आज से ठीक चार वर्ष पहले प्रख्यात उद्योगपति और महिंद्रा ग्रुप के अध्यक्ष आनंद महिंद्रा ने कहा था, ‘जिस तरह उबर और ओला जैसे एप लोगों को सुविधाएं उपलब्ध करा रहे हैं, वो आगे चल कर ऑटो इंडस्ट्री के लिए काफी हानिकारक सिद्ध हो सकती है। ऐसे कई युवा लोग हैं जो वहां ले सकते हैं, परंतु उनके एक वहाँ का स्वामी नहीं बनना, उन्हे बस परिवहन की सुविधा चाहिए!’
चार साल के पश्चात उनकी बातें एकदम सच साबित हो रही हैं। मंगलवार वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एक ऐसा ही बयान देते हुए कहा, ‘ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री पर बीएस6 और लोगों की सोच में आए बदलाव का असर पड़ रहा है। लोग अब गाड़ी खरीदने की बजाय ओला या उबर को तरजीह दे रहे हैं, ऑटोमोबाइल सेक्टर में मंदी का कारण हमारे मिलेनियल [युवा पीढ़ी] की सोच में आया बदलाव भी है। अब लोग खुद का वाहन खरीदकर मासिक किश्त देने की बजाए ओला और उबर जैसी ऑनलाइन टैक्सी सेवा प्रदाताओं के जरिए वाहनों की बुकिंग को महत्व दे रहे हैं’।
पर ये बात हमारे ट्विटर के योद्धाओं और नए-नए इंडस्ट्री एक्सपर्ट्स इत्यादि के पल्ले नहीं पड़ी। वे तो इस बयान के जारी होते ही निर्मला सीतारमण पर टूट पड़े और उनके बयान का मज़ाक उड़ाना प्रारम्भ कर दिया। ट्विटर पर ज्ञान बाँचने में कोई बुराई नहीं है, परंतु यदि आपको निर्मला सीतारमण के बयान से आपत्ति है, तो आपको अपनी बात सिद्ध करने के लिए उचित साक्ष्य पेश करने चाहिए, और इस समय निर्मला सीतारमण का बयान क्यों सच्चाई बयान करता है, इसके लिए हमारे पास कुछ ठोस प्रमाण भी है। आइये उनपर एक नज़र डालते हैं –
सबसे पहले बात करते हैं राइड शेयरिंग सेवाओं के उद्देश्य के बारे में। लगभग एक दशक पहले उबर के संस्थापक और पूर्व सीईओ ट्रैविस कलानिक ने वॉल स्ट्रीट जर्नल को दिये अपने इंटरव्यू में ही स्पष्ट कर दिया था कि ऐसी सेवाओं का मुख्य उद्देश्य है, लोगों को गाड़ियां खरीदने से रोकना और कम से कम गाड़ियों में ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को बिठाना।
किसी भी शेयर्ड मोबिलिटी कंपनी का मुख्य उद्देश्य गाड़ियों के स्वामित्व को खत्म करना और ‘शेयरिंग और हायरिंग’ बढ़ाना है। पिछले कुछ वर्षों में राइड शेयरिंग ने अप्रत्याशित वृद्धि दर्ज़ की है, जिसमें ओला और उबर जैसी सेवाओं का बहुत बड़ा हाथ रहा है, और तो और, अब शेयर्ड मोबिलिटी की डिमांड केवल फोर व्हीलर तक ही सीमित नहीं रहा है, अपितु रैपिडो जैसे एप से अब आप बाइक और ऑटो रिक्शा की सेवाएं भी ले सकते हैं। ऐसे में ये तो साफ है कि शेयर्ड मोबिलिटी में वृद्धि से गाड़ियों के स्वामित्व में भारी कमी दर्ज़ हुई है।
