महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद से शिवसेना अपने अजीबोगरीब फैसलों से आए दिन ड्रामेबाजी कर रही है। पहले तो शिवसेना ने 50-50 का बेतुका फॉर्मूला सुझाया, और फिर अपने ही राजनीतिक प्रतिद्वंदियों के साथ हाथ मिलाते हुए सरकार बनाने का प्रयास किया। लेकिन बात बनती नहीं दिख रही है। अब उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है, क्योंकि महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोशयारी ने सरकार न बन पाने की स्थिति में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया। सुप्रीम कोर्ट में दायर अपने पेटीशन में पार्टी ने राज्यपाल के निर्णय को ‘असंवैधानिक, अनुचित एवं दुर्भावनापूर्ण बताया’ है।
राष्ट्रपति शासन महाराष्ट्र में लागू हुआ नहीं कि शिवसेना ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा दिया। राज्यपाल के अनुसार महाराष्ट्र में कोई भी पार्टी स्थिर सरकार बनाने की स्थिति में नहीं थी। शिवसेना के इस दांव ने महाराष्ट्र में चल रहे दांवपेंच को एक अजीबोगरीब मोड़ दे दिया है।
दिलचस्प बात तो यह है कि शिवसेना ने इसके लिए कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एवं अधिवक्ता कपिल सिब्बल का सहारा लिया है। इससे स्पष्ट होता है कि शिवसेना को केवल सत्ता की भूख है, और वो उसके लिए अपने नैतिक आधार की भी बलि चढ़ाने को तैयार है। क्या अपने प्रतिद्वंदियों से हाथ मिलाने की बात कहकर कम बेइज्जती महसूस हुआ था जो अब सुप्रीम कोर्ट में राष्ट्रपति शासन के खिलाफ आवाज उठाने के लिए उस व्यक्ति को लेकर जा रहे हैं जो कभी राम मंदिर के मुद्दे को टालने का भरसक प्रयास किया था।
सुन्नी वक्फ बोर्ड का प्रतिनिधित्व करने वाले सिब्बल ने दिसंबर 2017 में शीर्ष अदालत के समक्ष ये तर्क दिया था कि अयोध्या विवाद की सुनवाई को 2019 के लोकसभा चुनाव तक के लिए टाल दिया जाये। सुप्रीम कोर्ट ने मामले में सुनवाई की तारीख 6 दिसंबर, 2017 तय की थी, और साथ ही यह भी कहा था कि अब और स्थगन नहीं किया जाएगा।
परंतु सुन्नी वक्फ बोर्ड की ओर से पक्ष रखते हुए कपिल सिब्बल ने दलील दी थी कि सुनवाई को जुलाई 2019 तक टाल दिया जाए, क्योंकि मामला राजनीतिक हो चुका है। सिब्बल ने यह भी कहा था कि राम मंदिर का निर्माण बीजेपी के 2014 के घोषणापत्र में शामिल है, कोर्ट को बीजेपी के जाल में नहीं फंसना चाहिए।
हमेशा से अयोध्या में जन्मभूमि स्थल पर जल्द से जल्द एक भव्य राम मंदिर बनाने के प्रबल समर्थकों में से एक रही शिवसेना आज सत्ता लोभ के लिए एक ऐसे वकील को नियुक्त करने का फैसला कर रही है जिसने न केवल बाबरी मस्जिद पक्ष वालों का प्रतिनिधित्व किया था, बल्कि कोशिश भी की थी अयोध्या विवाद में ज़्यादा से ज़्यादा विलंब हो। पिछले साल नवंबर के महीने में ही, शिवसेना सुप्रीमो, उद्धव ठाकरे ने राम मंदिर के मुद्दे पर भाजपा पर कटाक्ष किया था, और उन्होंने कहा था, “हर हिंदू भगवान राम की जन्मभूमि पर राम मंदिर चाहता है। मैं कुंभकर्ण को जगाने के लिए आया हूं, जो छह महीने तक सोता था। हिंदुत्व का अर्थ है अपने शब्दों को रखना।” उन्होंने यह भी कहा था, “वे केवल ‘मंदिर वही बनाएँगे’ कहते हैं, लेकिन तारीख नहीं बताएंगे“ और कहा, “राम मंदिर के लिए एक अध्यादेश लाएं हम इसका समर्थन करेंगे। मुझे कोई क्रेडिट नहीं चाहिए, आप श्रेय लें लेकिन मंदिर का निर्माण करें।”
वास्तव में, शिवसेना 2015 से ही भाजपा पर ‘मंदिर वही बनाएँगे’ लेकिन तारीख नहीं बताएंगे“ का तंज़ कसती रही है। इसलिए पार्टी ने खुद को भव्य मंदिर के निर्माण के लिए भाजपा से अधिक प्रतिबद्ध बनाया था। यह स्थिति अभी की नहीं है, बल्कि यह शिवसेना की वैचारिक सिद्धांतों का मूल स्वरूप है और ये पार्टी के संस्थापक, बाल ठाकरे के दिनों से ही ऐसा रहा है।
अब, सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने आखिरकार अयोध्या में भगवान राम की जन्मभूमि पर राम मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। हालांकि इसके साथ शिवसेना के पाखंड का पर्दाफाश भी हुआ है क्योंकि अब पार्टी ने कपिल सिब्बल जैसे व्यक्ति से संपर्क किया है जिसने अयोध्या के मामले में सुनवाई में देरी करने की मांग की थी। महाराष्ट्र राज्य में राजनीतिक शक्ति हासिल करने की अपनी भूख के चलते शिवसेना अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के साथ मेलजोल बढ़ा रही है और इस प्रक्रिया में वह अपने मूल सिद्धांतों के साथ भी समझौता कर रही है।