कृष्णमचारी और पंजाब के कांग्रेसी मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरो। इनके भ्रष्टाचार के किस्से उजागर होने के बाद भी नेहरू ने इन्हें बर्खास्त करने के बजाय ईनाम दिया और कैबिनेट में रहने दिया। मेनन वही थे, जिनकी संलिप्तता देश के पहले रक्षा घोटाले यानी जीप घोटाले में सामने आयी थी, लेकिन नेहरू ने उन्हें मंत्रिमंडल से हटाया नहीं। बाकी भ्रष्टों को भी नेहरू ने मंत्रिमंडल में रखकर संरक्षण दिया। इसीलिये इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि मेनन, कृष्णामचारी आदि केवल चेहरा थे, भ्रष्टाचार के असली सरपरस्त तो नेहरू थे। कल्याणम द्वारा बताये गये इस सच को सुनकर भ्रष्टाचार के उन मामलों की मॉडस आपरेंडी पता चलती है, जिनमें गांधी परिवार का नाम आया। वह माडस आपरेंडी यह है कि भ्रष्टाचार के लिये चेहरा किसी और रखो ताकि सीधा लिंक न आये। नेहरू के समय हुये मूंदडा घोटाले का तरीका याद कीजिये। कोलकाता के उद्योगपति हरिदास मूंदड़ा को आज़ाद भारत के पहले ऐसे घोटाले के बतौर याद किया जाता है जिसे तब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से जोड़कर देखा गया। 1957 में मूंदड़ा ने सरकारी इंश्योरेंस कंपनी एलआईसी के ज़रिए अपनी छह कंपनियों में 12 करोड़ 40 लाख रुपए का निवेश कराया। यह निवेश सरकारी दबाव में एलआईसी की इन्वेस्टमेंट कमेटी की अनदेखी करके किया गया। जब तक एलआईसी को पता चला उसे कई करोड़ का नुक़सान हो चुका था। इस घोटाले का खुलासा नेहरू के दामाद फिरोज गांधी ने ही किया था। प्रश्न उठता है कि यह सरकारी दबाव क्या था? यह दबाव प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू की तरफ से आया होगा? इस घोटाले को नेहरू ख़ामोशी से निपटाना चाहते थे क्योंकि इससे उनका नाम जुड़ रहा था और उन्होंने अपने वित्तमंत्री टीटी कृष्णामाचारी को बचाने की कोशिश भी की। इस घोटाले में भी हरिदास मूंदडा और कृष्णामाचारी को मोहरा बनाकर गांधी परिवार ने बच निकलने की कोशिश की।

फिर इंदिरा राज में हुये ऑयल घोटाला, मारुति घोटाला आदि। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी को यात्री कार मारुति बनाने का लाइसेंस मिला था। वर्ष 1973 में सोनिया गांधी को मारुति टेक्निकल सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड का प्रबंध निदेशक (एमडी) बनाया गया, हालांकि, सोनिया के पास इसके लिए जरूरी तकनीकी योग्यता नहीं थी। बताया जा रहा है कि कंपनी को सरकार की ओर से टैक्स, फंड और कई छूटें मिलीं थी।   

