बीते सोमवार को भारत के इतिहास में एक नया अध्याय लिखा गया। गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में संकल्प पेश करते हुए कहा कि राष्ट्रपति के अनुमोदन के बाद अनुच्छेद 370 के खंड 1 को छोड़कर बाकी सभी खंड जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होंगे। इसके साथ ही अमित शाह ने राज्यसभा में जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन बिल पेश किया, जिसके तहत राज्य को जम्मू-कश्मीर और लद्दाख जैसे केंद्रशासित प्रदेशों में बांटने का प्रस्ताव रखा गया। यानी जम्मू-कश्मीर एक अलग केन्द्र शासित प्रदेश होगा जिसकी अपनी विधानसभा होगी, जबकि लद्दाख बिना किसी विधानसभा वाला एक केन्द्र शासित प्रदेश होगा।
केन्द्र शासित प्रदेश होने का मतलब है कि अब जम्मू-कश्मीर की स्वायत्ता काफी हद तक खत्म हो जाएगी, और राज्य की पुलिस व्यवस्था पूरी तरह केंद्र सरकार के अधीन हो जाएगी। जम्मू-कश्मीर पर नियंत्रण बढ़ जाने से अब सरकार को कश्मीर में आतंकवाद और अन्य समस्याओं से निपटने में आसानी होगी।
आज़ादी के बाद से ही कश्मीर मुद्दा भारतीय राजनीति के बड़े मुद्दों में से एक रहा है। सरकारें आईं और गईं, लेकिन कभी कश्मीर मुद्दा हल नहीं हो सका। कश्मीर की समस्या बढ़ती गई और राज्य को लेकर केंद्र सरकार का सारा ध्यान कश्मीर पर केन्द्रित रहा। वर्ष 1947 में ही पाकिस्तान ने अवैध रूप से जम्मू-कश्मीर के एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया, जोकि आज तक पाकिस्तान के हिस्से में ही है।
देश की सभी पार्टियों की सरकारों ने अलग-अलग समय पर पीओके को पाकिस्तान के कब्जे से छुड़ाकर दोबारा भारत में विलय करने के सपने तो दिखाये, लेकिन कोई भी सरकार इस दिशा में बड़ा कदम उठाने में विफल साबित हुई। पीओके तो छोड़िए, कांग्रेस सरकारों की कश्मीर-विरोधी नीतियों की वजह से कश्मीर में घुसपैठ और आतंकवाद की समस्या बढ़ती गई और पीओके पर कभी सरकार ध्यान दे ही नहीं पाई।
केंद्रशासित प्रदेश होने के बाद अब केंद्र सरकार कश्मीर की समस्या को ज़्यादा आसानी से सुलझा पाएगी, और सरकार अब पीओके को वापस भारत में मिलाने की दिशा में कदम उठा सकती है। पीओके आज पाकिस्तान के कब्जे में है। वही पाकिस्तान, जो आज मोदी सरकार की नीतियों की वजह से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पूरी तरह अलग-थलग हो चुका है, और जिसकी अर्थव्यवस्था उसे युद्ध के मैदान में 1 हफ्ते भी ठहरने की इजाजत नहीं देती।
पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था तबाही के मुहाने पर खड़ी है। पाकिस्तान, एक तरफ तो चीन के भारी कर्जे तले दबा है, तो वहीं दूसरी तरफ उस पर पहले से आईएमएफ का 5.8 बिलियन डॉलर का कर्ज़ है। इसके अलावा पाक की जीडीपी विकास दर इस साल और भी कम हो सकती है। यानि पाकिस्तान कूटनीतिक और आर्थिक तौर पर पूरी तरह कमजोर पड़ चुका है, और इन दोनों ही क्षेत्रों में वह भारत के सामने कहीं नहीं ठहरता।
पीओके का वापस भारत में विलय करने का मतलब होगा, पाकिस्तान के कब्जे वाली ज़मीन को पाकिस्तान से छीनकर भारत में मिलाना, और सौभाग्य से भारत के पास ऐसा करने का अनुभव भी है। वर्ष 1971 के युद्ध में भारत ने पाकिस्तान को दो टुकड़ों में बांट दिया था, जिसके बाद पूर्वी पाकिस्तान को बांग्लादेश के रूप में एक नए देश का दर्जा दिया गया। वर्ष 1971 के युद्ध में भारत का मकसद ढाका पर कब्जा जमाने का नहीं था, बल्कि भारत पूर्वी-पाकिस्तान को पश्चिमी पाकिस्तान के चंगुल से आज़ाद करवाना चाहता था, जबकि पीओके के मामले में भारत का मकसद पीओके को भारत में मिलाना होगा।
भारतीय सरकार अगर चाहे तो वर्ष 1971 के युद्ध के समय भारतीय सेना, वायुसेना और खूफिया तंत्र की रणनीति को अपनाते हुए ही पीओके को भारत में मिलाने के प्लान पर काम कर सकती है। हालांकि, यह प्लान तभी काम कर सकता है जब वर्ष 1971 के समय पूर्वी-पाकिस्तान की स्थिति और आज के समय की पीओके की स्थिति एक समान हो, और रोचक बात यह है कि ऐसा है भी। उस समय पूर्वी पाकिस्तान, पश्चिमी पाकिस्तान की तानाशाही से जूझ रहा था। पूर्वी पाकिस्तान के पास ना तो आर्थिक शक्ति थी, और ना ही सैन्य शक्ति, और पश्चिमी पाकिस्तान ने पूर्वी पाकिस्तान में लगातार लूट जारी रखी। यही कारण था कि पूर्वी पाकिस्तान के लोगों में अलगाव की भावना पैदा हुई और यहां के लोगों ने अपने दमन के खिलाफ आवाज़ उठाना शुरू किया। यही हालत आजकल पीओके के हैं जहां से अक्सर ऐसी तस्वीरें आती रहती हैं जिनमें स्थानीय लोग पाकिस्तानी सेना और सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करते दिखाई देते हैं।
