कई दिनों के राजनीतिक ड्रामे के बाद आखिर कर्नाटक विधानसभा में अब शांति है। एचडी कुमारस्वामी के नेतृत्व वाली कांग्रेस-जेडीएस की सरकार विश्वास मत हार गयी है। विश्वास मत में हार की वजह से कांग्रेस की सरकार गी चुकी है और कुमारस्वामी ने भी मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया है।
हालांकि, जब यह सरकार बनी और सबसे कम सीट पाने वाली पार्टी जेडीएस के नेता मुख्यमंत्री बने, तभी यह निश्चित हो गया था कि कांग्रेस ने यह सरकार भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए ही बनायी है। जनादेश के खिलाफ बनी इस सरकार के गिर जाने के बाद अब यह स्पष्ट हो गया है कि जनता के फैसले के खिलाफ बनने वाली सरकार ज्यादा दिन नहीं चलती है। कर्नाटक से पहले बिहार में भी यही देखने को मिला था लेकिन वहां नितीश की अवसरवाद राजनीति ने उन्हें बचा लिया था।
बता दें कि कर्नाटक में विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस ने जेडीएस के साथ गठबंधन कर भाजपा को सत्ता से दूर रखने की चाल चली थी। भाजपा को कुल 104 सीटें मिली थी जबकि जनता दल सेकुलर को 37 सीटें ही प्राप्त हुई थी। लेकिन फिर भी कांग्रेस ने लोभ में मुख्यमंत्री पद जेडीएस के एचडी कुमारस्वामी को दे दिया था। यह गठबंधन जनता की जनाधार के खिलाफ ही बनाया गया था क्योंकि इन दोनों ही पार्टियों ने एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ा था। दोनों पार्टियों के बीच के वैचारिक मतभेद होने के बाद भी गठबंधन किया गया। लेकिन सत्ता पर काबिज रहने के लिए कांग्रेस ने हर वो कदम उठाया जो उसे सत्ता में रख सकती थी। लेकिन 2019 के आम चुनाव के नतीजों को देख कर यह तय हो गया था कि यह सरकार भी अब ज्यादा दिन तक नहीं चलने वाली है। जुलाई आते आते ऐसा ही हुआ और सरकार अल्पमत में आ गई जिससे मुख्यमंत्री को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा।
जैसी स्थिति कर्नाटक में थी वैसी ही बिहार में बीजेपी, जनता दल यूनिटेड और राष्ट्रीय जनता दल के बीच देखने को मिला था। वर्ष 2014 के आम चुनाव से ठीक पहले नितीश की जेडीयू ने भाजपा से 17 वर्ष पुराना गठबंधन तोड़ लिया था लेकिन आम चुनाव के परिणाम नितीश के उम्मीद के विपरीत आये और जेडीयू सिर्फ 2 लोकसभा सीटें जीत पायी। जबकि मोदी लहर पर सवार हो कर भाजपा ने 40 में से 31 लोक सभा सीटों पर जीत हासिल किया। इसी समय राष्ट्रीय जनता दल और जेडीयू ने 2015 के विधानसभा चुनाव के लिए रणनीति बनाए और इस रणनीति के तहत जेडीयू ने स्वतंत्र हो कर चुनाव में उतारने का फैसला किया जिससे यह स्पष्ट हो गया कि वह बीजेपी को सत्ता से दूर रखने तथा चुनाव के बाद सत्ता में आने के लिए अपने विकल्प खुले रखना चाहती है। इस स्थिति में जेडीयू के लिए राष्ट्रीय जनता दल से हाथ मिलना एक मात्र विकल्प बचा था। वहीं दूसरी ओर अपनी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही राजद के सामने भी यही परिस्थिति थी कि वह लालू की अनुपस्थिति में एक बड़े नेता का हाथ थामें और कुछ सीटें हासिल करे। तभी इन दोनों ने साथ आने का निर्णय किया जिसका समर्थन कांग्रेस ने भी किया और महागठबंधन का निर्माण हुआ। चुनाव के बाद बिहार की 178 विधान सभा सीटों में राजद 80 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी तथा जेडीयू को 71 और कांग्रेस को 27 सीटों पर जीत हासिल हुई। लेकिन यहाँ यह देखने वाली बात है कि ज्यादा सीट जीतने के बाद भी राजद ने नितीश कुमार को मुख्य मंत्री के रूप में स्वीकार किया। यह ठीक कर्नाटक की तरह ही था जहां कांग्रेस ने जेडीएस के कुमारस्वामी को कम सीटें जीतने के बाद भी मुख्यमंत्री का पद दे दिया था। बिहार की राजनीति में धूर-विरोधी रही नितीश की जेडीयू और लालू यादव की राजद के लिए साथ मिलकर सरकार चलना कठिन था और यह पहले दिन से ही देखने को मिल रहा था। लेकिन जनता के बीच केंद्र की मोदी सरकार की लहर को भांपते हुए नितीश कुमार ने राजद को छोड़ वापस एनडीए में शामिल हो गए और फिर एनडीए की सरकार बन गयी। लेकिन फिर से मुख्यमंत्री का पद नितीश कुमार के पास ही था। नितीश कुमार का यह फैसला पक्ष में रहा क्योंकि जनता भाजपा और मोदी के पक्ष में थी और इस वर्ष लोकसभा चुनाव में एनडीए 40 में से 39 सीटों पर जीत गयी।
दोनों ही राज्यों की स्थिति देख कर अब यह कहा जा सकता कि लोकतन्त्र में जनता ही सर्वोपरि है। और अपने राजनीतिक फायेदे के लिए सरकार बनाने वाली पार्टियां ज्यादा दिन तक सत्ता में नहीं रह पाती। सत्ता के लोभ में आकार और जनादेश के विरुद्ध सरकार बनाने वाली पार्टियों को मुंह की खानी पड़ती है। तथा बाद के चुनाव में जनता भी नकार देती है। वर्ष 2019 के चुनाव ने ऐसे ही कई राज्यों को भी जनता के सामने ला दिया जहां जनादेश के खिलाफ कई राजनीतिक पार्टियां सत्ता में बैठी है। और मध्य प्रदेश उनमें से ही एक है। और हो सकता है कि आने वाले समय में उन राज्यों में भी बिहार और कर्नाटक जैसी ही स्थिति देखने को मिले। और इन राज्यों में दोबारा चुनाव हो ताकि जनादेश के आधार पर सबसे अधिक सीट जीतने वाली पार्टी शासन करे।