तीस्ता सीतलवाड़ और सिद्धार्थ वरदराजन की कमेटी ने गौरी लंकेश पुरस्कार से रविश कुमार को नवाजा

गौरी लंकेश

एनडीटीवी के पत्रकार रविश कुमार को एक के बाद एक लगातार पुरस्कार दिया जा रहा है। पहले इन्हें रेमन मैग्सेसे अवार्ड मिला और हाल ही में एक और पुरस्कार मिला जिसका नाम गौरी लंकेश मैमोरियल अवॉर्ड है। आप भी सोच रहे होंगे यह कौन सा पुरस्कार है? बता दें कि ये पुरस्कार गौरी लंकेश मेमोरियल ट्रस्ट द्वारा घोषित किया गया था जो वामपंथी पत्रकार गौरी लंकेश की 2017 में हुई हत्या की दूसरी बरसी के उपलक्ष्य में पहली बार दिया गया है।

पहले हम बताते हैं कि यह ट्रस्ट क्या है और यह कैसे काम करता है और इस पुरस्कार के लिए पत्रकारों के नामों की चुनाव करने वाली कमेटी में कौन-कौन है?

गौरी लंकेश मेमोरियल ट्रस्ट गौरी लंकेश की हत्या के बाद उनकी विचारधारा को जिंदा रखने के लिए बनाया गया है। इस ट्रस्ट के ट्रस्टी में कुछ बड़े नाम हैं जैसे वी एस श्रीधर, पीएम मोदी पर मुकदमा करने की मांग करने वालीं तीस्ता सीतलवाड़, द वायर के संस्थापक सिद्धार्थ वरदराजन और दिग्गज स्वतंत्रता सेनानी एच एस डोरस्वामी। यही लोग उस कमेटी में थे जिसमें अवार्ड देने के लिए पत्रकारों का चुनाव किया जाता है। अब तो आपको पता चल ही गया हो गया कि यह पुरस्कार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ झूठे आरोप लगाने वालों को ही दिया जाता है। हालांकि भारत में इतने पुरस्कार हो चुके हैं कि पता ही नहीं चलता किस पुरस्कार का कितना महत्व है।

12 और 13 मई 2016 की रात बीते 24 घंटों में झारखंड के चतरा और बिहार के सिवान में दो पत्रकारों की हत्या हुई थी, इन पत्रकारों के नाम पर इस पुरस्कार का नाम क्यों नहीं रखा गया? अंतरराष्ट्रीय संस्था ‘कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट’ के शोध के अनुसार देश में साल 1992 से अब तक 91 पत्रकारों को मौत के घाट उतारा जा चुका है तो फिर इन सभी के नाम पर कोई पुरस्कार क्यों नहीं? 91 पत्रकारों की हत्या पर इतना आक्रोश प्रकट क्यों नहीं हुआ? क्या लंकेश की हत्या का इंतजार किया जा रहा था? या फिर पहले मरने वाले पत्रकार हिंदी और अन्य भारतीय भाषा के पत्रकार थे इसलिए? या फिर यह महानगरों में पत्रकारिता नहीं करते थे, बल्कि क्षेत्रीय स्तर के पत्रकार थे। या फिर इसलिए कि इनके वैचारिक पक्ष की जानकारी इन बड़े पत्रकारों को नहीं थी?

इसका एक ही कारण है और वो ये है कि पत्रकारों के एक समूह जिसने गौरी लंकेश की हत्या का सबसे ज्यादा फायदा उठाया है, अब भी उन्हीं के नाम का सहारा लेकर फिर से अपने अस्तित्व को बचाने की कोशिश कर रहे हैं।

इन वामपंथी पत्रकारों ने जिस तरह से गौरी लंकेश की हत्या का इस्तेमाल मोदी सरकार को बदनाम करने के लिए किया है इसका उदाहरण शायद इतिहास में भी नहीं मिलेगा। अब गौरी लंकेश की बात चल ही रही है तो यह भी जानना जरूरी है कि आखिर वो थीं कौन?

गौरी लंकेश इन्हीं लेफ्ट लिबरल ब्रिगेड की पत्रकार थीं जिनकी हत्या अज्ञात लोगों ने वर्ष 2017 में कर दी थी, जांच अभी भी जारी है। चूंकि गौरी नक्सलियों को मुख्यधारा में लाने की मुहिम की अगुवाई कर रही थीं, कुछ नक्सलियों को मुख्यधारा से जोड़ने में वे सफल भी हुई थीं, जिसकी वजह से वे नक्सलियों के निशाने पर थीं और उन्हें लगातार धमकीभरी चिट्ठी और ईमेल आते थे।

उनके भाई इंद्रजीत लंकेश ने कहा था कि उन्हें गौरी की जान पर खतरा होने की पहले से जानकारी थी। उन्हें सूत्रों के जरिए जानकारी मिली थी कि नक्सली ऐसे पैमफ्लेट छपवा रहे हैं जिसमें वो अपने साथी माओवादियों को मुख्यधारा में शामिल होने के खिलाफ चेतावनी दे रहे हैं। वैसे ये बात सभी को पता है कि जासूसी और गद्दारी के शक मात्र में नक्सली संदेही के पूरे परिवार तक को जिंदा जला देते हैं।

बता दें कि माननीय न्यायालय ने लंकेश को तथ्यहीन और मानहानिकारक लिखने का दोषी पाते हुए छह माह कारावास की सजा सुनाई थी। वह जमानत पर जेल से बाहर चल रही थीं। इतना कुछ देखने के बाद तो आपको समझ में आ गया होगा कि यह पुरस्कार नहीं प्रोपोगेंडा है। रविश कुमार इस पुरस्कार को लेने के बाद भी उसी रोने वाले अंदाज में दिखे जिससे उन्हें कुछ सिम्पथी मिल जाए।

लेफ्ट लिबरल अक्सर ऐसे ही पुरस्कारों को ले दे कर अपना ईकोसिस्टम चलाते हैं जिससे उनका प्रोपोगेंडा चलता रहे और उनकी विचारधारा जिंदा रहे। हालांकि पूरी दुनिया दशकों पहले ही इस ढोंग को नकार चुकी है। नक्सलियों और दहशतगर्दों के प्रति एक विशेष प्रेम रखने वाला यह पत्रकार वर्ग निश्चित ही अब अप्रासंगिक हो चुका है और लगभग सभी मोर्चों पर विफल साबित हुआ है। रवीश कुमार को ये पत्रकार वर्ग अपने एजेंडे में इसलिए शामिल करते हैं ताकि वे अपने रोने वाले चेहरे से कुछ लोगों को लुभा सकें। हालांकि रवीश कुमार की क्रांतिकारी पत्रकारिता जिससे मोदी विरोध का एजेंडा चलाया गया उसे जनता ने नकार दिया है और पीएम मोदी दोबारा सत्ता में प्रचंड बहुमत के साथ लौट आए हैं।

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