वर्ष 1971 में बांग्लादेश की स्थापना के पीछे भारत के खूफिया तंत्र की बहुत बड़ी भूमिका रही थी। भारत ने पाकिस्तानी सेना की कमर तोड़ने के लिए पूर्वी पाकिस्तान के स्थानीय लोगों का ही इस्तेमाल किया। भारत ने मुक्ति वाहिनी के लड़ाकों को पाकिस्तानी सेना से लड़ने के लिए ट्रेन किया और उनके जरिये अपने लिए खूफिया सूचनाएं जुटाईं। बता दें कि मुक्ति वाहिनी उन सभी संगठनों का सामूहिक नाम है जिन्होने सन् 1971 में पाकिस्तानी सेना के विरुद्ध संघर्ष करके बांग्लादेश को पाकिस्तान से स्वतंत्र कराया था। बांग्लादेश की आज़ादी की लड़ाई के दौरान मुक्ति वाहिनी का गठन पाकिस्तानी सेना के अत्याचार के विरोध में किया गया था। मुक्ति वाहिनी एक छापामार संगठन था, जो पाकिस्तानी सेना के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध लड़ रहा था, और इसी मुक्ति वाहिनी को भारतीय सेना ने अपना समर्थन दिया था।
मुक्ति वाहिनी ने पाकिस्तानी सेना को कमजोर करने में अहम भूमिका निभाई, और जब भारतीय सेना पाकिस्तानी सेना का मुक़ाबला करने आई युद्ध के मैदान में, तब तक पाकिस्तानी सेना को बहुत ज़्यादा नुकसान पहुंच चुका था। मुक्ति वाहिनी ने ना सिर्फ पाकिस्तान की सेना के साथ लड़कर उसे कमजोर किया, बल्कि पाकिस्तानी सेना को युद्धसामग्री मिलने से रोकने के लिए उसकी सप्लाई चेन को भी बाधित किया। मजबूर होकर पाकिस्तानी वायुसेना को मोर्चा संभालना पड़ा और 22 नवंबर 1971 को पाकिस्तानी वायुसेना ने पहली बमबारी की। पाकिस्तानी वायुसेना ने भारतीय सेना और मुक्ति वाहिनी के ठिकानों पर हमला करने के लिए चौगाचा मोर एरिया को निशाना बनाया, और यहीं से भारतीय सेना और वायुसेना को पाकिस्तान के खिलाफ बड़े पैमाने पर युद्ध छेड़ने का मौका मिल गया, और बड़ी ही आसानी से भारत ने पाकिस्तान को मात दे दी।
जिस तरह भारत ने वर्ष 1971 के समय में मुक्ति वाहिनी सेना का समर्थन किया था, और उनको ट्रेनिंग दी थी, ठीक उसी तरह आज भारत को पीओके में चल रही आज़ादी की लड़ाई को समर्थन देने की आवश्यकता है। भारत को मुक्ति वाहिनी की तरह ही पाकिस्तान में भी अलगाववादियों के समूह का एकीकरण करके, उन्हें आर्थिक और रणनीतिक तौर पर मजबूत करने की ज़रूरत है। पाकिस्तान की बात करें, तो सिर्फ पीओके में ही नहीं, बल्कि बलूचिस्तान और सिंध में भी आज़ादी के लिए संघर्ष लगातार जारी हैं। भारत को अपने खूफिया तंत्र का इस्तेमाल करके इन सभी जगहों पर अलगाववादियों का समर्थन करने की ज़रूरत है। अगर भारत ऐसे इलाकों में अस्थिरता फैलाने में कामयाब रहता है, तो पैसे की कमी से जूझ रहे पाकिस्तानी सुरक्षा तंत्र के हालातों पर काबू पाना मुश्किल हो जाएगा, और ऐसी अस्थिरता के समय में भारत एक सीमित सैन्य कार्रवाई के जरिये पीओके को भारत में मिलाने का अपना सपना साकार कर सकता है।
जैसा हमने आपको बताया, पाकिस्तान को तोड़ने का भारत के पास अनुभव पहले से है। वर्ष 1971 के समय, तो पाकिस्तान के पास अमेरिका जैसी महाशक्ति का समर्थन हासिल था और कूटनीतिक तौर पर भी उसे काफी देशों का समर्थन था। लेकिन आज न सिर्फ पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था तबाही के मुहाने पर खड़ी है, बल्कि कूटनीतिक तौर पर भी पाकिस्तान पूरी तरह अलग-थलग पड़ा है।
पीओके को वापस भारत में मिलाने के लिए भारत के पास आज सैन्य क्षमता भी है, और राजनीतिक क्षमता भी। गृहमंत्री अमित शाह पहले ही यह कह चुके हैं कि जम्मू-कश्मीर से 370 हटाने और राज्य को तीन हिस्सों में बांटने के बाद अब केंद्र सरकार का ध्यान पीओके का भारत में विलय करने का होगा। भारत सरकार अपने पक्ष में वैश्विक समर्थन जुटाने के लिए दुनियाभर के देशों में मौजूद अपने राजदूतों और उच्चायोगों की सहायता ले सकती है। जिस तरह भाजपा की केंद्र सरकार ने कश्मीर को लेकर इतना बड़ा फैसला लेने की हिम्मत दिखाई है, उसी तरह पीओके को भारत में मिलाने के लिए भारत सरकार को अब बड़ा कदम उठाने की आवश्यकता है।