तो आखिर मिलेनियल शेयर्ड मोबिलिटी जैसी सुविधा क्यों चुनते हैं? डेलॉइट, वैश्विक कंसल्टेंसी ने जून में 2019 ग्लोबल मोटर वाहन उपभोक्ता अध्ययन प्रकाशित किया था। इस अध्ययन के अनुसार शेयर्ड मोबिलिटी भारत में काफी लोकप्रिय हो रहा है। मॉर्गन स्टेनली की एक रिपोर्ट में ये भविष्यवाणी की गयी थी कि भारत में शेयर्ड मोबिलिटी की सुविधा कुल मीलों की यात्रा के अनुसार 2030 तक 35 प्रतिशत और 2040 तक 50 प्रतिशत तक हो जाएगी।
कुछ शोध की मानें, तो कार को किराये पर लेने से ज़्यादा सस्ता है कार शेयर करना। कार के स्वामित्व से जुड़ा सोशल स्टेटस अब गुजरे जमाने की बात है और अब युवा वर्ग कार की कार्यक्षमता पर अपना ध्यान ज़्यादा केंद्रित करता है। बेंगलुरु में काम कर रहे एक 25 वर्षीय ऑफिस गोअर का कहना है कि “सामाजिक बेड़ियाँ अब टूट रही हैं। मेरे जो दोस्त कभी मर्सिडीज लेने की नहीं सोच सकते, वे खुशी खुशी ओला और उबर की सेवाएँ लेते हैं’।
यही नहीं, अब तो अखबारों में गाड़ी के शेयरिंग के फ़ायदे गिनाने जाने लगे हैं। नवम्बर 2015 में प्रकाशित इकोनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार एक व्यक्ति शेयर्ड मोबिलिटी का उपयोग कर प्रतिवर्ष 50,000 से 1 लाख रुपये बचा सकता है। इस लेख का शीर्षक था, ‘उबर और ओला के जमाने में क्या आपको कार खरीदनी चाहिए?”
30 अप्रैल 2016 को इसी अखबार में एक और खबर प्रकाशित हुई थी, जिसमें कारों के स्वामित्व के विरुद्ध बात की गयी थी, और शीर्षक था, ‘कार मत खरीदो, बस एक ओला या उबर कैब शेयर कर लो, काफी है’।
अब ज़रा इस तस्वीर की ओर ध्यान दीजिये –
इसे एक कोरा यूज़र ने शेयर किया, जिसने कार के स्वामित्व और कार के शेयरिंग संबंधी लागत का अनुमान लगाया है। ये निस्संदेह एक सटीक छवि नहीं पेशी करता, परंतु ये दोनों में व्याप्त अंतर के बारे में कुछ आवश्यक जानकारी अवश्य देत हैं, और इकोनॉमिक टाइम्स एवं बिज़नेस स्टैंडर्ड में विशेषज्ञों द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट्स से काफी मेल खाता है।
इन दोनों अखबारों ने अपने लेखों में ये बात स्पष्ट की है कि राइड शेयरिंग एप्स ने कार मार्केट को काफी नुकसान पहुंचाया है। नवम्बर 2018 में बिज़नेस स्टैंडर्ड के एक लेख के अनुसार, ‘ओला और उबर के बाद एक और स्टार्ट अप भारत के कार मार्केट में खलल डालने को तैयार है’। इस लेख की पहली लाइन भी शीर्षक से काफी मेल खाती है, जो है ‘दुनिया के उबर और ओला के बाद अब कारों के स्वामित्व के सामने एक नयी चुनौती सामने आयी है’।
आरबीआई ने 25 अप्रैल 2019 को एक स्टडी प्रकाशित की थी, जिसका शीर्षक था ‘ऑटोमोबाइल बिक्री को क्या चलाता है? यह बैंक क्रेडिट नहीं है। (What Drives Automobile Sales? It’s Not Bank Credi) इस स्टडी के अनुसार ऑटोमोबाइल क्षेत्र में आंशिक मंदी के लिए ‘वाहन बीमा और राइड हेलिंग सर्विस सेगमेंट में सुधारों जैसी नीतियाँ जिम्मेदार हैं।
