15 अगस्त 1947, इस दिन हमारा देश तो स्वतंत्र हुआ था, परंतु उसके साथ ही साथ 565 रियासतें और रजवाड़े भी स्वतंत्र हुए थे। उन्हें एक देश में पिरोने का दायित्व तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल एवं उनके विश्वसनीय सेक्रेटरी और चर्चित आईसीएस ऑफिसर वीपी मेनन को सौंपा गया था। कुशल नेतृत्व और बेजोड़ रणनीति से सरदार पटेल और वीपी मेनन ने असंभव को संभव कर दिखाया, और साल भर के अंदर ही 562 रियासत भारत में विलय को तैयार हो गये।
परंतु जो क्षेत्र अभी भी भारत से नहीं जुड़े थे, उनमें प्रमुख थे, कश्मीर, जूनागढ़ और हैदराबाद। इनमें हैदराबाद जनसंख्या, क्षेत्रफल एवं सकल घरेलू उत्पादन की दृष्टि से सबसे बड़ी रियासत थी। इसका कुल क्षेत्रफल यूनाइटेड किंगडम से भी ज़्यादा बड़ा था। हैदराबाद रियासत में आज के महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के कई क्षेत्र शामिल थे। उस समय हैदराबाद पर निज़ाम उस्मान अली खान का राज था, जो निज़ाम आसफ जाही वंश के सातवें शासक थे।
हालांकि, वे मात्र कठपुतली थे, क्योंकि असली शासन निज़ाम के सलाहकारों में से एक और मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन (MIM) के कद्दावर नेता, कासिम रिजवी के पास था। बता दें कि इत्तिहाद-ए-मुस्लिमीन वही संगठन है जो आज एआईएमआईएम के नाम से जाना जाता है और असदुद्दीन ओवैसी इसके अध्यक्ष हैं। कासिम रिजवी अपनी खुद की रजाकारों की फौज खड़ी कर रहे थे। सूत्रों के मुताबिक रजाकारों की संख्या 20,000 से 2 लाख के बीच थी। इन रजाकारों का मानना था कि या तो हैदराबाद को एक स्वतंत्र राज्य रहने दिया जाए जहां शरिया कानून लागू होता, या फिर उसे पाकिस्तान के साथ जोड़ दिया जाए। इस बात का उल्लेख केंद्र सरकार में मंत्री रह चुके वरिष्ठ स्वतंत्रता सेनानी केएम मुंशी और प्रख्यात पत्रकार कुलदीप नैयर भी अपनी-अपनी पुस्तकों में कर चुके हैं।
इनमें से किसी एक बात को भी उस समय मानना हर स्थिति में असंभव था। हैदराबाद में भले ही कट्टरपंथी रजाकारों का राज था, परंतु वहां की जनता इनके शासन का न केवल विरोध करती थी, अपितु भारत के साथ किसी भी कीमत पर विलय करने को तैयार थी। दूसरा कारण तो यह भी था कि पाकिस्तान को हैदराबाद से जोड़ना उतना ही तार्किक था जितना यूके में रूस का विलय करना क्योंकि पाकिस्तान का सबसे निकटतम शहर भी हैदराबाद क्षेत्र से लगभग 1500 किलोमीटर दूर था।
परंतु रजाकारों ने एक न सुनी, और हैदराबाद की जनता को काबू करने के लिए आतंक का रास्ता अपना लिया। गावों को लूटना शुरू किया, यही नहीं कई क्षेत्रों में गैर मुस्लिमों पर हमले किये जाने लगे। इस दौरान न केवल निर्दोष लोगों को निशाना बनाया जाने लगा, अपितु महिलाओं और बच्चियों के साथ दुर्व्यवहार भी किया जाने लगा। ये सब ठीक वैसे ही हो रहा था जैसे डायरेक्ट एक्शन डे के दौरान बंगाल क्षेत्र और विभाजन के समय अविभाजित पंजाब में हुआ था। इन सभी अत्याचारों पर निज़ाम ने आंखें मूँद रखी थी, और भारत में होते हुए भी हैदराबाद भारत के लिए नासूर बनने लगा था।
उस समय भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबैटन हुआ करते थे, जो हैदराबाद पर किसी प्रकार के बल प्रयोग के पक्ष में नहीं थे। वे चाहते थे कि सभी मुद्दों पर बातचीत से हल हो, और इसी बात का प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी अनुमोदन किया। परंतु सरदार पटेल इस बात से पूर्ण रूप से असहमत थे, और उन्होंने स्पष्ट किया कि बिना सैन्य कार्रवाई के हैदराबाद का भारत में विलय संभव नहीं है।