स्विस मैगजीन स्विजर इलस्ट्रिअरटिन ने नवंबर 1991 में एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसमें कहा कि राजीव गांधी का स्विस बैंक में खाता है जिसमें 13,200 करोड़ रुपये जमा है। इस रिपोर्ट को गांधी परिवार ने आज तक कभी न तो नकारा है न ही इस पत्रिका के खिलाफ रिपोर्ट प्रकाशित करने के लिए कोई मुकदमा ही किया है। इसका अर्थ यह क्यों न माना जाय कि यह रिपोर्ट सच है। राजीव गांधी के ऊपर लगे 1497 करोड़ रुपए के बोफोर्स दलाली कांड अभी भी लोगों के दिमाग में ताजा है। मैग्जीन ने छापा था कि स्वीडन की तोप बनाने वाली कंपनी बोफ़ोर्स ने भारतीय सेना को अपनी 155 एमएम होवित्जर तोपें बेचने के लिये कमीशन के रूप में 64 करोड़ रुपए राजीव गांधी समेत कई कांग्रेस नेताओं को दिए थे। स्वीडन के पूर्व पुलिस चीफ स्टेन लिंडस्ट्राम ने बोफोर्स दलाली मामले के दस्तावेज लीक किये थे तो ये मामला बाहर आया। बोफोर्स मामले में भी एक मोहरा इटली का बिचौलिया ओतावियो क्वात्रोकी था। आरोप लगा था कि इसी बिचौलिये क्वात्रोकी के जरिये बोफोर्स का कमीशन राजीव गांधी तक पहुंचा था। क्वात्रोकी वही व्यक्ति था जो राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में गांधी परिवार का बेहद करीबी था और राजीव गांधी की मौत के बाद 21 बार सोनिया गांधी से मिला था। इंडिया टुडे ने 8 जनवरी 2011 को एक विस्तृत रिपोर्ट में क्वात्रोकी और राजीव गांधी व सोनिया गांधी के बीच संबंधों को उजागर किया था। क्वात्रोकी राजीव गांधी के समय प्रधानमंत्री आवास में बेरोकटोक जाता था और विदेशी दौरे के समय खुद राजीव गांधी परिवार व बच्चों के साथ क्वात्रोकी के घर जाते थे। सोनिया गांधी क्वात्रोकी के घर रुकती थीं। लेकिन वीपी सिंह की सरकार जाने के बाद कांग्रेस सरकार आयी और राजीव गांधी द्वारा बोफोर्स खरीद में दलाली खाने की जांच को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया और फिर लीपापोती कर दी गयी। भारत सरकार ने क्वात्रोकी के लंदन के दो बैंक खातों को वहां की सरकार से कहकर फ्रीज करा दिया था, लेकिन 2004 में अटल जी की सरकार जाने के बाद कांग्रेस की यूपीए सरकार आयी तो दिसम्बर 2005 में केंद्र की कांग्रेस नीत यूपीए सरकार ने क्वात्रोकी के इन फ्रीज खातों को फिर खुलवा दिया, ताकि वह अपना पैसा निकालकर ले जा सके। इतना ही नहीं कांग्रेस राज में क्वात्रोकी व अन्य आरोपियों के नाम भी हटाने की साजिश भी रची गयी। तब भी यह प्रश्न उठा था कि क्या दलाल क्वात्रोकी पर केंद्र की कांग्रेस सरकार की इस मेहरबानी का राज सोनिया गांधी से उसके संबंधों के कारण है?

अगस्ता वेस्टलैंड हेलीकॉप्टर खरीद में रिश्वत खाने के आरोपों से घिरी कांग्रेस की पूर्व अध्यक्षा सोनिया गांधी का नाम इटली के मिलान शहर की अदालत में चले इस मामले के मुकदमे के फैसले के पृष्ठ-193 और 204 पर 4 बार आया है। इसमें उनके नाम की स्पेलिंग Signora Gandhi लिखा गया था। इस अदालत ने कहा कि सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल ने बिचौलिये के जरिए 125 करोड़ रुपये कमीशन लिया। कुल 225 करोड़ रुपए रिश्वत की लेन-देन हुई, जिसमें से 52 प्रतिशत हिस्सा कांग्रेस के नेताओं को दिया गया। 28 प्रतिशत सरकारी अफसरों को और 20 प्रतिशत एयरफोर्स के अफसरों को मिला। इस केस में तब के एयरफोर्स चीफ एसपी त्यागी को भी आरोपी बनाया गया।