आरबीआई के एक स्टडी के अनुसार, राइड शेयरिंग की इसी सेवा ने पिछले कुछ वर्षों से ऑटोमोबाइल क्षेत्र को काफी नुकसान पहुंचाया है। राइड शेयरिंग सेवाओं में 2012 से 2014 के बीच काफी वृद्धि आई है, और इसके साथ ही इन शहरों में टैक्सी रजिस्ट्रेशन में भी काफी वृद्धि हुई है। कई हज़ार लोगों ने फोर व्हीलर्स टैक्सी सेवाओं हेतु खरीदे हैं।
तो ऐसे में ऑटोमोबाइल क्षेत्र के उद्योगपति अपने व्यापार को बचाने के लिए क्या कर रहे हैं? सच पूछें तो ऑटोमोबाइल क्षेत्र के उद्योगपति स्वयं इस समस्या से भली भांति परिचित है और इस समस्या के समाधान के लिए वे स्वयं ऐसे राइड शेयरिंग स्टार्टअप्स में निवेश कर रहे हैं। एक ओर देश में दूसरी सबसे बड़ी ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री चला रही हुंडई ने ओला में 300 मिलियन डॉलर का निवेश किया, और सेल्फ-ड्राइव कंपनी Revv के जरिये सब्स्क्रिप्शन सेवा भी उपलब्ध करा रही है। वहीं महिंद्रा ने ग्लाइड नामक इलेक्ट्रिक राइड शेयरिंग सर्विस में 300 मिलियन डॉलर का निवेश किया और 400 मिलियन डॉलर जूमकार में किया।
सच पूछें तो अकेले भारत ही नहीं है जो इस समस्या से जूझ रहा है। अर्थशास्त्रियों के लिए बेहद आवश्यक समझा जाने वाले अखबार फाइनेंशियल टाइम्स ने 9 सितंबर को एक लेख प्रकाशित किया था, जिसका शीर्षक ‘कार उद्योग वैश्विक उत्पादन को तीव्र मंदी की ओर घसीट रहा है।‘ इस लेख के अनुसार कार उद्योग के उत्पादन में काफी गिरावट दर्ज़ हुई है। दुनिया भर में ऑटोमोबाइल उद्योग ने ज़बरदस्त मंदी देखि है, और ये जर्मनी जैसे देशों के लिए किसी खतरे से कम नहीं है, जिनकी पूरी अर्थव्यवस्था ऑटोमोबाइल उत्पादन पर निर्भर है।
ऐसे में आगे के लिए समाधान क्या है? राइड शेयरिंग के क्षेत्र में हर महीने नई कंपनियाँ उभरकर सामने आ रही है। एस राइड के सह संस्थापक नितिन चड्ढा के अनुसार ‘उन मोबिलिटी सेवाओं के लिए एक बहुत बड़ा मार्केट उपलब्ध है जो उबर और ओला से कम कीमत पर सुविधा दे सकते हैं’। एस राइड कैपजेमिनी, इंफ़ोसिस और विप्रो जैसे बड़े बड़े आईटी फ़र्म के साथ संधि करके कर्मचारियों को कैब सेवाएँ प्रदान कर रहे हैं। ड्राइवज़ी और जूमकार जैसे कुछ और स्टार्टअप इस क्षेत्र में तेज़ी से उभर रहे हैं। ऐसे में अब ऑटोमोबाइल कंपनियों को ऐसी कर बाज़ार में उतारनी होंगी जो ऑल राउंड परफॉर्मेंस प्रदान कर सके, न कि केवल यात्रा का आवश्यक साधन हो।
पिछले कुछ वर्षों के कई शोध और अनुसंधान को देखें तो पातें हैं कि निर्मला सीतारमण का ऑटोमोबाइल उद्योग में मंदी पर दिया गया बयान सच भी है। हमारे ट्विटर के स्वघोषित एक्सपर्ट्स और ट्विटर ट्रोल्स को निर्मला सीतारमण पर टिप्पणी करने से पहले इन शोधों और औद्योगिक विशेषज्ञों के बयानों पर ध्यान देना चाहिए, ताकि उनके स्थिति की वास्तविकता पता चल सके।