अत: तीनों इस बात पर सहमत थे कि हैदराबाद को स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के लिए सहमत कराया जाये। इस एग्रीमेंट में भारत की सेना को हैदराबाद की सीमाओं के बाहर तैनात किया जाना और हैदराबाद के शासक द्वारा निवासियों के साथ नरमी से बर्ताव करना शामिल था। परंतु कासिम रिजवी के रजाकारों के उग्र प्रदर्शनों के चलते निज़ाम ने इस प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया, जिसके पश्चात सरदार पटेल को बल प्रयोग का सहारा लेना पड़ा।
इस दौरान हैदराबाद के अंदर भी विद्रोह शुरू हो चुका था। क्या साम्यवादी क्या राष्ट्रवादी, सभी निज़ाम और उनके नाम पर अत्याचार ढाने वाले रजाकारों के विरुद्ध एकजुट हो गये। इसके साथ ही हैदराबाद के भारत में विलय के लिए भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट जनरल राजेंद्र सिंहजी और मेजर जनरल जयंतो नाथ चौधरी को प्रमुख अफसरों के तौर पर नियुक्त किया गया। चूंकि हैदराबाद में देशभर के मुक़ाबले सबसे ज़्यादा पोलो ग्राउंड मौजूद थे, इसलिए इस सैन्य कार्रवाई का नाम ‘ऑपरेशन पोलो’ रखा गया।
#OnThisDay in the year 1948, under direct intervention from then Deputy Prime Minister of India Sardar Vallabhbhai Patel, #OperationPolo commenced to integrate the state of Hyderabad into the Indian Union.#HistoryWithAIR pic.twitter.com/JitvmceT21
— Akashvani आकाशवाणी (@AkashvaniAIR) September 13, 2019
ऑपरेशन पोलो के अंतर्गत सैन्य कार्रवाई 13 सितंबर 1948 को प्रारम्भ हुई। शुरुआत में भारतीय सेना को कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, परंतु भारतीय सेना ने रजाकारों को दुम दबाकर भागने पर विवश कर दिया। अंतत: 17 सितंबर 1948 की शाम 5 बजे निज़ाम ने सीजफायर की घोषणा की। मेजर जनरल जयंतो नाथ चौधुरी ने हैदराबाद के कमांडर-इन-चीफ़ जनरल सैय्यद अहमद अल-इदरोस से उनका समर्पण स्वीकार किया और हैदराबाद का आधिकारिक रूप से भारत में विलय हो गया। इस युद्ध में 2000 से ज़्यादा रज़ाकार मारे गए, जबकि 800 से ज़्यादा हैदराबाद के शाही सेना के लड़ाके युद्ध में मारे गए। दुर्भाग्यवश भारतीय सेना के 32 योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए।
हालांकि, इस विजय में हमारे देश का एक स्याह पहलू भी उजागर हुआ। ऑपरेशन पोलो उस समय भारत के प्रधानमंत्री रहे जवाहर लाल नेहरू ने ‘धर्मनिरपेक्ष’ सुंदरलाल कमेटी बनाई और इसे घटना के पीछे की समस्त वास्तविकता पर रिपोर्ट बनाने का आदेश दिया। परंतु इस कमेटी रिपोर्ट में घटना की वास्तविकता के बारे में कम, और ऑपरेशन पोलो के पहले की पूरी हिंसा का दोष गैर मुस्लिमों और भारतीय सेना पर मढ़ने का काम किया गया। इसके अलावा जिस कासिम रिजवी को जीवन भर के लिए कारावास की सज़ा दी गयी थी, उसे सरदार पटेल की मृत्यु होने के कुछ ही वर्षों में छोड़ दिया गया, और बड़े ही प्रेम से पाकिस्तान भेज दिया गया, जहां कासिम रिजवी की मृत्यु 1955 में हुई।
आज ऑपरेशन पोलो को हुए 72 वर्ष हो चुके हैं। ये किसी धर्मयुद्ध से कम नहीं था क्योंकि इसका प्रमुख उद्देश्य रजाकार जैसे अधर्मियों का नाश कर भारत में हैदराबाद का विलय करना था। इसके लिए हम आजीवन सरदार पटेल और भारतीय सैनिकों के ऋणी रहेंगे। हालांकि, सरदार पटेल का ये अभूतपूर्व योगदान भारत के इतिहास के पन्नों में कहीं खो गया। परन्तु भारत के प्रथम उप प्रधानमन्त्री तथा प्रथम गृहमन्त्री वल्लभभाई पटेल के इस योगदान को दुनिया के समक्ष रखने के लिए आज स्टैचू ऑफ यूनिटी को बनाया गया जो उस बड़े दिग्गज के योगदान को दर्शाता है जिनकी वजह से आज भारत एकजुट है।