सोनिया व राहुल गांधी के नेशनल हेराल्ड घोटाले, राहुल की बहन प्रियंका के पति राबर्ट वाड्रा का बीकानेर जमीन घोटाला, डीएलफ जमीन स्कैम की पड़ताल करने पर साफ होता है कि नेहरू काल के भ्रष्टाचार की इसी विरासत और इसी मॉडस आपरेंडी को आगे बढ़ाया। नेशनल हेराल्ड मामले में गांधी परिवार पर अवैध रूप से नेशनल हेराल्ड की मूल कंपनी एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड (एजेएल) की संपत्ति हड़पने का आरोप है। वर्ष 1938 में कांग्रेस ने एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड नाम की कंपनी बनाई थी। यह कंपनी नेशनल हेराल्ड, नवजीवन और कौमी आवाज नाम से तीन अखबार प्रकाशित करती थी। एक अप्रैल, 2008 को ये अखबार बंद हो गए। मार्च 2011 में सोनिया और राहुल गांधी ने ‘यंग इंडिया लिमिटेड’ नाम की कंपनी खोली और एजेएल को 90 करोड़ का ब्याज-मुक्त लोन दिया। एजेएल यंग इंडिया कंपनी को लोन नहीं चुका पाई। इस सौदे की वजह से सोनिया और राहुल गांधी की कंपनी यंग इंडिया को एजेएल की संपत्ति का मालिकाना हक मिल गया। इस कंपनी में मोतीलाल वोरा और ऑस्कर फर्नांडीज के 12-12 प्रतिशत शेयर हैं, जबकि सोनिया गांधी और राहुल गांधी के 76 प्रतिशत शेयर हैं। यानी नेशनल हेराल्ड गमन मामले में भी गांधी परिवार ने वही खेल किया कि पहले फ्राड के लिये मोहरों से एक कंपनी बनायी और उस कंपनी के जरिये नेशनल हेराल्ड की संपत्ति अपने पास मंगवाकर हड़प ली। वाड्रा के जमीन घोटालों में भी यही तरीका अपनाया कि दूसरों के नाम से हजारों एकड़ जमीन सरकार से ली और फिर इसे अपने नाम कराकर ऊंचे दाम पर बेचकर मुनाफा कमाया।

अब ताजा मामला इसी प्रकार कांग्रेस की यूपीए सरकार द्वारा 2011 में 20 हजार करोड़ के स्कार्पियन पनडुब्बी घोटाले में राहुल गांधी के बिजनेस पार्टनर उरिक मैकनाइट को आफसेट ठेका दिलाने का है। इसमें कहानी यह है कि राहुल गांधी ने ब्रिटेन में Backop लिमिटेड नाम से कम्पनी बनाई और इस कंपनी का 65 प्रतिशत स्वामित्व अपना व 35 प्रतिशत मैकनाइट का रखा। ये दोनों इसके संस्थापक निदेशक थे। यह कंपनी 2003 से 2009 तक रखी। फिर 2.5 लाख रुपए की दिखावे की नाममात्र की पूंजी से भारत में इसी नाम से कंपनी का गठन किया और उसमें अपनी बहन और कांग्रेस की वर्तमान महासचिव प्रियंका गांधी को सह निदेशक बनाया। इस कंपनी में राहुल गांधी का स्वामित्व 83 प्रतिशत शेयर के साथ था। 2010 में इस भारतीय कंपनी को भी बंद करने का दिखावा किया गया। 2011 में स्कार्पियन पनडुब्बी की फ्रांसीसी निर्माता कंपनी नवल समूह (पूर्व में डीसीएनएस) ने भारत की विशाखापट्नम के फ्लैश फोर्ज प्राइवेट लिमिटेड को मुंबई के मझगांव डाक लिमिटेड (एमडीएल) में बनाये जा रहे स्कॉर्पियन पनडुब्बी के क्रिटिकल पुर्जों की आपूर्ति के लिये आफसेट ठेका दिया। 2011 में ही भारतीय कंपनी फ्लैश फोर्ज ने ब्रिटेन की कंपनी आप्टिकल आर्मर का अधिग्रहण किया और नवंबर 2012 में आप्टिकल आर्मर कंपनी में दो व्यक्तियों को निदेशक बनाया गया। 8 नवंबर, 2012 के जिस दिन ये दोनों व्यक्ति आप्टिकल आर्मर कंपनी में निदेशक बनाये गये, राहुल के बिजनेस पार्टनर उरिक मैकनाइट को भी कंपनी ने इसमें निदेशक बनाया और उन्हें कंपनी का 4.9 प्रतिशत शेयर भी आवंटित किया। 2013 में फ्लैश फोर्ज ने ब्रिटेन की कंपनी कंपोजिट रेजिन डेवलपमेंट लिमिटेड का अधिग्रहण किया और इसी साल मैकनाइट ने फ्लैश फोर्ज के दो निदेशकों के साथ निदेशक का पद ग्रहण किया।  

