भारत में बुद्धिजीवियों के बीच एक मुद्दा हमेशा से चर्चा के केंद्र में रहा है और वह हमेशा ही रहेगा। वह विषय है राष्ट्रवाद की। सभी अपनी-अपनी समझ से इस शब्द की परिभाषा देते हैं और इसे लागू करने की कोशिश करते है। जिस तरह से पाश्चात्य संस्कृति के बारे में हमारे पाठ्यपुस्तकों में पढ़ाया जाता है उससे इस देश के अधिकतर बुद्धिजीवी, किसी भी विचार या वस्तु की तुलना पाश्चात्य देशों में होने वाली घटनाओं को आधार और सर्वोपरी मानकर करते हैं। यही हाल राष्ट्रवाद के लिए भी होता आया है। लेकिन हाल ही में फ्रेंच अखबार ले मोंडे को दिये इंटरव्यू में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने सभी राष्ट्रवाद को समझने और उस पर ज्ञान देने वालों को स्पष्ट बता दिया है कि भारत का राष्ट्रवाद पश्चिमी राष्ट्रवाद से बिलकुल अलग है।
उन्होंने कहा कि भारत में राष्ट्रवाद एक सकारात्मक शब्द है। उन्होंने बताया कि प्रत्येक देश की एक अलग इतिहास होती है और उसी के संदर्भ में राष्ट्रवाद की समझ भी अलग होती है। उन्होंने अमेरिका का उदाहरण देते हुए कहा, “संयुक्त राज्य अमेरिका में, राष्ट्रवाद का एक अलगाववादी अर्थ है। और एशिया में, खासकर भारत में, राष्ट्रवाद एक सकारात्मक शब्द है।” उन्होंने आगे कहा, “भारत में राष्ट्रवादी उपनिवेशवाद और पश्चिम के वर्चस्व के खिलाफ खड़े हुए थे। अभी भी अपनी सांस्कृतिक पहचान की बहाली के साथ बहुत कुछ किया जाना बाकी है। तो हाँ, हमारे देश में राष्ट्रवाद की भावना है।
एस जयशंकर ने कहा कि भारत में एक अच्छा राष्ट्रवादी ही एक अंतर्राष्ट्रवादी बन सकता है और यह बिल्कुल भी विरोधाभाषी नहीं है। उन्होंने पश्चिमी देशों पर कटाक्ष करते हुए कहा कि यह आप लोगों की दिक्कत है कि आप अपने कॉन्सेप्ट हमारे ऊपर लागू करते हैं। जब उनसे यह पूछा गया कि क्या यह राष्ट्रवाद भारत के मुस्लिम समुदायों में तनाव पैदा करता है तो इसपर उन्होंने करारा जवाब देते हुए कहा कि नहीं मेरा देश मेरी राष्ट्रियता को परिभाषित करती है न कि मेरा धर्म या मेरी जाती और न ही मेरी भाषा।
पूर्व विदेश सचिव रह चुके एस जयशंकर ने भारत के राष्ट्रवाद को पश्चिम के राष्ट्रवाद से अलग बताते हुए कहा कि आपके यहाँ भाषा, धर्म और राष्ट्रवाद में गहरा नाता है जबकि भारत में ऐसा कुछ नहीं है। हमारे देश में राष्ट्र की परिभाषा ही अलग है। भारत में एक ऐसी सभ्यता है जो भाषाई, जातीय और धार्मिक विविधता के साथ राष्ट्र का निर्माण करती। हमने कभी भी एकरूपता को आवश्यकता या आकांक्षा नहीं माना है। उन्होंने पश्चिमी देशों के बुद्धिजीवियों पर कहा कि “आप (पश्चिम) हमें अपने प्रिज्म के माध्यम से देखते हैं, आप हमारे लिए एक ऐसा व्यवहार तय कर देते हैं जो आप स्वयं अभ्यास करते हैं। लेकिन हम आप नहीं हैं!”
