महाराष्ट्र चुनाव के लिए मंगलवार को भारतीय जनता पार्टी ने अपना घोषणापत्र जारी किया। इस घोषणापत्र में कई वादे किए गए, लेकिन इनमें से ही एक था वीर सावरकर को भारत रत्न देने की मांग करना। अब इसी मुद्दे पर राजनीतिक बवाल बढ़ गया है। भाजपा के इस वादे का सार्वजनिक होते ही देश के बुद्धिजीवी और सेक्युलर नेताओं का एक समूह बिलबिला पड़ा है, और इस फैसले पर वे छाती पीटना शुरू कर दिए हैं। कांग्रेस से लेकर कम्यूनिस्ट पार्टी तक सुर में सुर मिलाते हुए भाजपा को कोस रहे हैं। एक ओर मनीष तिवारी ने सावरकर को गांधी की हत्या का दोषी सिद्ध करने का असफल प्रयास किया, तो दूसरी ओर असदुद्दीन ओवैसी ने वीर सावरकर के बारे में भ्रामक तथ्य फैलाना शुरू कर दिया।
परंतु क्या ये शुरू से इनकी नीति रही है? ऐसा बिलकुल नहीं है। यदि इतिहास के पन्ने पलटकर देखें तो पता चलता है कि वामपंथी वर्ग से ज़्यादा हिपोक्रेट और वामपंथी वर्ग से ज़्यादा दोमुंहा कोई वर्ग नहीं होगा। कभी सावरकर के लिए जिस पार्टी को डाक टिकट जारी में कोई आपत्ति नहीं हुई, जिस वर्ग के विचारकों को सावरकर का सकारात्मक चित्रण करने में कोई समस्या नहीं थी, वो अचानक से इतना सावरकर विरोधी कैसे हो गया?
यदि आपको विश्वास नहीं होता, तो इन तथ्यों पर गौर करें। भले ही नेहरू सावरकर के व्यक्तित्व से जलते थे, परंतु प्रधानमंत्री होकर भी वे सावरकर के विरुद्ध जनता में एक नकारात्मक छवि नहीं बना पाये, क्योंकि सरदार पटेल सहित काँग्रेस में कई ऐसे राष्ट्रवादी नेता थे, जो सावरकर की विचारधारा का समर्थन न करने के बाद भी उनकी देशभक्ति पर लेशमात्र भी संदेह नहीं करते थे। 1964 में जब नेहरू की मृत्यु हुई, तो प्रधानमंत्री बनने के बाद लाल बहादुर शास्त्री जी ने विनायक दामोदर सावरकर को अन्य स्वतन्त्रता सेनानियों की भांति मासिक पेंशन देना प्रारम्भ किया।
यही नहीं, इन्दिरा गांधी ने भी सावरकर को हेय की दृष्टि से नहीं देखा, और उनके सम्मान में 1970 में अपने शासनकाल में ही डाक टिकट जारी किए। इसी क्रम में जब 1980 से ही सावरकर के अनुयायी 1983 में होने वाले उनके जन्मशताब्दी के लिए तैयारियां करने लगे, तो इन्दिरा गांधी ने स्वयं उन्हें शुभकामनाएँ भेजी और इस निर्णय के लिए आयोजकों की प्रशंसा भी की। यही नहीं, उन्हें सावरकर के स्मारक फंड हेतु स्वयं 11000 रुपये का दान किया।
इसके अलावा प्रचलित इतिहासकारों ने भी प्रारम्भ में विनायक दामोदर सावरकर का नकारात्मक चित्रण नहीं किया। प्रचलित वामपंथी इतिहासकार बिपिन चन्द्रा ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘इंडियाज़ स्ट्रगल फॉर इंडिपेंडेंस’ में सावरकर का सीमित, परंतु सकारात्मक उल्लेख किया था। यदि हम विपक्ष की तर्कों के अनुसार चलें, तो क्या इन्दिरा गांधी, लाल बहादुर शास्त्री और बिपिन चंद्रा जैसे लोगों ने सावरकर के साथ सकारात्मक व्यवहार करके देशद्रोह किया।
ऐसे में अब ये प्रश्न उठता है कि– इस सकारात्मक सोच में बदलाव कब हुआ? यह शायद 1990 से प्रारम्भ हुआ, जब देश बदलाव के दौर से गुज़र रहा था और देश भर में भाजपा और हिन्दुत्व की विचारधारा का उदय हो रहा था। अपनी सत्ता हाथों से फिसलती देख काँग्रेस और लेफ्ट लिबरल बुद्धिजीवियों के वर्ग ने नेहरू का मार्ग अपनाते हुये सावरकर को फिर से विलेन बना दिया।
इसके सबसे पहले संकेत दिखे 2003 में, जब संसद के केन्द्रीय भवन में तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष मनोहर जोशी ने सावरकर का चित्र स्थापित करवाया। सोनिया गांधी के नेतृत्व में काँग्रेस और सीपीआई[एम] ने विरोध करने का प्रयास किया, परंतु कई वरिष्ठ काँग्रेस नेताओं ने इस विरोध प्रदर्शन में शामिल होने से मना कर दिया, जिसमें पूर्व गृहमंत्री शिवराज पाटिल भी शामिल थे। बाद में सोनिया गांधी ने शिवराज पाटिल के प्रति नाराजगी भी जाहिर की।
इसके अलावा 2004 में सेलुलर जेल के दौरे के के वक्त तत्कालीन पंचायती राज मंत्री एवं पूर्वोत्तर विकास मंत्री मणिशंकर अय्यर ने कहा था, “सावरकर और मुहम्मद अली जिन्ना में कोई अंतर नहीं है, क्योंकि दोनों की नीतियाँ विभाजनकारी थीं”। यही नहीं, उन्होंने यह भी कहा कि जेल में स्थित सावरकर की कविता वाला स्मारक प्लाक हटकर गांधी के कथनों वाला प्लाक स्थापित किया जाये, जिसका शिवसेना ने पुरजोर विरोध किया। आग में घी डालते हुये पार्टी प्रवक्ता आनंद शर्मा ने ये कहा कि काँग्रेस पार्टी सावरकर को न स्वतन्त्रता सेनानी मानती है और न ही देशभक्त। हालांकि इस बयान से बाद में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने किनारा कर लिया था।
काँग्रेस आज भी वीर सावरकर का विरोध करती है, और राहुल गांधी तो उनके लिए ऐसे ऐसे बयान देते आए हैं, जिसके कारण उन्हें कोर्ट के चक्कर भी काटने पड़ रहे हैं। ऐसे में ऐतिहासिक तथ्यों को देखते हुये काँग्रेस और वामपंथी वर्ग का व्यवहार और कुछ नहीं केवल छलावा है, जो उन्हे राजनीतिक हाशिये की ओर और ढकेलता चला जा रहा है। यदि ये अब भी नहीं चेते, तो वह दिन दूर नहीं, जब काँग्रेस मात्र इतिहास बनकर रह जाएगी।