हाल ही में अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने स्पष्ट कर दिया है कि किसी भी स्थिति में अमेरिका अब विश्व स्वास्थ्य संगठन में वापसी नहीं करेगा। फॉक्स न्यूज को दिए गए इंटरव्यू के अनुसार माइक कहते हैं, “अब वक्त सिर्फ विश्व स्वास्थ्य संगठन में नेतृत्व के बदलाव का नहीं है, बल्कि वक्त है कि संगठन ही बदल दिया जाए। अमेरिका अब कभी भी इस संगठन में वापसी नहीं करेगा। अगर संगठन सही तरीके से काम करता है, तो हम उसके साथ जुड़ने की सोच भी सकते थे लेकिन, अब हम दुनिया में अपने साथियों के साथ एक ऐसे स्ट्रक्चर पर काम करेंगे जो सही नेतृत्व प्रदान कर सके”। Mike Pompeo (माइक पोम्पिओ) ने ये बात यूं ही नहीं कहा है। वुहान वायरस ने अमेरिका में एक विकराल रूप धारण कर लिया है। अब तक कुल 9 लाख से ज्यादा लोग इसकी चपेट में आ चुके हैं, जबकि करीब 50 हजार लोगों की जान चली गई है।
इस महामारी ने ना केवल चीन के घिनौने रूप को विश्व के समक्ष उजागर किया अपितु इस महामारी की भयावहता को दुनिया से छुपाने में WHO की भूमिका को भी उजागर कर दिया। जहां जापान के उप प्रधानमंत्री तारो आसो ने WHO को चीनी स्वास्थ्य संगठन कहने की बात करी, तो वहीं ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन ने वुहान वायरस को फैलाने में चीन की भूमिका पर एक स्वतंत्र जांच की मांग की। ऐसे में ये कहना ग़लत नहीं होगा कि UN और उससे संबंधित संगठन, जैसे WHO के विघटन का समय अब आ चुका है।
परन्तु UN का WHO की निरर्थकता से क्या संबंध? इसके लिए हमें1918 पर नजर डालना होगा, जब संसार प्रथम विश्व युद्ध और स्पेनिश फ्लू की दोहरी मार से जूझ रहा था। यदि व्यक्ति शत्रु की गोली से नहीं मरता, तो महामारी से अवश्य मर जाता। जैसे तैसे करके नवंबर 1918 तक जब दोनों समस्याओं पर काफी हद तक नियंत्रण पाया गया, तो एक ऐसे संगठन की आवश्यकता महसूस हुई, जो वैश्विक समस्याओं का निस्तारण कर सके, और एक और विश्व युद्ध होने से रोक सके। यहीं से जन्म हुआ UN के पूर्वज संगठन, लीग ऑफ नेशन्स का।
लीग ऑफ नेशन्स की स्थापना जनवरी 1920 में की गई थी, और इसका केंद्र स्विट्जरलैंड के जेनेवा में स्थापित किया गया। इस संगठन का प्रमुख उद्देश्य था विश्व में शांति को स्थापित करना, और प्रथम विश्व युद्ध जैसी स्थिति को रोकना। इसी संगठन की देखरेख में वर्साइल के समझौते को लागू कराया गया, पर यहीं से द्वितीय विश्व युद्ध की नींव पड़ी। वर्साइल के समझौते के प्रावधान जर्मनी की जनता को नागवार गुज़रे, और जल्द ही जर्मन राजनीति में उदय हुआ एडोल्फ हिटलर और उसकी क्रूर नाजी पार्टी का।
एडोल्फ हिटलर के बर्बर शासन और उसकी निजी सनक ने दुनिया को एक बार फिर विश्व युद्ध के दलदल में धकेल दिया गया, और इसका अंत हुआ जापान पर परमाणु बम के हमले से। युद्ध तो समाप्त हो गया, परन्तु इसके कारण जो विश्व को नुकसान हुआ, उसकी भरपाई करने में कई पीढ़ियों की कमर टूट गई।
इसीलिए लीग ऑफ नेशन्स के स्थान पर 1945 में संयुक्त राष्ट्र की स्थापना हुई। इसका प्रमुख उद्देश्य भी लीग ऑफ नेशन्स जैसा ही था, ताकि एक और हिटलर ना पैदा हो। परन्तु आज इस संगठन की स्थापना के वर्षों बाद भी एक प्रश्न शूल की भांति चुभता है – आखिर इस संगठन ने क्या प्राप्त कर लिया?
