मौलाना आज़ाद का वास्तविक चेहरा
वर्ष 2019, “खिलाफत आंदोलन” का शताब्दी वर्ष, खिलाफतवादियों ने 17 अक्टूबर, 1919 को ‘खिलाफत दिवस’ मनाया था। इस “खिलाफत आंदोलन” के दौरान खिलाफत आंदोलन की एक पैन इस्लामिक, राजनीतिक विरोध अभियान था। जब भारत में खिलाफत आंदोलन की शुरुआत हुई थी तब उस समय मुस्लिमों में भारी आकुलता थी। पहला विश्वयुद्ध खत्म हो गया तो उसके बाद अलग-अलग साम्राज्यों पर शासन करने की होड़ मच गई। इस दौरान जर्मनी के साथ-साथ तुर्की को भी पराजय का सामना करना पड़ा था। इसके साथ ही ब्रिटेन एवं तुर्की के बीच होने वाली सीवर्स की संधि से तुर्की के सुल्तान (खलीफा) के पूरे अधिकार छीन लिए गए थे और इस तरह से तुर्की का आस्तित्व खतरे में आ गया।
जिसका मुख्य कारण केन्द्रीय इस्लामी खिलाफत से मुसलमानों का गहरा संबंध, भावनात्मक लगाव और गहरा प्रेम था। इसलिए खिलाफत आंदोलन को इस्लाम की रूह और मजहब की बुनियाद माना जाता है। आंदोलन द्वारा अंग्रेजों के सामने खलीफा के प्रभुत्व को दोबारा स्थापित करने और खलीफा को ज्यादा भू-क्षेत्र देने की मांग रखी गई। उन्होंने खलीफा की रक्षा के लिए 1920 में खिलाफत घोषणा पत्र का भी प्रकाशन किया। वर्ष 1919 में मोहम्मद अली और शौकत अली (अली बंधुओं के नाम से प्रसिद्ध), मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, हसरत मोहानी व कुछ अन्य के नेतृत्व में तुर्की के साथ हुए अन्याय के विरोध में खिलाफत आन्दोलन चलाया गया। इस आंदोलन को महात्मा गांधी की पहली भूल भी मानी जाती है जिसने देश को विभाजन के रास्ते पर मोड़ दिया था। महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन में मुस्लिमों का समर्थन लेने के लिए खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया था।
खिलाफत आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले मौलाना आज़ाद को भारत में एक महान स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षाविद माना जाता है। कांग्रेस ने उन्हें देश का पहला शिक्षा मंत्री तक बना दिया था। लेकिन हाथी के दाँत खाने के अलग और दिखाने के अलग होते हैं। दिखने वाले दाँत की मांग भी ज्यादा होती है। यही हाल मौलाना आज़ाद की भी थी।
आज भी उनके भाषणों को सेक्युलरिज्म पर ज्ञान देने के लिए याद किया जाता है। लेकिन यह वास्तविक सच्चाई से कोसों दूर है। उनके बारे में जानने के लिए मौलाना आज़ाद की उर्दू में लिखी किताब ‘खुत्बात-ए-आज़ाद’ को पढ़ना चाहिए। इस किताब के अनुसार 27 अक्टूबर, 1914 को, कोलकाता में एक बड़ी मुस्लिम सभा को संबोधित करते हुए, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, ने बताया था कि जिहादी बेटे और उसके परिवार के सदस्यों के बीच क्या संबंध होना चाहिए।
