भारत के राजनीतिक एवं सामाजिक पटल पर छाए हुए बाबा रामदेव को लगभग एक दशक बीत चुका है। बाकी बाबा/ धर्मगुरु अपने भोले भाले भक्तों को अध्यात्म के नाम पर उल्लू बनाकर नोट पर नोट छाप रहे थे। पर बाबा रामदेव अलग ही मिट्टी के बने थे। एक ऐसे साधु का यहां उदय हुआ था, जो मीडिया फ्रेंडली था, योग विद्या को मुख्यधारा में लाना चाहता था, और साथ ही साथ रचनात्मक भी था। जैसे केजरीवाल ने युवा वर्ग को राजनीति से जोड़ा, वैसे ही बाबा रामदेव ने युवाओं को योग विद्या से परिचय कराया। ये अलग बात है कि केजरीवाल का प्रभाव कुछ ही वर्षों में क्षीण होता चला गया।
बाबा रामदेव और उनकी कंपनी पतंजलि [पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड] जब तेजी से ऊपर उठ रही थी उस समय भी उन्होंने काफी उतार चढ़ाव देखे थे। जहां एक तरफ उन्होंन मार्केट में धमाकेदार शुरुआत की, तो वहीं उन्हें सेक्युलर बिरादरी के प्रकोप को भी झेलना पड़ा। इसके बावजूद बाबा रामदेव ने अपना प्रभाव केवल योग और अध्यात्म तक सीमित न रखते हुए राजनीति तक विस्तृत किया।
फिर रामदेव के व्यक्तित्व में उभर कर आया ‘बिजनेसमैन बाबा’, और कोलगेट पामोलिव, हिंदुस्तान यूनीलीवर लिमिटेड, पी & जी जैसे एमएनसी की गिरफ्त में रहने वाली भारतीय उपभोक्ता मार्केट में सेंध लगाई पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड ने। इसका प्रारम्भ 1997 में एक औषधीय इकाई के तौर पर रामदेव के शिष्य, आचार्य बालकृष्ण ने किया था, जो आज कंपनी में 90 प्रतिशत से ज़्यादा शेयरों के मालिक हैं। इनके शेयरों का कुल मूल्य लगभग 30 हजार करोड़ रुपये के आसपास आता है।
2016-17 के वित्तीय वर्ष में जब कंपनी का विकास दर दहाई का आंकड़ा पार कर चुका था, तब बाबा रामदेव ने घोषणा की पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड 2018 तक अपना राजस्व दोगुना करते हुए मार्च 2018 में 20,000 करोड़ रुपयों का आंकड़ा पार करके दिखाएगा।
पर पिछले दो वर्षों में 20,000 करोड़ रुपये का आंकड़ा पार करना तो दूर की बात, पतंजलि तो अपने पुराने आंकड़ों पार करने में भी कामयाब नहीं हो पाए। जहां 2017-18 के वर्ष में पतंजलि का विक्रय में दस प्रतिशत से भी ज़्यादा का घाटा दर्ज़ हुआ, और कुल विक्रय केवल 8100 करोड़ रुपये में ही सिमट गयी, तो 2018-19 में स्थिति बद से बदतर हो गयी, और कंपनी का कुल विक्रय 4700 करोड़ रुपये तक फिसल गया।
अब जिस कंपनी ने आते ही बड़े बड़े एमएनसी के छक्के छुड़ा दिये हों, वो भला इतनी जल्दी कैसे औंधे मुंह गिर पड़ा? आखिर क्या कारण है कि पतंजलि अपने अप्रत्याशित वृद्धि पर कायम नहीं रह पायी? इसके पीछे एक प्रमुख कारण है उत्पाद की गुणवत्ता को ताक पर रखकर कंपनी के आक्रामक विस्तार पर सारा ध्यान केन्द्रित करना। सूत्रों की माने तो कंपनी के कार्यकारी अधिकारियों के पास ऐसे सॉफ्टवेयर ही नहीं है जिससे कंपनी के विक्रय पर दृष्टि रखी जा सके। इसके साथ-साथ ट्रांसपोर्टरों के साथ लंबे समय तक के डील न होने के कारण कंपनी की कार्यक्षमता पर भी नकारात्मक असर पड़ा है।