अब जरा भ्रष्टाचार के इस खेल में गांधी परिवार की भूमिका की पड़ताल करें तो तमाम प्रश्न खड़े होते हैं। 2011 में अपनी यूपीए सरकार के समय अपने बिजनेस पार्टनर को स्कार्पियन पनडुब्बी का आफसेट ठेका दिये जाने से पूर्व 2009 में शातिराना तरीके से बैंकआप्स लिमिटेड ब्रिटेन को बंद घोषित किया गया। क्या इसलिये कि स्कार्पियन के आफसेट मिलने पर राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और गांधी परिवार के सदस्यों से सीधा लिंक न मिले? इसके लिए इनका तरीका वही नेशनल हेराल्ड वाला रहा। पहले एक कंपनी बनाओ, फिर उस कंपनी में पूंजी डालकर व्हाइट बनाओ, कंपनी बंद करो और दूसरी कंपनी का अधिग्रहण करके पूंजी स्थानांतरित करो और फिर धीरे से अपना नाम हटाने के बाद सरकारी ठेके दिलवाओ। पहले एक व्यक्ति के साथ कंपनी खोलना और इसके बाद उस व्यक्ति को दूसरी कंपनी का अधिग्रहण करके उसमें स्वामित्व दिलवाना और अपनी सरकार में उस व्यक्ति सरकारी ठेका दिलाना। ये घटनाक्रम यह इस धारणा की ओर ले जाता है कि राहुल गांधी द्वारा बैकआप्स कंपनी का बनाने का उद्देश्य यूपीए की कांग्रेस सरकार के दौरान ठेका पाना था।

राफेल डील में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर झूठा आरोप लगाने वाले राहुल गांधी और कांग्रेस अपनी यूपीए सरकार द्वारा अपनी ही कंपनी के साझेदार को रक्षा सौदे में आफसेट दिलाने पर चुप्पी आखिर क्यों है? यह सवाल तो उठेगा ही स्कार्पियन पनडुब्बी का आफसेट ठेका का लाभ राहुल गांधी, प्रियंका और गांधी परिवार तक पहुंचाने के लिये कंपनी बनाने, खत्म करने का दिखावा करने और फिर दूसरी कंपनी का अधिग्रहण करने का नाटक किया गया, ठीक नेशनल हेराल्ड के एजेएल की तरह?

दरअसल, गांधी परिवार के शासनकाल में सामने आये सभी घोटालों का तरीका यही रहा कि उसमें सामने मोहरे रखे गये, जबकि पर्दे के पीछे गांधी परिवार उन मोहरों का संरक्षण करता रहा। नेहरू से लेकर इंदिरा, राजीव, सोनिया, राहुल, प्रियंका और राबर्ट वाड्रा से जुड़ भ्रष्टाचार की हर कहानी में कोई न कोई ऐसा किरदार मिलेगा, जो गांधी परिवार का बेहद करीबी होगा और उनकी सरपरस्ती में लाखों-करोड़ों के घोटाले करेगा, लेकिन जब घोटाले पकड़े जायेंगे तो गांधी परिवार हाथ झाड़कर यह कह देगा कि उससे उसका क्या लेना-देना?

भारत में गांधी परिवार दिखावे के लिये गरीब बना रहेगा और विदेशों में बड़े-बड़े कारोबारी कंपनियां चलायेगा। सवाल तो यह है कि क्या गांधी परिवार का ये कारोबार तकनीकी और शातिर चाल के जरिये भारत के सरकारी व रक्षा सौदों में दलाली का खेल जारी रखने का है? इन मामलों की निष्पक्ष जांच हो जाये तो गांधी परिवार का बच्चा-बच्चा जेल जा सकता है। हालांकि अब तक गांधी परिवार के सदस्यों के भ्रष्टाचार की दास्तानें सुनायी जाती रही हैं और उनके भ्रष्टाचार का सबूत देती दस्तावेज भी सामने आये हैं, लेकिन अब लगता है कि अपनी शातिर चालों से बचने वाला गांधी परिवार के पाप का घड़ा भर चुका है और अब उनके कर्मों का हिसाब भारत का कानून करेगा।

Tags: पं. नेहरूराजीव गांधी
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