सत्ता में आते ही राजनीतिक पार्टियां अपने अपने रंग दिखाना शुरू कर देती है। झारखंड में भी यही देखने को मिल रहा है। हेमंत सोरेन की सरकार ने पहले तो एंटी कन्वर्जन लॉ का रिव्यू करने का बयान दिया तो वहीं, रविवार को यह फैसला किया कि राज्य में दो साल पहले पत्थलगड़ी आंदोलन के दौरान दर्ज मामले वापस लिए जाएंगे।
इस बारे में प्रदेश के मंत्रिमंडल सचिव ने बताया कि राज्य सरकार के फैसले के मुताबिक छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम (सीएनटी एक्ट) और संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम (एसपीटी एक्ट) में संशोधन का विरोध करने और पत्थलगड़ी करने के जुर्म में दर्ज किए गए मामले वापस लेने का काम शुरू किया जाएगा। इससे जुड़े अधिकारियों को कार्रवाई के निर्देश भी दे दिया गया है।
अब यह पत्थलगड़ी आंदोलन क्या है?
पिछले वर्ष देश के रेड कॉरिडोर में से एक आंदोलन जोर पकड़ता नजर आया था। इसे पत्थलगड़ी आंदोलन कहा गया था। यह आंदोलन झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल के कई इलाकों में इसने जोर पकड़ा था। पत्थलगड़ी आंदोलन के तहत सरकारी संस्थानों और सुविधाओं के बहिष्कार की बात की जाती रही है और स्थानीय शासन की मांग भी।
आदिवासी महासभा नामक संगठन के बैनर तले ग्रामीण गांव के प्रवेश द्वार पर इस आशय की सूचना पत्थर पर खुदवा रहे हैं कि यहां ग्रामसभा का शासन है और सरकारी आदेशों के साथ सरकारी संस्थानों की यहां कोई मान्यता नहीं है। इसे ही पत्थलगड़ी नाम दिया गया है। इसके समर्थकों का कहना है कि वही देश के असली मालिक हैं, उन पर कोई शासन नहीं कर सकता। भारत सरकार उनसे है, न कि वह भारत सरकार से। उनका नारा है: न लोकसभा न विधानसभा, सबसे ऊपर ग्रामसभा। और इसके लिए वे संविधान के अनुच्छेद 13 (3) क का हवाला दे रहे हैं। पत्थलगड़ी चर्चा में तब आया जब पिछले साल अगस्त में रांची से 40 किमी दूर खूंटी जिले के कुछ गांवों में स्थानीय शासन पर जोर देने की सूचनावाले पत्थर गाड़े गए। ग्रामीणों ने कहा कि अब इन इलाकों में ‘दीकू’ यानी किसी गैर आदिवासी को बिना अनुमति घुसने नहीं दिया जाएगा, सरकारी मुलाजिमों को तो कतई नहीं। इस आंदोलन के समर्थक इन इलाकों में सरकारी सुविधाओं जैसे राशन कार्ड, आधार कार्ड, इलेक्शन कार्ड, सरकारी स्कूल, अस्पताल आदि का बहिष्कार करने पर जोर दे रहे हैं। जाहिर है, नक्सल प्रभावित इन इलाकों में सरकार के खिलाफ इस तरह के विद्रोह ने देश की सुरक्षा एजेंसियों, केंद्रीय गृह मंत्रालयों और राज्य सरकारों की नींद उड़ा दी है।
नवभारत टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार 2017 के अगस्त माह में खूंटी जिले में पत्थलगड़ी की सूचना मिलने के बाद कुछ पुलिसकर्मी वहां पहुंचे। वहां ग्रामीणों ने बैरिकेडिंग कर रखी थी। थानेदार जब कुछ पुलिसबल के साथ वहां पहुंचे तो उन्हें बंधक बना लिया गया। सूचना पाकर जिले के एसपी अश्विनी कुमार लगभग 300 पुलिसकर्मियों को लेकर उन्हें छुड़ाने पहुंचे तो उन्हें भी वहां बंधक बना लिया गया। लगभग रातभर उन्हें बिठाए रखा, सुबह जब खूंटी के जिलाधिकारी वहां पहुंचे तब लंबी बातचीत के बाद गांववालों ने उन्हें छोड़ा। इसके बाद यह मामला तूल पकड़ता गया।
19 जून को पत्थलगड़ी आंदोलन से जुड़े सशस्त्र लोगों द्वारा पांच एनजीओ कार्यकर्ताओं का कथित तौर पर अपहरण और गैंगरेप किया गया था। वे झारखंड के खूंटी जिले के एक स्कूल में नुक्कड़ नाटक कर रहे थे। पत्थलगड़ी समर्थकों ने एनजीओ कार्यकर्ताओं को “दिकु” (बाहरी) करार किया।
26 जून 2017 को, सशस्त्र पत्थलगड़ी के एक अन्य समूह ने खुंटी में स्थानीय भाजपा सांसद करिया मुंडा के घर पर तैनात तीन सुरक्षाकर्मियों का अपहरण कर लिया था। करिया मुंडा लोकसभा के पूर्व उपाध्यक्ष हैं और भाजपा झारखंड में सत्तारूढ़ पार्टी थी।
