बिहाऱ आज कल फिर से चर्चा में है। कारण है भारी बारिश और बाढ़। वैसे तो बाढ़ बिहाऱ की पहचान है लेकिन इस बार बाढ़ अपने रौद्र रूप में है तथा पटना के रिहायशी इलाकों तक पहुँच चुका है। इस बाढ़ ने सुशासन बाबू के उप-मुख्यमंत्री सुशील मोदी को भी घर से बाहर आने पर मजबूर कर दिया। अब तक पूरे बिहार में बाढ़ के कारण कुल 73 मौतें हो चुकी हैं लेकिन किसी को भी सुध नहीं है। साथ ही राज्य की economy, infrastructure का भी नुकसान भारी मात्र में हुआ है। लेकिन फिर भी मीडिया ने जिस प्रकार से बिहाऱ के इस बाढ़ का कवरेज किया उससे बिहार के प्रति हीन भावना स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। न ही इस बाढ़ की चर्चा नेशनल मीडिया कही जाने वाली टीवी और समाचार पत्र कर रहे हैं और न ही सोशल मीडिया।
द प्रिंट नाम की वेब पोर्टल इस तरह की मीडिया कवरेज का एनालिसिस प्रत्येक दिन करता है। English और हिन्दी टीवी मीडिया के न्यूज़ पैटर्न को देखे तो यह समझ में आता है कि बिहार का बाढ़ किसी के लिए महत्वपूर्ण मुद्दा था ही नहीं। साथ ही इसे अंग्रेजी समाचार पत्रों ने भी अहमियत नहीं दी। बिहार में आया बाढ़ कोई संपादकीय मुद्दा नहीं है जहां कुछ expert अपनी राय से ही विश्व की सभी समस्या सुलझा देते हैं।
हालांकि हिन्दी समाचार पत्रों जिनकी बिहार की जनता में अधिक पहुँच है, उन्होंने इसे कवरेज तो दी लेकिन फिर भी इसे पहले पन्ने का मुद्दा नहीं बनाया।
बिहार के साथ मीडिया के इस सौतेले व्यवहार की निंदा भी हुई, लेकिन निंदा से मीडिया द्वारा की गयी कवरेज नहीं बढ़ने वाली।रचनात्मक आलोचना के लिए हमें मीडिया में बिहार के प्रति इस उदासीनता का कारण ढूँढना होगा। सभी समस्याओं की तरह इस समस्या का भी जड़ मास मीडिया की इकॉनमी या अर्थव्यवस्था ही है।
मास मीडिया भी पूरी तरह से Corporatized है तथा किसी अन्य क्षेत्र की कंपनी की तरह ही अपना प्रॉफिट या लाभ देखती है। मीडिया कंपनियों के लिए आय का प्राथमिक स्रोत विज्ञापन है। दूसरे क्षेत्र की कंपनियां अपने उत्पादों को उपभोक्ताओं तक पहुंचाने के लिए विज्ञापन करती हैं और इस विज्ञापन को आम जनमानस तक पहुंचने के लिए सबसे प्राथमिक माध्यम है मीडिया। जो कंपनियां मीडिया में विज्ञापन कराती हैं, उनका लक्ष्य अधिक खरीद करने वाले उपभोक्ता ही होते हैं। बिहार के प्रति मीडिया की उदासीनता का कारण भी यही है क्योंकि बिहार भारत के पिछड़े व गरीब राज्यों में से एक है। वित्तीय वर्ष 2018 में बिहार का प्रति व्यक्ति औसत आय यानि par capita income 43,822 रुपये हैं। अगर हम इसकी तुलना महाराष्ट्र से करें तो इसी वित्तीय वर्ष महाराष्ट्र में प्रति व्यक्ति औसत आय 1,80,596 रुपया है। इस हिसाब से महाराष्ट्र में एक औसत उपभोक्ता बिहार के उपभोक्ता से 4 गुना ज्यादा धनी है। स्पष्ट है विज्ञापन देने वाली कंपनी महाराष्ट्र को दिखाने वाली मीडिया को ज्यादा विज्ञापन देगी ना की बिहार को दिखाने वाली मीडिया को। और यही प्राथमिक कारण है कि मुंबई के बाढ़ को पटना या गुवाहाटी के बाढ़ की तुलना में अधिक कवरेज मिलता है।
एक तरफ विज्ञापन करने वाली कंपनी अधिक ख़रीदारी करने वाले उपभोक्ता को target करते हैं इसलिए मीडिया कंपनी उन्हीं राज्यों को ज्यादा कवर करती हैं जहां के उपभोगता अधिक अमीर हैं। और यह cycle लगातार चलता रहता है जिसका खामियाजा गरीब जनता और पिछड़े राज्यों को भुगतना पड़ता है।
