नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण के बाद कई लोग कयास लगा रहे थे कि अमित शाह को वित्त मंत्रालय का पदभार सौंपा जा सकता है। लेकिन इन सभी समीकरणों को झुठलाते हुए नरेंद्र मोदी ने गृह मंत्रालय का पदभार अमित शाह को सौंप दिया। जो अमित शाह के बतौर गुजरात के गृह मंत्री के कार्यकाल को अच्छी तरह से जानते हैं, उन्हें इस कदम से कोई अचरज नहीं हुआ होगा।
जबसे अमित शाह गृह मंत्रालय का पद संभाला है तबसे वो सुर्ख़ियों में बने हुए हैं। रॉ, आईबी, एवं राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के तौर पर एक बार फिर नियुक्त हुए अजित डोभाल के साथ हुई निरंतर बैठकों से एक बात तो बिलकुल साफ है कि वर्तमान गृह मंत्री के लिए अभी सबसे अहम मुद्दा कश्मीर समस्या का निवारण करना है। कई सूत्रों का मानना है कि अमित शाह ने वर्तमान जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मालिक के साथ गुप्त बैठक की। इसके बाद जम्मू-कश्मीर के विधानसभा क्षेत्रों के नए सिरे से परिसीमन की तैयारी में जुट गये। और तो और कश्मीर में सभी सक्रिय आतंकियों की हिट लिस्ट तैयार करवाई। इस सूची में अलगाववाद को बढ़ावा दे रहे कश्मीर घाटी में सक्रिय शीर्ष दस आतंकियों को सम्मिलित किया गया है।
इस सूची में सबसे अव्वल है हिजबुल मुजाहिदीन के वर्तमान सरगना रियाज़ नाईकू उर्फ मोहम्मद बिन कासिम है। इसके अलावा लश्कर ए तैयबा के स्थानीय मुखिया वसीम अहमद उर्फ ओसामा का नाम भी इस सूची में शामिल है। इससे हम सीधा सीधा अनुमान लगा सकते हैं की गृह मंत्रालय और सुरक्षा एजेंसियों का लक्ष्य न केवल निर्धारित है, बल्कि वे आतंकियों का सफाया करने के लिए पूरी तरह तैयार है।
इसी के साथ कल दो अहम निर्णय भी लिए लिए गए। कल दिल्ली के न्यायालय की स्वीकृति मिलते ही तीन अहम अलगाववादी आसिया अन्द्राबी, मस्सर्रत आलम और शब्बीर शाह को एनआईए को सौंप दिया गया है। शब्बीर शाह आतंकी फंडिंग से जुड़े एक दशक पुराने केस के संबंध में पहले से ही तिहाड़ जेल में बंदी है। एनआईए के अनुसार शब्बीर शाह को हवाला ऑपरेटर ज़हूर अहमद शाह वत्तल से 10 लाख रुपये मिले थे।
यही नहीं आसिया अन्द्राबी को भी इस 10 लाख में से एक अहम हिस्सा दिया गया था। आपको बता दें की आसिया पर भारत के विरुद्ध युद्ध छेड़ने एवं घाटी में भारत विरोधी भाषण देने का आरोप हैं। इस निर्णय से ये साफ सिद्ध होता है कि अमित शाह के नेतृत्व वाला गृह मंत्रालय घाटी में शांति लाने के लिए अपनी तरफ से पूरा प्रयास कर रहा है।
लेकिन सबसे अहम निर्णय है गृह मंत्रालय का जम्मू एवं कश्मीरी के परिसीमन यानि डीलिमिटेशन पर विचार विर्मश करना। यदि ये प्रक्रिया सफल होती है, तो इसका सीधा सीधा मतलब है कि हम आने वाले समय में जम्मू एवं कश्मीर के मुख्यमंत्री के तौर पर एक हिन्दू, विशेषकर एक कश्मीरी पंडित को भी देख सकते हैं। यही वजह है कि इस परिसीमन कमिशन के पुनर्गठन के निर्णय की खबर फैलते ही एनसी और पीडीपी जैसे पार्टियों के नेताओं के चेहरे पर अभी से हवाइयां उड़ने लगी हैं। ये डर उचित भी है, क्योंकि ऐसे समय में परिसीमन का अर्थ है जम्मू एवं कश्मीर की विधानसभा का पूरी तरह से कायाकल्प करना।
