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कैसे केजरीवाल ने सिसोदिया की हार लगभग तय कर दी थी ताकि वो CM न बन सके ?

Animesh Pandey द्वारा Animesh Pandey
11 February 2020
in मत
मनीष सिसोदिया

PC: Pragativadi

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दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणाम आ चुके हैं और इस बार भी आम आदमी पार्टी सत्ता वापसी दर्ज करने में सफल रही है। अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी 55 से ज़्यादा सीटों पर आगे चल रही है, और भाजपा भी पहले के मुक़ाबले थोड़ा बेहतर प्रदर्शन किया है। परंतु जिस चीज़ पर लोगों का ध्यान कम गया है, वो यह कि केजरीवाल के खास माने जाने वाले आम आदमी पार्टी के नेता एवं पूर्ववर्ती सरकार में उपमुख्यमंत्री रहे मनीष सिसोदिया को पटपड़गंज से भाजपा प्रत्याशी रविंदर सिंह नेगी से कड़ी टक्कर मिलना, हालांकि, वो इस सीट से जीत गये हैं। इससे स्पष्ट है कि मनीष सिसोदिया को इस बार अरविंद केजरीवाल ने सत्ता की जद्दोजहद में कहीं न कहीं पीछे छोड़ दिया है।

यह सभी को पता है कि आम आदमी पार्टी (आप) का चेहरा हमेशा से केजरीवाल रहे हैं। वे इस पार्टी के बनने के बाद से ही इस पार्टी के सुप्रीमो बने हुए हैं। हालांकि, केजरीवाल ने कभी भी AAP के नेतृत्व वाली दिल्ली सरकार में उस तरह की प्रमुख भूमिका नहीं निभाई। अपनी सरकार के कार्यकाल के अधिकतर के लिए, वह बिना पोर्टफोलियो के मुख्यमंत्री रहे, जो उनके सुप्रीमो होना नहीं दर्शाता है।

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ठीक इसी दौरान उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया सरकार ने अधिकतर समय प्रमुख पोर्टफोलियो को संभाला और यहाँ तक कि जमीनी स्तर पर भी पार्टी के कार्यकर्ताओं पर अपनी पकड़ बनाए रखी। उन्होंने कई विभागों जैसे वित्त, योजना, पर्यटन, भूमि और भवन, महिला एवं बाल, कला, संस्कृति और भाषाएँ और सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा मंत्रालय को अपने पास रखा है। इतना ही नहीं, कई अहम मोर्चे, चाहे वो शाहीन बाग के विरोध प्रदर्शन हो, या फिर सीएए और एनआरसी का विरोध ही क्यों न हो, केजरीवाल से ज़्यादा चर्चा में मनीष सिसोदिया रहे हैं।

मनीष सिसोदिया ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन अभियान’ के समय से ही अरविंद केजरीवाल के साथ थे। जब 2012 के आसपास आम आदमी पार्टी का सृजन हुआ, तब मनीष सिसोदिया अरविंद केजरीवाल के साथ पार्टी के प्रमुख संस्थापकों में से एक थे। इसीलिए जब आम आदमी पार्टी की 2013 में पहली बार सरकार बनी, तो मनीष सिसोदिया को शिक्षा, पीडबल्यूडी समेत चार अहम मंत्रालय सौंपे गए। परंतु यह सरकार 49 दिन बाद ही गिर गयी, और 2015 में जब आम आदमी पार्टी 67 सीटों के प्रचंड बहुमत के साथ वापिस आई, तो मनीष सिसोदिया को उनके पुराने मंत्रालयों के साथ साथ उपमुख्यमंत्री का पदभार भी दिया गया।

