लोकतंत्र में आखिर में जीत जनता की ही होती है, और जनता अपने साथ किए गए धोखे याद रखती है फिर चुनावों में अपना फैसला दे देती है। यह भारत के लोकतांत्रिक इतिहास का रिकॉर्ड रहा है और इस बार कर्नाटका के विधानसभा उपचुनाव में भी यही देखने को मिला जब बीजेपी ने 15 सीटों में से 12 पर जबरदस्त जीत दर्ज की। अब कर्नाटक में भाजपा को मिली इस जीत की गूँज को महाराष्ट्र में बनी तीन पार्टियों की गठबंधन सरकार के लिए खतरे के रूप में देखा जा रहा है।
दरअसल, वर्ष 2018 में जब कर्नाटक में विधानसभा चुनाव हुए थे तब भाजपा राज्य में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी परन्तु बहुमत के आंकड़ों से कुछ नंबर से पीछे रह गयी थी। अवसरवादी कांग्रेस और जेडीएस ने बेमेल गठबंधन कर राज्य में सरकार बनाई थी और राज्य की जनता को कुमारस्वामी जैसा एक कठपुतली मुख्यमंत्री मिला था। परन्तु जल्द ही ये बेमेल गठबंधन की सरकार गिर गयी और राज्य में भाजपा की सरकार बनी। अब उपचुनाव में जनता ने पूर्ण बहुमत दे दिया है।
हालांकि, अगर आप गौर करें तो महाराष्ट्र में भी वही गठजोड़ का किस्सा है जो 2018 में कर्नाटका में था। ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि भाजपा की इस जीत की धमक महाराष्ट्र में भी सुनाई देगी। महाराष्ट्र में चुनाव के बाद हुए परिणाम स्पष्ट रूप से NDA के पक्ष में थे और बीजेपी ने अकेले 105 सीट पर जीत हासिल की थी, फिर भी शिवसेना ने मुख्यमंत्री पद के लालच में आकर विरोधी पार्टियां यानि कांग्रेस-NCP के साथ मिल कर सरकार बना ली। यह ठीक उसी तरह है जैसे कर्नाटका के 2018 विधान सभा चुनाव परिणाम के बाद कांग्रेस-जेडीएस ने मिलकर सरकार बनाई थी ।
कर्नाटक में विधानसभा चुनाव के बाद नतीजों में भाजपा को 105 सीटें मिली थीं, जबकि 225 सदस्यीय विधानसभा में बहुमत के लिए 113 विधायकों के समर्थन की आवश्यकता थी। दूसरी तरफ कांग्रेस के पास 79 विधायक थे और जेडीएस को 37 सीटों पर जीत मिली थी। ये दोनों पार्टियां साथ आ गईं और राज्य में दोनों पार्टियों ने मिलकर सरकार बनाई। कांग्रेस ने लोभ में मुख्यमंत्री पद जेडीएस के एचडी कुमारस्वामी को दे दिया था। यह गठबंधन जनता की जनाधार के खिलाफ ही बनाया गया था क्योंकि इन दोनों ही पार्टियों ने एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ा था। दोनों पार्टियों के बीच के वैचारिक मतभेद होने के बाद भी गठबंधन किया गया। लेकिन सत्ता पर काबिज रहने के लिए कांग्रेस ने हर वो कदम उठाया जो उसे सत्ता में रख सकती थी।
ठीक इसी तरह महाराष्ट्र में भी बीजेपी ने 105 सीटों पर जीत दर्ज की तो वही शिवसेना ने 56, कांग्रेस ने 44 एनसीपी ने 54 सीटों पर जीत दर्ज की। कर्नाटका में तो केवल दो सहयोगी पार्टियाँ थी यहाँ तीन हैं, और तीनों पार्टी के नेताओं की महत्वाकांक्षा बड़ी है। अहम मंत्रालय के बंटवारे को लेकर पहले ही तनाव देखने को मिल चुका है। यही तनाव राज्य की गठबंधन सरकार के लिए नयी मुश्किलें खड़ी करेगा। समय के साथ शिवसेना कांग्रेस और NCP के बीच विचारधारा के बेमेल जोड़ से तकरार बढ़ेगी और यह हमे Citizenship Amendment Bill पर शिवसेना और कांग्रेस के बीच अलग-अलग रुख से स्पष्ट नजर आया। ऐसे में कर्नाटक की तरह ही यहाँ भी आने वाले समय में कई बागी विधायक देखने को मिल सकते हैं जिसमें किसी को कोई हैरानी नहीं होगी।
इसी उठापटक के बाद अगर विधायक पार्टी बदलते है तो भविष्य में इस गठबंधन के टूटने की संभावना प्रबल है। यही नहीं महाराष्ट्र में इस जीत के बात बागी विधायकों की महत्वकांक्षा को बल मिलेगा। हो सकता है कि वे भविष्य में अपना पाला बदलें जैसा की कर्नाटका में हुआ था जिसके बाद कर्नाटक में इन बागी विधायकों को कोर्ट द्वारा अयोग्य ठहरा दिया गया था। इन बागी विधायकों के अयोग्य ठहराए जाने से विधानसभा सीटें सीटें खाली हो गयीं थीं और राज्य में फिर से खाली सीटें पर उपचुनाव हुए जिसमें भाजपा को अप्रत्याशित जीत मिली है। अब यही घटनाक्रम महाराष्ट्र में दोहराए जाने की संभावनाओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता क्योंकि यहां भी चुनाव के बाद सरकार गठन में वही सियासी ड्रामा नजर आया। इतिहास गवाह है कि जब भी दो धूर विरोधी पार्टी साथ में आती है वो ज्यादा दिनों तक सत्ता में टिक नहीं पाती। विचारधारा के टकराव के साथ साथ जनता का रोष भी इन पार्टियों को ले डूबता है। यूपी में सपा-बसपा का लोकसभा चुनाव में गठबंधन को जो झटका लगा था वो भी इसका बेहतरीन उदाहरणों में से एक कह सकते हैं।
महाराष्ट्र की आम जनता राज्य में पहले ही शिवसेना द्वारा भाजपा को धोखा दिए जाने से निराश है और साथ ही स्वार्थ की राजनीति के कारण भी जनता नाराज है और ये नाराजगी आने वाले समय में अवश्य नजर आने वाली है। मतलब स्पष्ट है कर्नाटका में जो राजनीतिक ड्रामा चला है उसका असर महाराष्ट्र की राजनीति पर भी पड़ना तय है।