उन्होंने कहा था, “यह बिरादरी (मुसलमानों का समुदाय) अल्लाह द्वारा स्थापित की गई है… दुनिया में सभी रिश्ते टूट सकते हैं लेकिन इस रिश्ते को कभी भी खत्म नहीं किया जा सकता है। यह संभव है कि एक पिता अपने बेटे के खिलाफ हो जाए, यह असंभव नहीं कि एक माँ अपने बच्चे को अपनी गोद से अलग कर दे, यह संभव है कि एक भाई दूसरे भाई का दुश्मन बन जाए…लेकिन एक चीनी मुस्लिम के साथ एक अफ्रीकी मुस्लिम का रिश्ता इस पृथ्वी की कोई भी ताकत नहीं तोड़ सकती है। यही रिश्ता भारत के मुस्लिमों को मक्का के वंशज कुरैशी के साथ जोड़ता है।”
इस बयान से यह समझा जा सकता है कि उनके नज़र में एक माँ से बच्चे के रिश्ते से ज्यादा महत्वपूर्ण कौम का रिश्ता था। यह भाषण उन्होंने उस समय दिया था जब विश्व में इस्लाम बढ़ चरम पर था और भारत से भी खिलाफत आंदोलन के लिए मुस्लिम तुर्की की ओर प्रस्थान कर रहे थे। इससे स्पष्ट समझा जा सकता है कि उनका मकसद भारत के मुसलमानों को तुर्की के मुसलमानों की मदद के लिए भेजना था जिनसे भारतीयों का वास्तव में कोई लेना देने ही नहीं था।
आगे मौलाना आज़ाद ने कहा था, “यदि इस्लाम की आत्मा जीवित है, तो मुझे यह कहना चाहिए कि यदि तुर्की में हो रहे युद्ध के मैदान किसी मुस्लिम के गले में कांटा फंस जाता है तो, तो मैं अल्लाह की कसम खा कर कहता हूं, जब तक वह उस कांटे हो अपने गले में महसूस नहीं करता तब तक वह सच्चा मुसलमान नहीं है। क्योंकि मिलत-ए-इस्लाम (वैश्विक मुस्लिम समुदाय) एक एकल निकाय है।”
आगे उन्होंने पैगंबर मोहम्मद की बातें बताते हुए कहा, “एक मोमीन के साथ दूसरा मोमीन ठीक वैसे ही है जैसे दीवार में एक ईंट दूसरे ईंट के बगल में होता है।”
तब मौलाना आज़ाद ने कुरान से अल-फ़तह के आयत 29 का हवाला देते हुए कहा, ” आप लोग काफ़िरों के खिलाफ अत्यंत कठोर रहे लेकिन अपने लोगों के लिए अत्यंत सहानुभूतिपूर्ण और दयालु।” यह आयात मुसलमानों को अपने लोगों के बीच दोस्ती रखने और कफ़िरों (काफिरों) के खिलाफ सख्त होने की बात करता है।
उन्होंने यूरोप पर इस्लाम को बदनाम करने का भी आरोप लगाया था और कहा था, “अगर यह सच है कि इस्लाम खत्म करने के लिए तलवार को तेज किया जा रहा है, तो हम किस झिझक से ढाल बनाने में लगे हैं।”
उन्होंने “मुस्लिम विश्वविद्यालय” की आवश्यकता के बारे में बोलते हुए कहा था, “सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें अलीगढ़ में एक विश्वविद्यालय का निर्माण करना है, इसके लिए 30 लाख रुपये एकत्र करने हैं, यह “अलीगढ़ के काबा” के रूप में काम करेगा। जिस दिन विश्वविद्यालय स्थापित हो जाएगा उस दिन अल्लाह खुद स्ट्रैची हॉल की छत पर उतरेंगे। यह दिन कौम के लिए, अल्लाह के लिए सबसे जरूरी दिन होगा। आयत 5: 3 में भी अल्लाह कहतें हैं “ऐसा दिन मेरे लिए और मेरे कौम के पूर्ण है।‘’
