वर्ष 2001 में जब अमेरिका के न्यूयॉर्क में भयावह 9/11 का हमला हुआ था तो उसके बाद पूर विश्व का ध्यान अफगानिस्तान में फलते-फूलते उग्रवादी संगठन तालिबान पर गया। अफगानिस्तान में तालिबान पर आरोप लगाया गया कि उसने ओसामा बिन लादेन और अल क़ायदा को पनाह दी है जिसे न्यूयॉर्क हमलों को दोषी बताKया जा रहा था। ठीक उसी के बाद सात अक्तूबर 2001 में अमेरिका के नेतृत्व वाले सैन्य गठबंधन ने अफगानिस्तान पर हमला बोला और तालिबान को खत्म करने के नाम पर वह अफगानिस्तान में घुसा। हालांकि, यह अमेरिकी सेना की विफलता ही है कि पिछले कुछ सालों में तालिबान ने अफगानिस्तान और पाकिस्तान में दोबारा अपनी पकड़ मजबूत की है। विश्लेषकों का यह भी मानना है कि वहाँ तालिबान और कई चरमपंथी संगठनों में आपसी तालमेल है, और यही हताशा है जिसकी वजह से अब 18 साल बाद अमेरिका के राष्ट्रपति को अपनी हार का ठीकरा भारत, रूस और तुर्की जैसे देशों पर फोड़ना पड़ रहा है।
दरअसल, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बुधवार को आगाह किया कि भारत, ईरान, रूस और तुर्की जैसे देशों को कभी-न-कभी अफगानिस्तान में आतंकवादियों से लड़ना होगा। ट्रंप ने कहा कि केवल अमेरिका ही करीब सात हज़ार मील दूर आतंकवाद से लड़ने का काम कर रहा है और अन्य देश फिलहाल अफगानिस्तान में आतंकवादियों के खिलाफ बहुत कम प्रयास कर रहे हैं। अफगानिस्तान में आतंकी संगठन ISIS की बढ़ती सक्रियता के सवाल पर ट्रंप ने कहा, भारत वहां मौजूद है लेकिन वे नहीं लड़ रहे हैं, हम लड़ रहे हैं’।
ऐसा बोलकर राष्ट्रपति ट्रम्प ने सीधे तौर पर अफ़ग़ानिस्तान में शांति स्थापना हेतु भारत के योगदान को कम आंकने की कोशिश की है। अमेरिका का मानना है कि जिस देश की सेना अफ़ग़ानिस्तान में आतंकवाद के खिलाफ नहीं लड़ रही है, उस देश का अफ़ग़ानिस्तान के विकास में कोई योगदान नहीं है और सिर्फ अमेरिका अकेला ही इस देश में शांति स्थापित करने की जद्दोजहद कर रहा है।
अमेरिकी राष्ट्रपति को यह समझ लेना चाहिए कि भारत और अफगानिस्तान के रिश्ते काफी मधुर रहे हैं और इस बात को खुद अफगानिस्तान भी स्वीकार करता है। उदाहरण के तौर पर क़ाबुल में मौजूद भारतीय दूतावास के अनुसार अब तक भारत अफगानिस्तान में 2 बिलियन अमरीकी डॉलर यानि करीब 139 अरब रुपये का निवेश कर चुका है और भारत इस देश में शांति, स्थिरता और तरक्की के लिए प्रतिबद्ध है। इससे पहले भारत ने साल 2011 में भयंकर सूखे से जूझ रहे अफ़ग़ानिस्तान को ढाई लाख टन गेहूं दिया था। इसके अलावा अफगानिस्तान के हेरात में सलमा बांध भारत की मदद से बना। ये बांध 30 करोड़ डॉलर (क़रीब 2040 करोड़ रुपये) की लागत से बनाया गया और इसमें दोनों देशों के क़रीब 1500 इंजीनियरों ने अपना योगदान दिया था। इसकी क्षमता 42 मेगावाट बिजली उत्पादन की भी है। 2016 में अस्तित्व में आए इस बांध को भारत-अफगानिस्तान मैत्री बांध का नाम दिया गया। इसके अलावा भारत अफगानिस्तान में संसद का निर्माण भी कर चुका है।
हालांकि, ट्रम्प की नज़रों में अफ़ग़ानिस्तान के विकास के लिए भारत का यह योगदान कोई मायने नहीं रखता। इसी वर्ष जनवरी में अपनी बयानबाजी और चौंकाने वाले फैसलों के लिए मशहूर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तंज भी कसा था। उस वक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान ट्रंप ने कहा था, ‘मैं अगर भारत की बात करूं तो उनकी उपस्थिति अफगानिस्तान में है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुझे बताया कि उन्होंने अफगानिस्तान में लाइब्रेरी बनाई, पांच घंटे उन्होंने यही बताया, लेकिन मैं पूछता हूँ कि उसे इस्तेमाल कौन कर रहा है’।
अमेरिका जहां पिछले 18 सालों से अफगानिस्तान में शांति स्थापित करने के नाम पर देश में गोले-बारूद की राजनीति का खेल खेलता आया है, तो वहीं भारत ने सही मायनों में अफगानिस्तान की जिंदगी संवारने वाले विकास कार्यों को अंजाम दिया है। आज अमेरिका अफगानिस्तान से बाहर निकलने के लिए अन्य देशों पर अपनी हार का ठीकरा फोड़ रहा है। अमेरिका को यह समझ लेना चाहिए कि भारत आतंक के खात्मे के लिए पहले ही अफगानिस्तान की खूफिया स्तर मदद करता आया है, और उसके सैनिकों को भी भारत में ट्रेन कर चुका है। भारत अफगानिस्तान में शांति और सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध है और इसके प्रमाण के लिए भारत को अमेरिका जैसे किसी देश से कोई सर्टिफिकेट नहीं चाहिए।
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