प्रधानमंत्री मोदी के साथ जब कई सांसदों ने नए मंत्रिमंडल में विभिन्न मंत्रालयों की शपथ ली, तो उनमें एक नया नाम उभर कर सामने आया, सुब्रमण्यम जयशंकर का। उन्हें नए मंत्रिमंडल में न केवल कैबिनेट में स्थान मिला है, बल्कि ये अब पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की जगह विदेश मंत्रालय का पदभार भी संभालेंगे। 1977 बैच के आईएफएस अफसर जयशंकर पद्म श्री अवार्ड से सम्मानित हो चुके हैं।
पूर्व कूटनीति विशेषज्ञ सुब्रमण्यम जयशंकर 1977 में भारतीय विदेश सेवा (IFS) अधिकारी बने थे। बतौर आईएफ़एस अफसर उन्होंने कई अहम पदों पर देश की सेवा की है, और यूएसए, चीन, चेक गणराज्य जैसे देशों में भारत के राजदूत भी रहे हैं। यही नहीं, सुब्रमण्यम जयशंकर ने सिंगापुर में हाई कमिश्नर की भी भूमिका निभाई है। पूर्व विदेश सचिव को चीन एवं अमेरिकी मामलों का जानकार भी माना जाता है।
एस जयशंकर 1996 से 2000 तक जापान में राजदूत थे। इसके बाद उन्होंने साल 2004 तक चेक रिपब्लिक में भारत के राजदूत का पद संभाला और यहां से लौटने के बाद उन्होंने तीन साल तक विदेश मंत्रालय में अमेरिकी विभाग की जिम्मेदारी निभाई। साल 2007 में उन्हें बतौर इंडियन हाई कमिश्नर सिंगापुर भेजा गया था जहां उन्होंने सीईसीए यानि व्यापक आर्थिक सहयोग समझौते को अमली जमा पहनाने में सहायता की, जिससे भारतीय व्यापार को सिंगापुर में पैर जमाने के लिए सुनहरा अवसर भी मिला। उन्होंने सिंगापुर में ही प्रवासी भारतीय दिवस एवं आईआईएम पैक्ट को भी बढ़ावा दिया। इसके बाद साल 2009 से 2013 तक वो चीन में भारत के राजदूत रहे। बतौर राजदूत इनका साढ़े चार साल का कार्यकाल इस पद के लिए सबसे लंबा भी रहा। साल 2012 में उन्होंने तिब्बत का दौरा किया, और ऐसा करने वाले वे दस साल में पहले भारतीय राजदूत बने। बतौर भारतीय राजदूत एस जयशंकर भारत और चीन के बीच बनते बिगड़ते कूटनीतिक संबंधों के कई अहम पड़ावों के साक्षी भी बने।इसके बाद उन्हें अमेरिका में भारत का राजदूत बनाया गया।
जयशंकर को देश में रणनीतिक मामलों के सबसे शक्तिशाली दिमागों में से एक माना जाता है। जब वो साल 2004 से 2007 तक भारतीय विदेश मंत्रालय में बतौर संयुक्त सचिव कार्यरत थे तब उन्होंने भारत-अमेरिका परमाणु समझौते में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी जिसके बाद दोनों देशों के संबंध और मजबूत हुए थे।
जयशंकर प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार में 2015 से लेकर 2018 तक विदेश सचिव रहे। विदेश सचिव रहते हुए उन्होंने अपनी कूटनीतिक दक्षता का परिचय भी दिया है। कई गंभीर मामलों में वो ‘संकट मोचक’ की भूमिका भी निभा चुके हैं। डोकलाम विवाद पर भारत और चीन के बीच के मध्यस्थता का श्रेय भी इन्हें ही जात है।
ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि इतने अनुभवों के साथ एस जयशंकर निस्संदेह भारत की विदेश नीति को सुदृढ़ बनाने में एक अहम भूमिका निभाएंगे। चीन और अमेरिका के साथ इनका अनुभव भारत के लिए काफी फायदेमंद भी रहेगा, क्योंकि इससे तीनों देशों में और मधुर संबंध बनेंगे। इसके अलावा एस जयशंकर को रूसी, तमिल, हिन्दी, मंदारिन और काफी हद तक जापानी एवं हंगेरियाई भाषा का भी ज्ञान है।
आपको यह जानकर हैरानी होगी कि एस जयशंकर की कूटनीतिक कुशलता को देखते हुए खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उन्हें अपना विदेश मंत्री बनाना चाहते थे लेकिन अंदरूनी दबाव के चलते उन्हें यह विचार छोड़ना पड़ा। ऐसे में पीएम मोदी का एस जयशंकर को कैबिनेट में शामिल करना न केवल एक महत्वपूर्ण कदम है, बल्कि वैश्विक स्तर पर भारत की गरिमा को बढ़ावा देने वाला एक सार्थक कदम भी है।