6 दिसंबर को बॉलीवुड की दो बड़ी फिल्मों का क्लैश हुआ था। एक ओर 1978 की हिट फिल्म ‘पति पत्नी और वो’ का आधुनिक रीमेक प्रदर्शित हुआ, और दूसरी ओर आशुतोष गोवारिकर की फिल्म ‘पानीपत’, जो 1761 में हुए पानीपत के तीसरे युद्ध पर आधारित थी। अब बॉक्स ऑफिस के आंकड़ों की बात करें, तो ‘पति पत्नी और वो’ अलोचकोन से मिली कम रेटिंग के के बावजूद ‘सुपर हिट’ बनने की ओर अग्रसर है, जबकि पानीपत आलोचकों से अच्छा रेस्पोंस मिलने के बावजूद बॉक्स ऑफिस पर फिसड्डी साबित हो रही है।
लगभग 100 करोड़ के बजट से बनी पानीपत ने पहले दिन महज़ 4 करोड़ रुपये से कुछ ज़्यादा की कमाई की। इसके बाद शनिवार को लगभग 6 करोड़ रुपये और रविवार को इस फिल्म ने पौने 8 करोड़ रुपये की कमाई की। कुल मिलाकर पानीपत ने भारत भर से 17.68 करोड़ और विदेश से लगभग ओपनिंग वीकेंड मे 5.4 करोड़ रुपये कमाए हैं, जो पानीपत के बजट अनुसार बहुत ही कम है।
जो आशुतोष गोवारिकर एक के बाद एक हिट दिये जा रहे थे, अचानक से उनकी फिल्म की ये हालत क्यों हो गयी? ऐसा क्या हुआ कि पानीपत मराठा विरोधी न होने के बावजूद फ्लॉप होने की ओर अग्रसर है? इसके पीछे कई कारण हैं, जिनपर एक नज़र डालना आवश्यक है।
पानीपत के बॉक्स ऑफिस पर फिसड्डी साबित होने के पीछे के सबसे प्रमुख कारणों में से एक है इस फिल्म की कास्टिंग। यदि आप विलेन की भूमिका के लिए एक ऐसे व्यक्ति को चुन रहे हैं, जो अपने अभिनय से सबको मंत्रमुग्ध करने के लिए काफी है, तो आपके नायक को उसे टक्कर देने योग्य तो अवश्य होना चाहिए।
परंतु संजय दत्त को अहमद शाह अब्दाली बनाकर और अर्जुन कपूर को सदाशिव राव भाऊ के रूप में चुनकर आशुतोष गोवारिकर ने पहले ही इस फिल्म का भाग्य तय कर दिया। यह सत्य है कि पद्मावत में रणवीर सिंह द्वारा निभाए अलाउद्दीन खिलजी पर निर्देशक का ध्यान केन्द्रित था, परंतु सीमित प्रभाव के बावजूद शाहिद कपूर ने रावल रत्न सिंह के रूप में रणवीर को हर क्षेत्र में टक्कर देने की कोशिश की। इस तुलना में अर्जुन कपूर संजय दत्त को टक्कर देना तो दूर की बात, सदाशिव राव भाऊ के रूप में एकदम असहज दिख रहे थे।
इसके अलावा पानीपत के फ्लॉप होने के पीछे एक और कारण है, और वो है मूल इतिहास के साथ इस फिल्म में की गई छेड़छाड़। आशुतोष गोवारिकर चूंकि इस फिल्म को मराठा विरोधी नहीं बना सकते थे, इसलिए उन्होंने सहायक किरदारों को ही निशाने पर लिया। उदाहरण के लिए पार्वतीबाई को उन्होंने एक छोटे परिवेश की लड़की के रूप में दिखाया, जबकि सत्य यह था कि वे छत्रपति शाहू महाराज की दत्तक [adopted] पुत्री थी। इसके अलावा चूंकि सदाशिव राव भाऊ का मृत शरीर कभी भी नहीं मिला, इसलिए मृत्यु तक पार्वतीबाई ने विधवा के रूप में रहने से मना कर दिया था। परंतु फिल्म में पार्वतीबाई को फिल्म के आखिर दृश्यों में सदाशिव राव भाऊ के वियोग में मृत्यु को प्राप्त होते दिखाया गया है।
परंतु हम भूल रहे हैं कि ये आशुतोष गोवारिकर हैं, जो भारतीय सिनेमा में वहीं स्थान रखते हैं जैसे रोमिला थापर और एस इरफान हबीब यानि केवल अपने एजेंडे के लिए तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर पेश करने का काम करना। तथ्यों की धज्जियां उड़ाते हुए आशुतोष गोवारिकर ने सदैव अपनी विचारधारा इतिहास के नाम पर थोपी है। ‘जोधा अकबर’ में, उन्होंने अकबर को एक लंबे, हृष्ट पुष्ट व्यक्ति के रूप में चित्रित किया, जो जीवन भर केवल जोधाबाई के लिए प्रतिबद्ध रहा।
चटगांव विद्रोह पर आधारित ‘खेलें हम जी जान से‘ में, उन्होंने न केवल ध्वजारोहण समारोह के दृश्य के साथ छेड़छाड़ की, बल्कि जलालाबाद की लड़ाई में क्रांतिकारियों को हार कर भागते हुए दिखाया, जबकि क्रांतिकारियों ने इसके ठीक उलट अपने 12 साथी गँवाकर भी अंग्रेजों को धूल चटाई थी। ‘मोहनजो दारो’ में सिंधु घाटी सभ्यता के चित्रण के बारे में हम जितना कम कहें उतना बेहतर।
परंतु पानीपत के असफल होने के पीछे सबसे प्रमुख कारणों में से एक है जाट महाराजा सूरजमल का अपमानजनक चित्रण। सुजान सिंह के नाम से भी जाने जाने वाले महाराजा सूरजमल उत्तरी भारत में एक प्रभावशाली शासक थे, जिन्होंने न केवल मुगलों को नियंत्रण में रखा था, अपितु रोहिल्ला और अवधी शासकों को नाकों चने चबवा देते थे। ऐसे में ये स्वाभाविक था कि अहमद शाह अब्दाली का मुक़ाबला करने के लिए मराठा महाराजा सूरजमल की सहायता लें।
महाराजा सूरजमल मराठा सेना को परिपक्वता से युद्ध लड़ने के लिए सुझाव दे रहे थे, पर किन्ही कारणों से सदाशिव राव भाऊ ने उनकी सहायता को अस्वीकार कर दिया। इसके बाद भी महाराजा सूरजमल ने पानीपत से लौट रहे घायल मराठा सैनिकों और आम जनों का उपचार भी कराया। परंतु आशुतोष गोवारिकर ने पानीपत में महाराजा सूरजमल का चित्रण एक ऐसे मोटे आदमी के तौर पर किया, जिसकी बुद्धि भी मोटी थी। इसके पीछे राजस्थान और हरियाणा में अब विरोध प्रदर्शन भी शुरू हो गए हैं। कुल मिलाकर तथ्यों के साथ खिलवाड़ करना आशुतोष गवारीकर के लिए बड़ा महंगा साबित हुआ है.
अब जब पानीपत भी फ्लॉप होने की कगार पर पहुँच चुकी है, ऐसे में आशुतोष गोवारिकर को एक बार आत्मविश्लेषण कर लेना चाहिए। इसके साथ ही उन्हें क्षेत्रीय निर्देशकों से भी सीख लेनी चाहिए, जो काल्पनिक स्वतंत्रता के नाम पर ऐतिहासिक तथ्यों के साथ अनावश्यक खिलवाड़ तो नहीं करते।