वैश्विक ताकतों को एक छत के नीचे लाने के उद्देश्य से UN ने UN सुरक्षा परिषद की स्थापना की, परन्तु उसके साथ ही स्थाई सदस्यों के वीटो पॉवर का भी प्रावधान रखा, जो वरदान कम, अभिशाप ज़्यादा साबित हुए। इसी वीटो पॉवर का दुरुपयोग कर आज चीन सम्पूर्ण विश्व से वुहान वायरस की भयावहता और उसके वास्तविक उत्पत्ति को छुपाता आ रहा है।
यदि UN का वास्तविक उद्देश्य वैश्विक शांति की स्थापना और युद्ध रोकना था, तो इसमें वह बुरी तरह फेल हुआ था। वियतनाम का युद्ध, कोरिया का युद्ध, शीत युद्ध या फिर कश्मीर का खूनी संग्राम तो द्वितीय विश्व युद्ध के समय तो हुआ नहीं था।
शीत युद्ध के समय सुरक्षा परिषद सोवियत संघ इतना कमजोर था कि जब कोल्ड वॉर के समय UN security काउंसिल pro US और प्रो USSR गुटों में बंटा हुआ था, तो UN उनके बीच होने वाले तनातनी में कभी भी हस्तक्षेप नहीं करता था और धृतराष्ट्र की भांति आंखें मूंदे रहता था।
क्यूबा के मिसाईल क्राइसिस के दौरान USA और सोवियत संघ युद्ध के मुहाने पर आ चुके थे। हालांकि, फिर दोनों में बाद में समझौता भी हो गया था। परन्तु इसमें UN का कोई हाथ नहीं था। यदि UN वास्तव में शक्तिशाली होता, तो कश्मीर समस्या को सुलझाने के लिए भारत को सख्त रुख ना अपनाना पड़ता।
परन्तु शीत युद्ध के बाद भी UN शक्तिहीन ही नजर आया। इराक युद्ध के दौरान UN तो मानो घुटने टेक चुका था। ना केवल वह कुवैत पर इराक के हमले पर मौन समर्थन देने लगा, अपितु उसने इराक के विरुद्ध एक्शन लेने वाले सुरक्षाबलों को अपना समर्थन देने से भी इंकार कर दिया। अब यमन युद्ध और सीरियाई गृह युद्ध पर UN की सक्रियता के बारे में जितना कम बोले उतना ही अच्छा।
UN तो UN, उससे संबंधित संगठन भी कोई बेहतर नहीं है। जिस तरह से बीजिंग के अत्याचारों को UN अनदेखा करता रहा, उसी का परिणाम है कि वुहान वायरस पूरे विश्व के लिए नासूर बन गया है। WHO तो इस महामारी के समय ऐसे व्यवहार कर रहा था, मानो वह चीनी शासन का निजी प्रवक्ता हो। शायद इसीलिए साउथ चाइना सागर पर निरंतर मैरीटाइम अधिकारों का उल्लंघन करने के बावजूद चीन को अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के कठघरे में खड़ा नहीं कर पाया।
परन्तु यदि UN की असफलता का वास्तविक स्वरूप किसी को देखना हो, तो वह एक बार वह UN के मानवाधिकार काउंसिल की ओर देख सकता है। यह संगठन उन देशों को प्राथमिकता देती है, जिनके लिए मानव अधिकार मज़ाक के समान हैं, और जो मानव अधिकार के वास्तव में हितैषी हैं, जैसे इज़रायल, या फिर भारत, उनके विरुद्ध तो मानो इस संगठन ने संस्थागत भेदभाव करने की कसम ख़ा रखी है। इज़रायल के साथ जो होता है, उसी के कारण अमेरिका जैसे देश तक को इस संगठन से सदा के लिए नाता तोड़ना पड़ा था।
इतना ही नहीं, UN आज भी इस बात पर सहमति नहीं बना पाया कि आतंकवाद की वास्तविक परिभाषा क्या है। इनके लिए भारत का कश्मीर पर रुख अमानवीय है, परन्तु जैश ए मोहम्मद और लश्कर ए तैयबा के अत्याचारों पर ये मौन व्रत साध लेते हैं। यही संगठन आतंकवादियों को मुंहतोड़ जवाब देने वालों को दिन रात सताते हैं, परन्तु मसूद अजहर को बार बार बचाने वाले चीन के विरुद्ध एक शब्द नहीं बोलते।
इससे अच्छे तो बिम्सटेक या ASEAN जैसे संगठन हैं, जो एक तय योजना के अनुसार विभिन्न समस्याओं का सही से निस्तारण करते आए हैं। वे UN की तरह दिशाहीन नहीं रहे है, और ये उनकी सबसे बड़ी शक्ति है।
चाहे इन्हें लीग ऑफ नेशन्स 2.0 कहीं, या फिर United Nations, सच तो यही है कि अब UN, WHO और इस तरह के अन्य संगठनों की विश्वसनीयता समाप्त हो चुकी है। यदि द्वितीय विश्व युद्ध ने लीग ऑफ नेशन्स के अन्त की कहानी शुरु कर दिया था, तो अब वुहान वायरस UN का अंत सुनिश्चित कर रहाहै। अब देखना यह होगा कि इस महामारी के खत्म होने पर वैश्विक शक्तियां किस तरह UN के साथ पेश आती हैं।