सिसोदिया ने पार्टी में नंबर दो के स्थान पर रहते हुए भी अपना कद केजरीवाल से ऊपर बनाए रखा। AAP के लिए वे शासन मॉडल का चेहरा बनकर उभरे हैं, जिसे आज यह पार्टी प्रचारित कर चुनाव जीतने में कामयाब रही। सिसोदिया के शांत व्यक्तित्व की तुलना में, केजरीवाल एक ऐसे व्यक्ति के रूप में उभरे जिन्होंने पीएम मोदी के बारे में भद्दी टिप्पणी करते हुए, ईवीएम में छेड़छाड़ और पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय सेना के सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत मांगा। इससे उनकी छवि नकारात्मक होती गयी। परन्तु सिसोदिया ने हर बार पार्टी को मुश्किल समय से उबारने में मदद की है यहाँ तक कि केजरीवाल के उलटे सीधे बयानों का बचाव भी किया है।

परन्तु वर्तमान की परिस्थिति को देखते हुए एक बात तो स्पष्ट है कि अब मनीष सिसोदिया केजरीवाल के लिए उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं, जितना पहले हुआ करते थे। इसके पीछे कुछ प्रमुख कारण है, जिनपर प्रकाश डालना अत्यंत आवश्यक है। सर्वप्रथम तो मनीष सिसोदिया अब केजरीवाल के लिए किसी खतरे से कम नहीं है। अधिकतर मोर्चों पर विफल रहने वाली आम आदमी पार्टी शिक्षा में किए गए सुधारों के आधार पर चुनाव लड़ रही थी। यूं कहें तो आम आदमी पार्टी का सारा अभियान मनीष सिसोदिया द्वारा किए गए शैक्षणिक सुधारों के इर्द गिर्द ही घूम रहा था, जिसका फायदा भी उन्हें हाल के चुनावों में मिला था।

परंतु जिस तरह से चुनाव के अंतिम पड़ाव पर अरविंद केजरीवाल ने मनीष सिसोदिया से मुंह मोड़ना शुरू किया, उससे स्पष्ट हो गया कि अरविंद केजरीवाल ऐसे किसी भी व्यक्ति को आगे नहीं आने देंगे, जो उनके सत्ता के लिए खतरा हो।

आम आदमी पार्टी में अगर कोई अन्य नेता बेहतर काम करता है और यदि उसे केजरीवाल से ज्यादा महत्व मिलने लगता है तो केजरीवाल उन्हें दरकिनार करना शुरू कर देते हैं। यही नहीं पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने में भी वो नहीं चूकते। योगेन्द्र यादव, कुमार विश्वास, प्रशांत भूषण आशुतोष और कपिल मिश्रा जैसे नेताओं का उदाहरण तो आप देख ही चुके हैं। इनमें से जिसने भी केजरीवाल की नीतियों के खिलाफ बयान दिया है या आवाज उठाई है या फिर पार्टी में किसी नेता को ज्यादा महत्व मिला है उन्हें पार्टी से बाहर का ही रास्ता दिखाया गया है।

ऐसा ही कुछ अब मनीष सिसोदिया के मामले में भी देखने को मिल रहा है जहाँ सिसोदिया की पार्टी में जड़ें मजबूत हो रही हैं। जमीनी स्तर पर उनकी पकड़ केजरीवाल के मुकाबले कहीं ज्यादा है। योजना बनाना और उसे लागू करने के तरीके में भी सिसोदिया केजरीवाल से बेहतर हैं। फिर भी वो अक्सर इसके लिए केजरीवाल को क्रेडिट देते हुए नजर आ जाते थे, परन्तु राजनीति में पद की महत्वाकांक्षा न हो ऐसा हो सकता है क्या भला? कहीं न कहीं अब सिसोदिया के मन में भी होगा कि वो दिल्ली के मुख्यमंत्री बने। यदि ऐसा नहीं है तो हो सकता है कि केजरीवाल का कुर्सी से लगाव उन्हें ऐसा सोचने पर मजबूर कर रहा होगा। मतलब यह है कि सिसोदिया अब जीतें या हारें, वो बाद की बात है, परंतु इतना तो पक्का है कि वे अब केजरीवाल के लिए वो उतने महत्वपूर्ण नहीं है, जितने वो पहले हुआ करते हैं। ऐसे में यदि केजरीवाल उन्हें उपमुख्यमंत्री के पद से हटा दें, तो किसी को हैरानी नहीं होना चाहिए।

Tags: अरविंद केजरीवालआम आदमी पार्टीमनीष सिसोदिया
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