सोशल मीडिया के बारे में अच्छी बात यह है कि यहां कोई भी कितना भी लोकप्रिय क्यों न हो लंबे समय तक अपनी सच्चाई नहीं छुपा पाता। वेब पोर्टल “द क्विंट” के साथ एक साक्षात्कार में, जॉन अब्राहम ने टिप्पणी की कि केरल मोदीमय इसलिए नहीं हुआ क्योंकि इस राज्य के नागरिकों ने अपने साम्यवादी दृष्टिकोण को सामने रखा।
लेखक मुरली के. मेनन की किताब की लिखी किताब ‘द गॉड हू लव्ड मोटरबाइक्स’ के लोकार्पण में पहुंचे जॉन अब्राहम से जब नम्रता जकारिया ने पूछा कि उन्हें ऐसा क्यों लगता है कि उनका गृह राज्य अभी तक ‘मोदी-केंद्रित’ नहीं हुआ है और केरलवासी बाकी देश से अलग क्यों हैं? तो इस पर जॉन ने उत्तर दिया:
‘यही केरल की खूबसूरती है। आप वहां हर 10 मीटर के दायरे में मंदिर, मस्जिद और चर्च को देख सकते हैं। वहां किसी भी तरह की कोई समस्या नहीं है। जबकि पूरी दुनिया में ध्रुवीकरण हो रहा है, केरल एक ऐसे जगह का उदाहरण है जहां अलग-अलग धर्म और समुदाय के लोग एक-दूसरे के साथ शांतिपूर्वक रह सकते हैं।’
अपने तर्क का समर्थन करने के लिए, उन्होंने आगे कहा, “जब फिदेल कास्त्रो(क्यूबा के कम्युनिस्ट नेता) की मौत हुई थी, तब मैं केरल गया था और वो इकलौता राज्य था, जहां पोस्टर और होर्डिंग्स लगे हुए थे और उनकी मौत पर शोक प्रकट किया जा रहा था। तो एक तरह से केरल सचमुच कम्युनिस्ट है। मेरे पिता ने पढ़ने के लिए मुझे मार्क्सवाद से जुड़ा काफी साहित्य दिया था। कई सारे मल्लु (मलयाली लोग) लोगों का एक कम्युनिस्ट पक्ष भी होता है। हम सभी एक समान जीवन और धन के समान वितरण में विश्वास रखते हैं और केरल इसका चमकता हुआ उदाहरण है।’
अब जॉन अब्राहम के राजनीतिक झुकाव पर आगे कोई टिप्पणी करने से पहले, आइए देखें कि फिदेल कास्त्रो कौन थे।
फिदेल कास्त्रो क्यूबा के एक साम्यवादी नेता थे जिन्होंने प्रसिद्ध ‘क्यूबा क्रांति’ के माध्यम से अपने और अपने साथी के लिए सत्ता हासिल करने के लिए राष्ट्रपति फुलगेन्सियो बतिस्ता (फुलगेन्सियो बतिस्ता) की सत्ता को उखाड़ फेंका। इसके बाद वर्ष 1959 से 2008 तक क्यूबा पर शासन किया। उन्होंने 2016 में अंतिम सांस ली थी।
उन्होंने जिस तरह से क्यूबा को दरिद्रता के मुहाने पर खड़ा कर दिया था यह बहुत कम लोगों को ही पता है। 1959 में जब वे सत्ता में आए थे, तो उन्होंने क्यूबा का कायापलट करने का दावा किया था, परंतु बहुत कम ही लोगों को पता था कि कायापलट से उनका अर्थ किस परिप्रेक्ष्य में था। लाखों लोगों को बिना वजह ही कारावास में डाल दिया गया, साम्यवाद के नाम पर अश्वेत वर्ग का खूब दमन किया गया, और समलैंगिकों के विरुद्ध तो कास्त्रो और उनके विश्वासपात्र कहे जाने वाले चे ग्वेरा (Che Guevara) ने एक अलग ही दमनकारी अभियान चलाया, जिसे देख तो हिटलर और स्टालिन के अत्याचार भी फीके लगने लगेंगे। ऐसे व्यक्ति जॉन अब्राहम के आदर्श हैं।
कास्त्रो के शासनकाल से पहले, क्यूबा 1958 में आयरलैंड और ऑस्ट्रेलिया की तुलना में standard of living काफी उच्च था। साथ ही क्यूबा का प्रति व्यक्ति आय जापान और स्पेन की तुलना में दोगुना था, आज यह दुनिया में 118 वें स्थान पर है। कभी कैरेबियन क्षेत्र का एक समृद्ध देश क्यूबा अब फिदेल कास्त्रो के दमनकारी नीति और समाजवादी सिद्धांत के कारण आज दिवालिया बन कर रह गया है।
इससे बुरा क्या हो सकता है कि क्यूबा में अभी 90% साक्षरता दर है जो 1958 में 80% साक्षरता दर हासिल कर चुका था। मतलब यह कि इतने सालों में भी क्यूबा के साक्षरता दर में केवल 10 प्रतिशत की ही बढ़त हुई। मजेदार तथ्य, यहां तक कि जॉन अब्राहम का गृह राज्य केरल साक्षरता के मामले में फिदेल कास्त्रो के क्यूबा से बेहतर है। लगभग 6 दशकों में सिर्फ 10% की प्रगति दर निश्चित रूप से गर्व की बात नहीं है। आपको क्या लगता है, यह गर्व करने वाली बात है?
लेकिन यह दिवालियापन जॉन अब्राहम जैसे लोगों के लिए आदर्श है। जॉन ने एक बार सिल्वर स्क्रीन पर मोहनदास करमचंद गांधी की गोली मारकर हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे के जीवन को चित्रित करने की मंशा ज़ाहिर की थी। अब इसे हिपोक्रिसी न कहें तो किसे कहें भाई?
अगर हम उनके वर्तमान कथनों को देखें, तो क्या यह अवसरवाद का एक शानदार उदाहरण नहीं है? ‘परमाणु’, ‘रोमियो अकबर वाल्टर’ और यहां तक कि बाटला हाउस जैसे फिल्मों का चयन कर जॉन अब्राहम राष्ट्रवादी फिल्मों के लिए अक्षय कुमार के बाद नए ‘पोस्टर बॉय’ बने थे। मोदी सरकार के आने से पहले, ये दोनों ही अभिनेता ‘गरम मसाला’, देसी बॉयज’ जैसी फिल्मों तक ही सीमित थे। लेकिन जैसे ही में मोदी सरकार का आगमन हुआ तो इन दोनों ने राष्ट्रवाद को केंद्र में रखकर रुपये कमाने का जरिया ढूंढ लिया और लगातार ऐसी ही फिल्में बनाई।
परन्तु इस इंटरव्यू के बाद जॉन अब्राहम का मुखौटा उतर गया है और सभी को पता चल गया है कि वह वास्तविक जीवन में कम्यूनिस्ट का समर्थन करते हैं और केवल अपने वित्तीय फायदे के लिए देशभक्ति फिल्मों का सहारा लेते हैं। मोदी सरकार पर ध्रुवीकरण का आरोप लगाने के लिए एक ऐसे क्षेत्र का उदाहरण देना, जो स्वयं आईएसआईएस जैसे खतरनाक आतंकवादी संगठनों को शरण देने के लिए बदनाम है, किसी स्थिति में प्रशंसनीय नहीं है। पर जॉन अब्राहम अपने बयान से यही सिद्ध करना चाहते हैं, और ये निस्संदेह उनके व्यक्तित्व का एक स्याह पहलू उजागर करता है।