इस्लामवादी आतंकी संगठनों के लिए भर्ती करने वाले मौलनाओं के भाषण से यह भाषण कितना अलग है? मोहम्मद अली जिन्ना और एचएस सुहरावर्दी द्वारा तीन दशक बाद एक ही शहर में direct action day पर दिये गए भाषणों से यह कितना अलग है? यह भाषण एक दृष्टिकोण से तैयार किया गया था। ऐसे भाषणों के बाद ही भारत से 18,000 से अधिक मुसलमान अंग्रेजों के खिलाफ जिहाद लड़ने तुर्की गए थे। इस खिलाफत आंदोलन की सच्चाई के बारे में डॉ. आंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ (1940) में लिखा, ‘सच्चाई यह है कि असहयोग आंदोलन का उद्गम खिलाफत आंदोलन से हुआ, न कि स्वराज्य के लिए कांग्रेसी आंदोलन से। खिलाफतवादियों ने तुर्की की सहायता के लिए इसे शुरू किया और कांग्रेस ने उसे खिलाफतवादियों की सहायता के लिए अपनाया। उसका मूल उद्देश्य स्वराज्य नहीं, बल्कि खिलाफत था और स्वराज्य का गौण उद्देश्य बनाकर उससे (बाद में) जोड़ दिया गया था, ताकि हिंदू भी उसमें भाग लें।’
हालांकि यह भी एक तथ्य यह है कि मौलाना आज़ाद अहिंसक सविनय अवज्ञा के दौरान गांधी के विचारों के समर्थक बन गए, और 1919 रौलट एक्ट के विरोध में असहयोग आंदोलन को संगठित करने का काम किया। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि वह खिलाफत आंदोलन (1919-22) के नेता के रूप में उभरे थे, जिसका उद्देश्य ओटोमन साम्राज्य और खलीफा को बहाल करना था।
एक तरफ तो मौलाना आज़ाद हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात करते थे तो वहीं दूसरी तरफ वह एक सैद्धांतिक रूप से इस्लामिस्ट थे। ये वही खिलाफत आंदोलन था जो तुरंत हिन्दू विरोधी बन गया जिसकी सबसे भयावहता मालाबार में देखी गई थी जहां 10,000 से अधिक हिंदुओं को मोपलाओं ने मौत के घाट उतार दिया था।
स्टैनले वोलपार्ट ने अपनी पुस्तक ‘जिन्ना ऑफ पाकिस्तान’ (1984) में लिखा है कि खिलाफत के खात्मे पर पूरे भारत में जहां-तहां मुसलमानों ने हिंदुओं पर गुस्सा उतारा। हत्या, दुष्कर्म, जबरन धर्मांतरण, अंग-भंग और क्रूर अत्याचार किए। पूरे खिलाफत आंदोलन के दौर की परख करने पर आश्चर्य होता है कि गांधी जी के अहिंसा संबंधी दोहरेपन तथा खिलाफत आंदोलन की किस बड़े पैमाने पर लीपा-पोती हुई है। उस आंदोलन के दुष्परिणामों से देश आज तक पूरी तरह नहीं उबर सका है।
यह हैरानी की बात नहीं है कि इस्लाम के प्रकाण्ड पंडित मौलाना अबुल कलाम आज़ाद भी तुर्की की खलीफाशाही के प्रति निष्ठावान थे। उनके विचार में यह अंतर्राष्ट्रीय इस्लाम के हित में था। उन्होंने यह भी कहा था, “दारूल इस्लाम के क्षेत्रों पर जिन लोगों ने अधिकार कर लिया है, उनके विरुद्ध ‘जिहाद’ करना मुसलमानों का मजहबी दायित्य है।”
मौलाना आज़ाद ने कहा था कि “विश्वास और कुफ़्र (गैर-विश्वास) के बीच भेदभाव” का समय आ गया है” और उन्होंने कुरान की आयत 2:14 का हवाला दिया: “मुनाफिकीन (पाखंडियों के बीच) मुसलमान, जब वे मुसलमानों से मिलते हैं तो वे कहते हैं, हम मुसलमान हैं। लेकिन जब वे गैर-मुस्लिम से मिलते हैं, तो वे कहते हैं, हम दिल से आपके साथ हैं … ”
यह सोचने वाली बात है कि “जिहाद” का एक खुला समर्थन करने वाला व्यक्ति भारत का पहला शिक्षा मंत्री था। इन भाषणों को पढ़ कर आप उस क्षति का सिर्फ अंदाजा लगा सकते हैं जो उन्होंने अपने शिक्षा मंत्री के कार्यकाल के दौरान भारत और भारत की शिक्षा प्रणाली को दी होगी।