आंदोलन के नेताओं का कहना है कि आदिवासी इलाके अनुसूचित क्षेत्र हैं। यहां संसद या विधानमंडल से पारित कानूनों को सीधे लागू नहीं किया जा सकता। वन अधिकार कानून 2006 और नियमगिरी के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला कहता है कि ग्रामसभा को गांव की संस्कृति, परंपरा, रूढ़ि, विश्वास, प्राकृतिक संसाधन आदि की सुरक्षा का संपूर्ण अधिकार है। इसका अर्थ है कि अगर ग्रामसभा को लगता है कि बाहरी लोगों के प्रवेश से उनकी संस्कृति, परंपरा, प्राकृतिक संसाधन आदि चीजों को खतरा है तो वह उनके प्रवेश पर रोक लगा सकती है।
नवभारत टाइम्स के अनुसार आंदोलनकर्ताओं का तर्क यह भी है कि सरकारी ऑफिसों से लेकर शहरों के अपार्टमेंट में यह साफ लिखा रहता है कि बिना अनुमति के प्रवेश वर्जित है, ग्रामसभा ऐसा कर रही है तो किसी को आपत्ति क्यों हो रही है? आंदोलन कर रहे लोगों की मांग है कि गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 को लागू किया जाए। इसके मुताबिक, अधिसूचित क्षेत्र में मानकी मुंडा ही टैक्स वसूलेंगे, नियम बनाएंगे, सरकार चलाएंगे। आदिवासी अंग्रेजी राज के इस कानून को फिर से लागू करने की मांग कर रहे हैं, जबकि सरकार का कहना है कि भारत का संविधान बनने के साथ ही अंग्रेजों के बनाए कानून खुद-ब-खुद निरस्त हो चुके हैं।
पत्थलगड़ी आदिवासी समाज की एक परंपरा है, जिसके जरिए से गांव का सीमांकन किया जाता है, लेकिन अब इसी की आड़ में गांव के बाहर अवैध ढंग से पत्थलगड़ी की जा रही थी। पत्थर पर ग्राम सभा का अधिकार दिलाने वाले भारतीय संविधान के अनुच्छेदों (आर्टिकल) की गलत व्याख्या करते हुए ग्रामीणों को आंदोलन के लिए उकसाया जा रहा था। इसी कड़ी में सोशल मीडिया पर भी भारत सरकार के खिलाफ पोस्ट में भड़काया जा रहा था जिसके बाद कई केस दर्ज किए गए थे। फ़ेसबुक मामले में झारखंड हाईकोर्ट ने सभी दलीलों पर विचार करने के बाद एक सदस्यीय पीठ ने कहा था कि ‘जब कोई आलोचना सरकार के खिलाफ घृणा की हिंसा को जन्म देती है तो यह आईपीसी की धारा 124ए के तहत अपराध के समान है, जो संविधान के अनुच्छेद 19(1) के तहत नहीं आता है’। कोर्ट ने कहा कि ‘फेसबुक पोस्ट से साफ जाहिर है कि प्रथम दृष्टया मंशा देशद्रोह करने की ही थी’।
ऐसे किसी आंदोलन को देश विरोधी ताकतों का समर्थन न मिले, यह संभव नहीं। इस आंदोलन को कुछ मिशनरियों व कट्टरवादियों का भरपूर समर्थन मिला। इसे रघुवर दास की सरकार और केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ लड़ाई का प्रतीक बना दिया गया था। खूँटी, गुमला से लेकर एक समय तक यह आंदोलन लोहरदगा, राँची और सिमडेगा तक फैल गया था। तत्कालीन सीएम रघुवर दास का मानना है कि इसके पीछे नक्सलियों, ईसाई मिशनरियों का हाथ है और यह आदिवासियों को विकास से दूर करने और इन इलाकों के खनिजों पर कब्जा करने के लिए हो रहा है।
इसी पत्थलगड़ी आंदोलन करने वाले 172 लोगों के खिलाफ दर्ज केस और 19 लोगों के खिलाफ देशद्रोह के मामले को हेमंत सोरेन ने वापस लेने का फैसला लिया किया है, जिसमें गैंग रेप और पुलिस को अपहरण का आरोप भी है। यह पूरी तरह से दिखाता है कि वे सिर्फ वोट बैंक के लिए ही यह सब कर रहे है। इस आंदोलन का असर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है क्योंकि जिन क्षेत्रों में इस आंदोलन का असर था उन क्षेत्रों में JMM ने जीत हासिल की है। हेमंत सोरेन का यह फैसला देश पर कितना भारी पड़ता है यह समय ही बताएगा। डर यह कि सोरेन की यह सहानुभूति कहीं दूसरा नकसलबाड़ी आंदोलन न बन जाए।