हाल ही में विशेष राज्य से केंद्र शासित प्रदेश के रूप में गठित जम्मू-कश्मीर एक बार फिर से सुर्खियों में है, पर इस बार अलग कारण से। अधिवक्ता मोनिका कोहली ने क्षेत्र में दशकों से चली आ रही दरबार स्थानांतरण, यानी श्रीनगर से जम्मू में प्रशासनिक कार्यों के स्थानांतरण पर एक जनहित याचिका दायर की थी, जिस पर जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने अपना निर्णय सुनाते हुए इस रीति पर विराम लगा दिया।
पर ये दरबार मूव है क्या? ये शुरू कब हुआ था? इस रीति का प्रारंभ हुआ लगभग 150 वर्ष पहले, जब 1872 में कश्मीर प्रांत के तत्कालीन डोगरा शासक महाराजा रणबीर सिंह ने इसे अंजाम दिया था.
स्थानान्तरण की इस रीति का प्रमुख उद्देश्य था कश्मीर की दोनों राजधानी, जम्मू और श्रीनगर पर समान नजर रखना। इसके अलावा एक कारण ये भी था कि डोगरा शासक श्रीनगर की भीषण ठंड से भी बचना चाहते थे। पर इस रीति को स्वतन्त्रता के पश्चात भी जारी रखा गया।
परन्तु इस वर्ष, इस अजीब रीति पर आखिरकार विराम लगा ही दिया गया। यूं तो प्रशासन ने इस निर्णय के पीछे का प्रमुख कारण वुहान वायरस को बताया है, परन्तु केंद्र सरकार को इस निर्णय की पुनः समीक्षा करने का सुझाव देना तो कुछ और ही कहानी बयां करता है।
इसी परिप्रेक्ष्य में जब हाई कोर्ट ने हाल ही में अपना निर्णय सुनाया, तो उन्होंने अपने निर्णय में पूछा-
“क्या कोई सरकार 200 करोड़ का खर्च उठा सकती है, सिर्फ इसलिए ताकि एक लगभग 150 वर्ष पुरानी परंपरा का अनुसरण किया जा सके, वह भी ऐसे क्षेत्र में जहां लोगों को मूलभूत अधिकार भी प्राप्त नहीं?”
परन्तु इस विषय पर अंतिम निर्णय केंद्र सरकार का ही होगा, जिसके कारण हाई कोर्ट ने कोई व्यापक बदलाव की बात नहीं की है। हालांकि यह पहली बार है जब कश्मीर प्रांत के किसी अजीबोगरीब रीति को हटाया गया हो।
कुछ माह पहले अलगाववादी उत्सवों को अपनी कैलेंडर से हटाने के लद्दाख के निर्णय के कुछ ही दिनों बाद अब खबर आ रही है कि जम्मू कश्मीर ने अपने नए कैलेंडर से अलगाववाद को बढ़ावा देने वाले लोगों से संबन्धित उत्सवों को हटाने का निर्णय लिया है। इसी दिशा में उन्होंने अलगाववादी पार्टी और वर्षों तक कश्मीर पर राज करने वाली नेशनल कॉन्फ्रेंस के प्रमुख शेख मुहम्मद अब्दुल्ला के जन्मदिन को जम्मू-कश्मीर के कैलेंडर से हटाने का निर्णय लिया है।
जम्मू कश्मीर प्रशासन ने आगामी वर्ष 2020 के लिए एक नया कैलेंडर जारी किया, जिसमें दो अहम बदलाव हुए। जहां शेख अब्दुल्ला के जन्मदिन यानि 5 दिसंबर को सूची से हटाया गया, तो वहीं 26 अक्टूबर यानि कश्मीर के भारत में विलय के दिन, जिसे ‘Accession Day’ के तौर पर मनाया जाता है, यथावत रखा गया.
इससे पहले भी इस रीति को समाप्त करने के लिए को कदम उठाए गए थे। 1987 में पूरे वर्ष श्रीनगर सचिवालय को खुला रख तत्कालीन मुख्यमंत्री फारुक अब्दुल्ला ने इस रीति को खत्म करने का प्रयास किया था, पर वे पूरी तरह सफल नहीं हो पाए थे।
यह रीति आर्थिक दृष्टि से जम्मू-कश्मीर के लिए काफी कष्टकारी है, जो राज्य के खजाने पर अनावश्यक बोझ डालती है। 1872 में डोगरा शासक अपने खर्चों के लिए उत्तरदाई नहीं थे, परन्तु वर्तमान प्रशासन तो है। अब जब अनुच्छेद 370 पूर्णतया निरस्त हो चुका है, तो केंद्र सरकार को इस अजीबोगरीब नीति को निरस्त करने में तनिक विलंब नहीं करना चाहिए।