पश्चिम बंगाल के वर्तमान राज्यपाल जगदीप धनखड़ इन दिनों काफी नाखुश हैं। उन्होंने हाल ही में कोलकाता के प्रसिद्ध ‘ला मार्टीनियर कॉलेजों’ को उनके अजीबोगरीब नियमों के लिए आड़े हाथों लिया है। द प्रिंट के साथ अपनी बातचीत में उन्होंने कहा है कि ला मार्टीनियर कॉलेज ने उन्हें अपने बोर्ड का स्थायी सदस्य इसलिए नहीं बनाया क्योंकि वे गैर ईसाई व्यक्ति हैं।
राज्यपाल के अनुसार, “आप [ला मार्टीनियर कॉलेज ग्रुप] एक अल्पसंख्यक संस्थान हैं, मुझे इससे कोई समस्या नहीं है। परंतु अगर आप यह कहते हैं कि एक राज्यपाल तभी इस संस्थान से जुड़ सकता है, जब वह ईसाई धर्म का हो, और इस बात से अनुच्छेद 14 का उल्लंघन होता है। यह मुझे स्वीकार नहीं है। इसका हमें समाधान अवश्य खोजना होगा”। जगदीप धनखड़ ने आगे बताया, “ला मार्टीनियर कॉलेजों का प्रबंध बहुत ही उत्कृष्ट है। यह एक ऐसा संस्थान है जो 200 वर्ष पुराना है, परंतु मुझे बहुत दुखी मन से कहना पड़ रहा है कि यहाँ पर एक बड़ा ही अजीब प्रावधान है – राज्यपाल तभी इस संस्थान का स्थायी सदस्य बन सकता है यदि वो ईसाई हो”।
इस बात की पुष्टि ला मार्टीनियर कॉलेज ग्रुप के सेक्रेटरी सुप्रियो धर ने की। उन्होने द प्रिंट से अपनी बातचीत के दौरान बताया, “इस स्कूल का कॉन्स्टिट्यूशन कहता है कि बोर्ड ऑफ गवर्नर्स में सभी स्थायी सदस्यों का ईसाई होना आवश्यक है”। इसके अलावा सुप्रियो धर ने ये भी बताया कि इस स्कूल के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स के स्थायी सदस्यों में राज्यपाल 1970 के समय शामिल हुये थे, जब एंथनी लांसलॉट डायस 1971 से 1979 तक बंगाल के राज्यपाल रहे थे।
अब कल्पना कीजिये, यदि ये ला मार्टीनियर कॉलेज न होकर सरस्वती शिशु मंदिर, और ये नियम ईसाई के बजाए हिन्दू समुदाय की सुविधा के लिए होता तो अब तक देश के कथित बुद्धिजीवी कितना हल्ला मचा चुके होते। इस अजीबोगरीब नियम पर कथित बुद्धिजीवी अभी मौन क्यों हैं? क्या यह असहिष्णुता नहीं है? चूंकि यहाँ पीड़ित एक अल्पसंख्यक नहीं है, इसलिए यहाँ पर हमारे कथित बुद्धिजीवी और हमारे पत्रकारों को अपने अंतरात्मा की आवाज़ नहीं सुनाई दे रही होगी। उन्हें ये सब असहिष्णुता नहीं लग रहा होगा।
दिलचस्प बात तो यह है कि देश भर के ला मार्टीनियर कॉलेज उसी बिरादरी से आते हैं, जो समानता और सामाजिक न्याय की दुहाई देते नहीं थकते। अक्सर ऐसे ही संस्थानों में पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण देने, और सामाजिक न्याय की मांग उठती रही है। परंतु वास्तव में यही संस्थान अपने ही उपदेशों विमुख रहते हैं। समानता की दुहाई देने वाले ईसाई समुदायों के संस्थानों में धर्म के ही नाम पर भेदभाव किया जाता है, जो स्पष्ट रूप से आर्टिकल 14 का उल्लंघन करता है। कई बार इन स्कूलों से ऐसी भी खबरें आती हैं कि गैर ईसाई धर्म के बच्चों के त्योहार पर स्कूल द्वारा भेदभाव किया जाता है।
हालांकि इस समस्या का समाधान क्या होगा, इस बारे में राज्यपाल ने अपने इरादे स्पष्ट नहीं किए हैं। उन्होने कहा है कि इस मुद्दे को उचित तरीके से वे उठाने का प्रयास करेंगे। “मैंने इसी स्कूल के विद्यार्थियों से कहा है कि एक अजीबोगरीब प्रावधान आपके और मेरे बीच में संवाद स्थापित करने से रोकता है। शायद उन्होंने इस बात पर ठीक से ध्यान नहीं दिया होगा। परंतु इस समस्या का समाधान होकर रहेगा”।
अभी कुछ ही महीनों पहले बिशप परितोष कैनिंग और सेंट एंड्रू चर्च के पादरी ‘स्वरूप बार’ के दिशानिर्देश पर पूर्व बोर्ड के चार गवर्नर – अनिल मुखर्जी, जेरी आराथून, सुचित्रा गुहा और अंजलि दास को निष्कासित किया गया था, जिसके खिलाफ इन्होंने कलकत्ता हाई कोर्ट में अपील दायर की थी। मामले का संज्ञान लेते हुये न्यायालय ने एक निष्पक्ष प्रबन्धक के गठन का निर्णय सुनाया, जिसके अंतर्गत इसी विद्यालय के पूर्व विद्यार्थी और कलकत्ता हाइ कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश तपन कुमार दत्ता को एडमिनिस्ट्रेटर के तौर पर नियुक्त किया गया।
बंगाल के राज्यपाल के बयानों से इतना तो स्पष्ट होता है कि अल्पसंख्यक स्कूलों, विशेषकर मिशनरी स्कूलों में खुलेआम समानता के अधिकारों की धज्जियां उड़ाई जाती हैं। इससे पहले भी इस तरह के स्कूलों में गैर इसाइयों के विरुद्ध स्कूल प्रबंधन के रूखे व्यवहार की खबरें सामने आती रही हैं। ऐसे में हम आशा करते हैं कि बंगाल के राज्यपाल इस समस्या का त्वरित समाधान निकालें और यदि हो सके, तो भावी पीढ़ियों के लिए अपने निर्णय से एक उदाहरण भी स्थापित कर सकें।