व्यापार के त्वरित विस्तार के लिए पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड ने अपने उत्पादन को ही आउटसोर्स करना प्रारम्भ कर दिया। इससे उत्पाद की गुणवत्ता में समस्यायें उभरने लगी। हाल ही में रायटर्स ने 81 उत्पादों की समीक्षा की है, जिसमें से उसने पाया है कि 27 उत्पादों को दूसरी कंपनियों ने बनाया है। इतना ही नहीं, कंपनी ने एक साथ कई परियोजनाएं प्रारम्भ कर दी है, जिससे हर परियोजना के क्रियान्वयन में अब देरी होने लगी है। उदाहरण के लिए कंपनी ने महाराष्ट्र में एक खाद्य प्लांट परियोजना को 2017 तक पूरा करने का लक्ष्य रखा था और एनसीआर में आयुर्वेदिक उत्पाद फ़ैक्टरी 2016 के अंत तक खोलने का लक्ष्य रखा था। अब दोनों ही परियोजनाएं 2020 तक अटक गयी है।
लेकिन यदि पतंजलि के प्रशासन का रवैया देखा जाये, तो ऐसा बिलकुल नहीं लगता है कि उन्हें कंपनी के नुकसान का आभास भी होगा। आचार्य बालकृष्ण के अनुसार, ‘हमने अचानक से विस्तार किया, हमने एक साथ तीन चार नई यूनिट खोली, तो समस्याएं तो आनी थी। इसीलिए हमने उस नेटवर्क की समस्या का निवारण किया है।
अपना कद बढ़ाने के लिए हर कंपनी को कभी न कभी कैपिटल की आवश्यकता पड़ती ही है, पर न तो पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड एक सार्वजनिक कंपनी है, और न ही उसे बैंकिंग सैक्टर की दिक्कतों के कारण पिछले कुछ सालों से ऋण मिल पा रहे हैं। इसीलिए कंपनी ने अब अपने सप्लायर्स के भुगतान में भी देरी करने लगी है, और विज्ञापनों पर अपने खर्चों में भी कटौती करने लगी है। 2016 में भारतीय टीवी पर पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड तीसरा सबसे बड़ा एडवरटाइज़र था, लेकिन अभी वो शीर्ष दस की सूची में भी नहीं दिखता।
एक समय पर पतंजलि की यूएसपी थी बिना किसी रसायन के शुद्ध आयुर्वेदिक उत्पाद उपलब्ध कराना। पर जल्द ही हिंदुस्तान यूनीलीवर एवं कोलगेट ने इसका अनुसरण करते हुए गुणवतापूर्ण आयुर्वेदिक उत्पाद निकालने प्रारम्भ कर दिये। ऐसे ही जब पतंजलि ने इंटरनेट के क्षेत्र में व्हाट्सएप्प को चुनौती देने के लिए किमभो एप्प के साथ बाज़ार में उतरी, तो कई लोगों की आस जागी, पर यह योजना भी फुस्स साबित हुई, और एक बार फिर पतंजलि कंपनी हंसी का पात्र बनकर रह गयी।
इसके अलावा पतंजलि के पतन का एक और प्रमुख कारण है कंपनी के प्रशासन की हठ धर्मिता। पीएम मोदी के साथ अपने सम्बन्धों और ब्रांड मोदी का उपयोग करते हुए पतंजलि ने दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति का अनुभव किया। परंतु जब कंपनी के विक्रय में नोटबंदी और जीएसटी के क्रियान्वयन के कारण गिरावट दर्ज़ हुई, तो बाबा रामदेव ने इसका ठीकरा मोदी सरकार पर ही फोड़ दिया। हालांकि, उन्होंनेपीएम मोदी की सत्ता वापसी के लिए 2019 में अभियान भी चलाया, परंतु अब तो ऐसा प्रतीत होता है कि न तो पीएम मोदी को और न ही भाजपा को उनके बारे में किसी भी प्रकार की चिंता है।
एक साथ कई क्षेत्रों में आक्रामक विस्तार करने से और अपने उद्योग की कमान अनुभवी पेशेवरों के हाथ में न सौंपकर पतंजलि ने एक तरह से अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है। यदि पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड तो दुनिया के शीर्ष एमएनसी से मोर्चा संभालना है, तो इन्हें देसी भावनाओं को कॉर्पोरेट प्रोफेशनलिस्म से जोड़ना पड़ेगा।
कंपनी को गुणवत्ता पर सर्वप्रथम अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए, जो कभी उसकी यूएसपी हुआ करती थी, नहीं तो एक बड़ी भारतीय एमएनसी होने का सपना धरे का धरा ही रह जाएगा। कंपनी को इस बात पर सदैव ध्यान देना चाहिए की अंत में उत्पाद ही सर्वोपरि रहता है, और सबसे बढ़िया मार्केटिंग तकनीक भी एक श्रेष्ठ उत्पाद का सामना नहीं कर पाएगी।