बिहार स्वतन्त्रता के बाद से आज तक सबसे गरीब राज्यों में से एक है। स्वतन्त्रता के बाद से ही बिहार के पास एक तरफ गंगा नदी के क्षेत्र में आने वाला उपजाऊ मैदान था तो वहीं दूसरी तरफ खनिज से भरा वनानंचल, जो आज झारखंड के नाम से भी जाना जाता है। इन प्रकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण रहने के कारण बिहार के पास एक Mixed Economy बनने की क्षमता थी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। स्वतन्त्रता के बाद भारत सरकार की Freight Equalisation Policy (फ्रेट इक्विलाइजेशन पॉलिसी) के कारण भी बिहार जैसे खनिज से परिपूर्ण राज्य को ही नुकसान हुआ जिसके तहत भारत में कहीं भी एक कारखाना स्थापित किए जाने और खनिजों के परिवहन पर केंद्र सरकार द्वारा सब्सिडी प्रदान किए जाने का प्रावधान था। यह नीति 1952 में लागू किया गया था जो कि 1993 तक जारी रहा। इसने बिहार जैसे राज्यों में उत्पादन सुविधाओं को स्थापित करने के लिए निजी पूंजी के प्रोत्साहन को ही कमजोर कर दिया था।
एक अच्छे नेता या policy maker को किसी राज्य को विकसित करने के लिए कम से कम 10-15 वर्ष काफी होता है। बिहार में भी लगातार पहले लालू यादव का शासन रहा फिर अब नितीश कुमार का, दोनों ने ही लगभग 15 वर्षों तक शासन किया लेकिन बिहार आज भी पिछड़ा राज्य है। अगर हम बिहार की राजनीति पर एक नज़र डालें तो यह समझ में आता है कि आज के सभी समकालीन नेता जैसे लालू यादव, शरद यादव, नीतीश कुमार और सुशील मोदी, सभी ने अपनी राजनीतिक शिक्षा ‘लोकनायक’ कहे जाने वाले मशहूर समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण से ही ली है। इन्हीं कारणों से आज भी बिहार की economy समाजवाद पर ही आधारित रहा।
इसी वजह से पिछले पाँच दशकों में, उन्होंने ‘धन के वितरण’ और सार्वजनिक सेवाओं को ज्यादा प्रोत्साहित किया वहीं धन के ’सृजन’ करने वाले क्षेत्रों जैसे इंडस्ट्री और प्राइवेट कंपनियों को नजरअंदाज कर दिया।
बिहार के इन समाजवादी नेताओं ने केंद्र सरकार और दूसरे राज्य में काम करने वाले कामगारों द्वारा भेजे गए रुपयों से बुनियादी ढांचा, औद्योगिक विकास में खर्च करने और सेवा कंपनियों को आकर्षित करने के बजाय गरीबों में मुफ्त की चीज़ें बांट दिया।
उदाहरण के लिए वित्तीय वर्ष 2019 में बिहार को केंद्र सरकार से 1,81,255 करोड़ रुपये मिले लेकिन बिहार सरकार ने 31,002 रुपये ही अपने करदाताओं से प्राप्त हुए। बिहार में दो चौथाई हिस्सा तो केंद्र द्वारा दिया जाता है। वहीं दूसरी तरफ दूसरे राज्यों की बात करें तो महाराष्ट्र कुल राजस्व का लगभग आधा हिस्सा स्वयं उत्पन्न करता है। यहाँ तक कि उत्तर प्रदेश भी स्वयं लगभग 25 प्रतिशत राजस्व उत्पन्न करता है।
बिहार में गरीबी रेखा के नीचे सबसे अधिक आबादी रहती है। वर्ष 2013 में भारतीय औसत के 21.92 की तुलना में बिहार की 33.74 प्रतिशत जनसंख्या ‘गरीबी रेखा’ से नीचे की थी। इसका मतलब यह है कि लगभग एक तिहाई बिहार की आबादी अभी भी भारतीय औसत की तुलना में गरीबी रेखा से नीचे जीवन व्यतीत कर रहे हैं। राज्य में अधिकांश आबादी अभी भी कृषि पर निर्भर है। उद्योग और सर्विस सेक्टर की कंपनियां ‘कानून और व्यवस्था’ की समस्याओं और राज्य सरकार के ढुलमुल रवैये के कारण राज्य को पसंद नहीं करती हैं।
इससे स्पष्ट हो गया है कि जलमग्न हो चुके बिहार पर मीडिया क्यों इतनी उदासीनता दिखा रही है। इसका सिर्फ एक ही कारण है और वह है बिहार की गरीबी। समस्या केवल बिहार तक सीमित नहीं है; अन्य पिछड़े राज्यों में आने वाली आपदाओं को भी बहुत सीमित कवरेज ही प्राप्त होता है।