जब से कोरोना वायरस पूरे देश में फैला है तब से सरकार ने हजारो ऑर्डर पास किए हैं जो जनता से सीधे तौर पर जुड़ी हुई थीं। गृह मंत्रालय ने भी कई ऑर्डर पास किए जो लॉकडाउन के बारे में थे। परंतु इन ऑर्डर के बीच हमे यह भी देखने को मिला कि सरकार को कई बार अपने ही ऑर्डर का स्पष्टीकरण देना पड़ा। आखिर ऐसा क्या है जो एक बार में ऑर्डर किसी को समझ में नहीं आया या उससे दुविधा बढ़ी। इसका कारण कुछ और नहीं बल्कि नौकरशाही की भाषा है। यह भाषा इतनी कठिन होती है कि अगर व्यक्ति को ब्यूरोक्रेसी के ऑर्डरों और शब्दावलियों का ज्ञान न हो तो वह कभी भी किसी ऑर्डर या अध्यादेश को समझ ही नहीं सकेगा।
भारत बहुत सारी भाषाओं का देश है, लेकिन सरकारी कामकाज में प्रयोग की जाने वाली दो भाषायें हैं, हिन्दी और अंग्रेज़ी। इसमें से भी सभी पदों पर पर बैठे बाबू या अफसर अंग्रेजी का ही प्रयोग करते हैं। यह कोई सामान्य अंग्रेजी भी नहीं होती जो आसानी से किसी को समझ आ जाये। यह भाषा ब्यूरोक्रेसी को पूरी तरह से न्यायिक व्यवस्था की तरह ही बना देती है जो सिर्फ न्याय व्यवस्था से जुड़े हुये लोगों के लिए आसान होती है।
लॉकडाउन के दौरान कई बार यह समस्या पैदा हुई कि सरकार ने पहले ऑर्डर पास कर दिया लेकिन दोबारा उसका स्पष्टीकरण जारी करना पड़ा और फिर स्पष्टीकरण का भी स्पष्टीकरण देना पड़ा। जब 24 अप्रैल को दुकानों के खुलने का ऑर्डर दिया गया तो फिर से गृह मंत्रालय को स्पष्टीकरण देना पड़ा कि सिर्फ एकल दुकान ही खुले मॉल या कॉम्प्लेक्स नहीं।
इसी तरह जब दो दिन पहले एक राज्य से दूसरे राज्य जाने वाले प्रवासियों के वापस अपने राज्य जाने का निर्णय दिया गया तब भी कई समस्याएं खड़ी हो गईं। ऑर्डर में distressed persons लिखा गया था लेकिन उसकी परिभाषा नहीं दी गयी थी। गृह मंत्रालय को फिर से स्पष्टीकरण देना पड़ा।
ऐसा भी समय आया जब प्रवासी या माइग्रेंट जैसे एक शब्द के स्पष्टीकरण के लिए एक अलग सर्कुलर जारी करना पड़ा।
यह पहली बार नहीं हो रहा है जब इस तरह की भाषा से समस्या खड़ी हुई हो। यह आजादी के बाद से ही चला आ रहा है। अंग्रेजी भारत की भाषा नहीं है लेकिन फिर भी से सरकारी काम काज के लिए चुना गया और वही आज तक चलता आ रहा है। भारत में यह भाषा ब्यूरोक्रेसी की वर्चस्वता को दिखती है की किस तरह से बाबुओं ने पूरे सिस्टम पर अपना कब्जा कर रखा है। यहाँ यह समझने वाली बात है कि सरकार जनता के लिए होती है और अगर सरकार द्वारा जारी ऑर्डर जनता को ही नहीं समझ आयेगा तो उसका क्या फायदा?
सोशल मीडिया पर भी अफसरों के इस तरह की भाषा पर गुस्सा देखने को मिल रहे हैं।
Practical question, how do the Police/local authorities know/determine that I am one of the 33% in my office while traveling to work in my own car? This is in Delhi and Mumbai (red zone). Did I miss a clarification or process that has been announced?
— Sanjay Dutt (@thesanjaydutt) May 1, 2020
Okay this is the KAUN BANEGA CLEARPATI CHALLENGE! I tweeted yesterday and this morning, that people in the MHA have no goddamn idea of how to communicate! And that too signed by India’s Home Secretary. If anyone understands this, please let the nation know! 😝 Para 2 is a gem! pic.twitter.com/NkJkFBiNcu
— SUHEL SETH (@Suhelseth) May 3, 2020
https://twitter.com/MajorUpadhyay/status/1257187014367047682?s=20
महत्वपूर्ण पदों पर बैठे बाबू या अफसर नहीं चाहते हैं कि उनकी वर्चस्वता कम या जनता सरकार के अधिक करीब हो जाए। सरकार और जनता के बीच ये बाबू ही बैठे हैं जो एक मिडिएटर ही भूमिका में होते हैं। सरकार के निर्देशों का पालन करना और करवाना दोनों इनका काम है लेकिन यह ऐसी भाषा का प्रयोग करते हैं जिससे जनता सरकार से दूर ही रहे। नियम, पदानुक्रम और प्रक्रियाओं के सख्त पालन की नौकरशाही संस्कृति को बढ़ावा देने वाले मानदंड की कीमत अक्सर जनता को चुकानी पड़ती है। कोरोना वायरस से संबन्धित अधिकतर आदेश लंबे रहे हैं और उन्हे ऐसी भाषा में लिखा गया है जो एक साधारण व्यक्ति के लिए समझना मुश्किल हैं। जनता से संवाद करने के लिए आसान भाषा पर ध्यान नहीं दिया गया तो उसके परिणाम घातक भी हो सकते हैं।
अगर सरकार को जनता से दूरी कम करनी है तो सबसे पहले इतनी कठिन भाषा के प्रयोग पर रोक लगानी होगी और एक आसान भाषा का प्रयोग करना होगा। साथ ही हिन्दी के प्रयोग को बढ़ावा देना होगा। अधिकारियों को भी यह समझना चाहिए कि देश की जनता IAS की परीक्षा पास कर के नहीं बैठी है और उन्हें समझने के लिए एक आसान भाषा की आवश्यकता होती है।