शिवसेना ने अपनी विचारधारा को ताक पर रखकर कांग्रेस और एनसीपी के साथ हाथ मिलाया था और अब ऐसा लगता लगता है कि वे अपने विचारों का मजाक बनते देखने की आदि हो चुकी है। विशेषकर काँग्रेस पार्टी तो आए दिन वीर सावरकर का अपमान करने में कोई कसर नहीं छोड़ती, जो शिवसेना के लिए काफी महत्व रखते हैं। एक ओर उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में शिवसेना दावा करती है कि वीर सावरकर उनके लिए सर्वमान्य है, तो वहीं वे काँग्रेस के साथ अपने गठबंधन पर अड़ी हुई है, जिसके लिए उसे काफी आलोचना का सामना करना पड़ रहा है।
काँग्रेस को शायद आभास हो चुका है कि शिवसेना गठबंधन से हटने के लिए तत्पर नहीं है, इसीलिए वे आए दिन वीर सावरकर का अपमान कर शिवसेना को नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है। इस बार निकृष्टता की सारी सीमाएं लांघते हुए काँग्रेस समर्थित सेवा दल ने ‘वीर सावरकर कितने वीर’ नामक एक पत्रिका बँटवाई, जिसमें लिखा था कि सावरकर के नाथूराम गोडसे के साथ समलैंगिक संबंध थे। ऐसे ओछे बयान की उम्मीद केवल काँग्रेस से ही की जा सकती है।
दिलचस्प बात तो यह थी कि आलोचना करने के अलावा शिवसेना काँग्रेस को वीर सावरकर पर पहले की भांति घेरने में पूर्णतया असफल रही थी। संजय राऊत ने कहा, “वीर सावरकर एक महान पुरुष थे और रहेंगे। एक धड़ा उनके बारे में विष उगलता रहता है, जो उनकी कुत्सित मानसिकता को उजागर करता रहता है”। अब ये समझ के परे हैं कि जब शिवसेना सावरकर के विरुद्ध एक शब्द नहीं सुनना चाहती है, तो फिर वे काँग्रेस जैसे निकृष्ट पार्टी के साथ गठबंधन में क्यों बनी हुई है?
शिवसेना ने काँग्रेस के सावरकर पर विवादित बोल पर आलोचना के अलावा कुछ नहीं किया है। सीएए पर विरोध के दौरान एक रैली में काँग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा था, “मेरा नाम राहुल गांधी है, राहुल सावरकर नहीं जो माफी मांगता रहूँगा”। शिव सेना ने इस पर काँग्रेस पर तंज़ कसते हुए अपने मुखपत्र सामना मैगज़ीन के ‘रोक थोक’ स्तम्भ में लिखा, “सावरकर 14 वर्षों तक जेल में रहे, जिसमें से 11 वर्ष उन्होने अंडमान के सेल्यूलर जेल में बिताए। जो उन्हे कथित रूप से अंग्रेजों से माफी मांगने के लिए ताने मारते हैं, वो 72 घंटे भी उनकी कोठरी में रहकर दिखा दे तो मैं मान लूँगा”। पर यहाँ भी शिवसेना ने आलोचना करने के अलावा कुछ नहीं किया, गठबंधन से हटना तो दूर की बात है।
सच कहें तो जब से शिवसेना ने एनसीपी और काँग्रेस के साथ सत्ता ग्रहण की है, तबसे यह दोनों पार्टियां की नीति बन चुकी है कि सावरकर को अपमानित कर हर प्रकार से शिवसेना को अपमानित किया जाये। दुर्भाग्य की बात तो यह है कि शिव सेना सुप्रीमो इस पूरे प्रकरण पर चुप्पी साधे बैठे हुए हैं। जनसत्ता की एक रिपोर्ट की माने, तो तीनों पार्टियों द्वारा रचित कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के अंतर्गत सरकार बनाने के लिए एक आवश्यक शर्त यह थी कि शिवसेना सावरकर को भारत रत्न देने की मांग से पीछे हट जाये, और शिवसेना ने इसे बिना किसी हिचकिचाहट के स्वीकार भी कर लिया था। मतलब सत्ता में आने से पहले ही एनसीपी और काँग्रेस ने साफ कर दिया था कि उनके सरकार में वीर सावरकर के लिए कोई सम्मान नहीं होगा, और इसके बाद भी शिवसेना इस बेमेल गठबंधन में बनी हुई है।
अपनी विचारधारा और अपने आदर्शों से समझौता करने के लिए उद्धव ठाकरे और उनकी शिवसेना को पहले ही काफी आलोचना झेलनी पड़ी है। अब काँग्रेस द्वारा वीर सावरकर के विरुद्ध चलाया गया आपत्तीजनक अभियान केवल उनकी प्रतिबद्धता को चुनौती देता नज़र आ रहा है। यदि शिवसेना मौन रहती है, तो वे महाराष्ट्र में अपनी बची खुची साख भी खो देगी। परंतु जिस तरह से काँग्रेस काम कर रही है, उसे देख ये तो बिलकुल नहीं लगता कि केवल आलोचना से काम चलेगा। अगर शिवसेना अब भी नहीं चेती, तो उसका हाल धोबी के कुत्ते जैसा हो जाएगा, जो न घर का रहेगा और न ही घाट का।