पूरे देश में नागरिकता संशोधन कानून का विरोध हो रहा है। इसी बीच कल दिल्ली में एक शर्मनाक घटना घटी। दरअसल, जामिया हिंसा की सुनवाई करके लौट रहे दो जजों को वकीलों की भीड़ ने घेर लिया और Shame! Shame! के नारे भी लगाने लगे। वकीलों ने अदालत में जामिया मिल्लिया इस्लामिया में हिंसा की न्यायिक जांच की मांग करते हुए एक याचिका दायर की थी। इस मामले की सुनवाई दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीएन पटेल और न्यायमूर्ति सी हरिशंकर कर रहे हैं।
Jamia matter: After the Court set February 4 as next date of hearing, the petitioner's counsel requested for an earlier date. After the court denied, the lawyers raised 'shame shame' slogans in court. High Court also denied interim protection from arrest to students https://t.co/izrUBMEtjO
— ANI (@ANI) December 19, 2019
वकीलों ने आरोप लगाया गया है कि पुलिस गलत तरीके से यूनिवर्सिटी में दाखिल हुई और निर्दोष छात्रों से मारपीट करने के बाद उन्हें गिरफ्तार किया है। इसको लेकर वकीलों ने एक याचिका दायर की थी जिसमें उन्होंने कहा कि छात्रों की सुरक्षा के लिए अंतरिम निर्देश के रूप में राहत दी जाए। हालांकि कोर्ट ने इस मांग को अस्वीकार कर दिया। जिसके बाद कानून के जानकार कहे जाने वाले वकीलों ने सारी मर्यादा तोड़कर न्याय के मंदिर में Shame! Shame! के नारे लगाने लगे। यह शर्मनाक घटना छात्रों के मन में न्याय के प्रति भी एक विद्रोह की भावना पैदा करेगा। जो वास्तव में हमें अलोकतांत्रिक बना देगा। यहां सोचने वाली बात यह है कि जब वकील ही ऐसी हरकत करेंगे तो अन्य लोगों पर क्या असर पड़ेगा।
जब से जामिया मिल्लिया इस्लामिया में हिंसा हुई है, तब से ही असमाजिक तत्वों ने पुलिस के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। वामपंथी बुद्धिजीवियों का कहना है कि छात्र और प्रदर्शनकारियों को हिंसा करने का अधिकार है लेकिन यही लोग बाद में कोर्ट का दरवाजा खटखटाने पहुंच जाते हैं और कहते हैं कि छात्रों के साथ पुलिस गलत तरीके से पेश आ रही है। कुल मिलाकर वामपंथी समुदाय के लोग पुलिस कार्रवाई में छात्रों को पीड़ित दिखाने का प्रयास करते हैं। ये नहीं दिखाते कि छात्रों ने कितनी बसें जला दीं। कितने पुलिसकर्मियों को पीटा। इनके अनुसार अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब बस
जलाना, ट्रेन जलाना है।
बता दें कि इससे पहले सुप्रीम कोर्ट में लेफ्ट लिबरल जामिया के हिंसक छात्रों का केस लेकर पहुंचे थे लेकिन वहां से भी इन्हें मुंह की खानी पड़ी। कोर्ट ने साफ कह दिया कि बस जलाने वालों और सरकारी संपत्तियों को आग के हवाले करने वालों की कोई सुनवाई नहीं होगी। आप छात्र हैं इसका मतलब ये नहीं कि हिंसा करें। इसके बाद कोर्ट ने इस मामले को संबंधित क्षेत्र के उच्च न्यायालय में ट्रांसफर करने का आदेश दिया था। जिसके बाद मामला दिल्ली हाईकोर्ट में गया। यहां भी
याचिकाकर्ताओं को मुंह की खानी पड़ी। यह उत्पाती छात्रों के लिए सबसे बड़ा झटका बनकर सामने आया। जिस तरह से वकीलों ने दो जजों का घेराव किया उससे साफ पता चलता है कि ये छात्र किसी भी विशेषाधिकार या सुरक्षा के हकदार नहीं हैं।
“स्टूडेंट एक्टिविस्टों” को सरल तथ्य समझने की आवश्यकता है कि उनकी अभिव्यक्ति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार अनुच्छेद 19 (1) (ए) से परे नहीं है। देश के हर नागरिक को बोलने व अभिव्यक्ति की आजादी का समान अधिकार प्राप्त है। इसमें किसी को कोई खास अधिकार नहीं दिया गया है। भारतीय संदर्भ में छात्रों की आजादी को एक अलग ही मोड़ दे दिया गया है। यानि वे छात्र हैं तो किसी भी तरह का प्रदर्शन करें, कुछ भी बोलें चाहे वह राष्ट्रीय हित में हो या न हो। लेकिन ऐसा सोचना बिल्कुल गलत है क्योंकि हमारा संविधान इस तरह की खास आजादी किसी को नहीं देता है।
अभी ये कहा जा रहा है कि पुलिस जामिया मिल्लिया विश्वविद्यालय के परिसर में क्यों घुसी। इस बात को लेकर वामपंथी विचारधारा के बुद्धिजीवियों ने नाराजगी जाहिर की है। छात्रों को यह विश्वास दिलाया गया कि उनके साथ गलत हुआ है। लेकिन तथ्य यह है कि विश्वविद्यालय परिसर भी भारत के किसी अन्य क्षेत्र की तरह ही है। वहां भी भारतीय कानून लागू होता है। विश्वविद्यालय का मतलब ये नहीं कि यह अलग देश है और यहां छात्र भारत के खिलाफ कुछ भी जहर उगल दें और पुलिस चुप-चाप बैठी रहेगी। यहां गौर करने वाली बात ये है कि छात्र भी भारत के नागरिक होते हैं। उन पर भी अन्य नागरिकों की तरह ही कानून लागू होता है। ऐसे में उपद्रवी छात्रों को खदेड़ने के लिए पुलिस का कैंपस में घुसना कहां से गलत हुआ।