भारत की राजनीति में आम लोगों की बढ़ती भागीदारी के बारे में उन्होंने कहा की आज भारत की राजनीति पहले की तुलना में कम पश्चिमी है और कम अभिजात्य है। हम वास्तव में उस भारत की ओर बढ़ रहे है जो भारतीय संस्कृति में निहित है। ये अच्छी बात है। पश्चिमी दुनिया इसे राष्ट्रवाद के रूप में देखती है, लेकिन ऐसा नहीं है।
सदियों से यही धारणा है कि राष्ट्रवाद पश्चिम की देन है और सबसे व्यापक है। जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है। जो राष्ट्रवाद पश्चिम द्वारा दी गयी है वह पूरी तरह से औपनिवेशिक विचारधारा के इर्द-गिर्द केंद्रित है, और उपनिवेशवादियों पर आधारित है जो हर किसी पर प्रभुत्व रखने का सपना देखते हैं। यह बहिष्करणवादी नस्लवादी और सर्वोच्चतावादी का उल्लेख नहीं करना। पश्चिमी राष्ट्रवाद खोखला है और विविध लोगों और विचारधाराओं के लिए कोई जगह नहीं है। उग्र पश्चिमी राष्ट्रवादियों ने दैनिक आधार पर अभद्र भाषा का प्रयोग किया। राष्ट्रवाद के प्रतिपादक जॉन गॉटफ्रेड हर्डर थे, जिन्होंने 18वीं सदी में पहली बार इस शब्द का प्रयोग करके जर्मन राष्ट्रवाद की नींव डाली। उस समय यह सिद्धान्त दिया गया कि राष्ट्र केवल समान भाषा, नस्ल, धर्म या क्षेत्र से बनता है। पश्चिमी राष्ट्रवाद बड़े-बड़े साम्राज्यों के पतन में भी सहभागी रहा है। यूरोप में बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में ऑस्ट्रियाई-हंगेरियाई और रूसी साम्राज्य तथा इनके साथ एशिया और अफ्रीका में ब्रिटिश, फ्रांसीसी, डच और पुर्तगाली साम्राज्यों के विघटन के मूल में राष्ट्रवाद ही था।
लेकिन भारत में राष्ट्रवाद की भावना सदियों नहीं बल्कि युगों से है। वस्तुतः भारत की राष्ट्रीय चेतना वेदकाल से अस्तित्वमान है। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में धरती माता का यशोगान किया गया है। माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः यानि भूमि माता है और मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ। विष्णुपुराण में तो राष्ट्र के प्रति का श्रद्धाभाव अपने चरमोत्कर्ष पर दिखाई देता है। इस में भारत का यशोगान ‘पृथ्वी पर स्वर्ग’ के रूप में किया गया है। रामायण में रावणवध के पश्चात राम, लक्ष्मण से कहते हैं-
अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते । जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥ अर्थात हे लक्ष्मण! यद्यपि यह लंका स्वर्णमयी है, तथापि मुझे इसमें रुचि नहीं है। (क्योंकि) जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान हैं।
लेकिन मध्यकाल और पश्चिमी देशों के आक्रमण से देश में कुछ निरर्थक परिवर्तन हुए। अंग्रेजों ने अपनी भाषा और अपनी संस्कृति थोपने के लिए कई हथकंडे अपनाए जिसमें वे सफल भी रहे थे। भारत में भी पश्चिमी देशों जैसा अभिजात्यवर्ग की प्रथा शुरू हो गयी और यह कांग्रेस की नेतृत्व वाली सरकार तक चलती रही। लेकिन अब भारतवासी पश्चिमी चोला उतार कर फिर से अपनी संस्कृति और वैदिक जड़ों की ओर लौट रहे हैं। इसी परिवर्तन को विदेश मंत्री ने कटु शब्दों के माध्यम से स्पष्ट किया है। अब पश्चिमी देशों को समझना चाहिए कि जिस चश्मे से वे भारत को देखते हैं अब ना देखें और अपने नजरिए को बदलें।