वर्तमान स्थिति में सीटों का वितरण कुछ इस तरह है कि कश्मीर घाटी के पास सदन में सबसे ज़्यादा विधायक भेजने का अधिकार हैं, वास्तव में कश्मीर जम्मू एवं लद्दाख के क्षेत्रों के मुकाबले छोटा है जबकि जनसंख्या के हिसाब से दोनों से बड़ा है। लेकिन विधानसभा सीटों के बंटवारे के मामले में जम्मू और लद्दाख के लोगों के साथ भेदभाव किया गया है। ऐसे में कश्मीरी विधायक बाकी दो क्षेत्रों के साथ मनमाने तरीके से पेश आते हैं, और कानून केवल एक वर्ग विशेष को संतुष्ट करने के लिए ही बनाए जाते हैं।
सोचने वाली बात तो यह भी है कि जहां एक तरफ कश्मीर घाटी दावा करती है कि वहां कोई अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति नहीं है, तो वहीं घाटी में रह रहे गुज्जर, बकरवाल, गड्डी एवं सिप्पी जैसे जनजातियों को 1991 में अनुसूचित जाति का दर्जा मिलने के बावजूद उन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिला है। इससे इन समुदायों को राज्य में किसी प्रकार का राजनीतिक समर्थन नहीं मिल पाता है, उनका हक तो मिलना बहुत दूर की बात है। यही चीज़ जम्मू क्षेत्र में रह रहे डोगरा समुदाय के साथ भी है।
हालांकि संविधान में परिसीमन की प्रक्रिया को 2002 से हर दस साल के बाद लागू करने का प्रावधान है, फारूक अब्दुल्लाह ने परिसीमन की प्रक्रिया को जानबूझकर 2026 तक के लिए स्थगित कर दिया। ऐसी वंशवादी राजनीति के हाथों कश्मीर की जनता को अनेक दिक्कतों का सामना करना पड़ा है। यदि गृह मंत्रालय के वर्तमान निर्णय का क्रियान्वयन किया जाता है, तो इसका सीधा सीधा अर्थ है राज्य की राजनीति में कश्मीर का पहले जैसा प्रभाव नहीं होगा, और इसीलिए इस राज्य में एक हिन्दू मुख्यमंत्री बनने की संभावना भी बढ़ जाएगी।
राज्य में भाजपा का पीडीपी के साथ गठबंधन करना कश्मीर घाटी में शांति लाने के लिए कड़े कदम उठाने में सबसे बड़ा बाधक रहा है और ये हमने पिछले साल देख भी लिया। महबूबा मुफ़्ती का पत्थरबाजों के लिए नरमी बरतना और केंद्र सरकार के किसी भी फैसले के बीच रोड़ा बनना सेना के लिए मुश्किलें खड़ी कर देता था। अब चूंकि कोई बेमेल गठबंधन नहीं है, इसलिए ऐसी स्थिति में भाजपा को उनकी वर्तमान कश्मीर नीति पर चलने से कोई नहीं रोक सकता। गृह मंत्री अमित शाह ने सभी खुफिया एजेंसियों एवं सुरक्षा एजेंसियों को निर्देश दिये हैं कि किसी भी दशा में आतंक के प्रति सरकार की ज़ीरो टोलेरेन्स नीति बल्कि उसे जारी रखें। उन्हें यह भी निर्देश दिये गए हैं कि किसी भी प्रचार की आलोचना पर ज़्यादा ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है।
अमित शाह के इन फैसलों और एक्शन को देखकर को यही लगता है ऐसा लगता है कि गृह मंत्री के तौर पर जब तक अमित शाह कश्मीर घाटी में शांति नहीं स्थापित कर देंगे, तब तक वे चैन से बैठने वालों में से नहीं।