कोरोना की वजह से देश भर में लगाए गए लॉकडाउन के दौरान राज्यों में प्रवासी मजदूरों की समस्या खड़ी हो गयी थी, जिसके बाद केंद्र सरकार ने उन्हें वापस अपने राज्य भेजने का निर्णय लिया। लेकिन अब एक नई समस्या खड़ी हो गयी है और वह है इन प्रवासी मजदूरों की बेरोजगारी और इन पर माओवादियों की नजर।
जी हां, लॉकडाउन की वजह से उत्पन्न हुई स्थिति के कारण माओवादी अब अपने राज्य वापस गए प्रवासी मजदूरों के बेरोजगारी का फ़ायदा उठाकर उन्हें माओवादी बनाने की योजना बना रहे हैं।
दरअसल, टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, पुलिस मुख्यालय में प्राप्त खुफिया सूचनाओं के मुताबिक, शहरों से आए बेरोजगार लोगों का फायदा उठाकर माओवादी बड़े पैमाने पर भर्ती अभियान शुरू करने वाले हैं। अधिकारियों का कहना है कि मध्य प्रदेश में ये हिंसक माओवादी बालाघाट, मंडला और डिंडौरी जिलों में अपने घरों लौटने वाले मजदूरों से संपर्क बनाने की कोशिश कर रहे हैं। यही नहीं उन्होंने बताया कि दूरदराज गाँवों में कई माओवादी नेताओं को देखा गया है।
टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट की मानें तो सिर्फ इन तीन जिलों में लगभग 2 लाख मजदूर वापस आए हैं। 90 हजार तो अकेले बालाघाट के हैं। सूत्रों का कहना है कि माओवादी अब उन क्षेत्रों को भी निशाना बना रहे हैं जिन्हें वे छोड़ चुके थे।
माओवादियों की बढ़ी चहलकदमी का पता तब चला जब के Hawk Force के एक जवान पेट्रोलिंग करते समय गोली मार कर घायल कर दिया गया था। एक पुलिस अधिकारी का कहना है कि, “माओवादी जमीनी स्तर के कैडर की भर्ती करने की कोशिश कर रहे हैं। बेरोजगार लोग अपने परिवार और बच्चों की खातिर उन माओवादियों के साथ जुड़ने के बारे में सोच सकते हैं।” अधिकारी का यह कहना गलत नहीं कि नक्सली लॉकडाउन का इस्तेमाल अपने कैडर बेस को मजबूत करने के लिए कर रहे हैं।
यही नहीं रिपोर्ट के अनुसार माओवादियों ने अपने आगमन की सूचना गाँव के बाहर लकड़ियाँ जला कर दी हैं तथा गाँववालों और जंगल विभाग के अधिकारियों को आगाह किया है कि अब और पेड़ों न काटा जाए। एक पेड़ पर टंगे हस्तलिखित पम्पलेट पर लिखकर बोडला एरिया कमिटी ने अपनी मौजूदगी दर्ज कराई थी।
कोरोना से लड़ाई के दौरान सरकार के सामने अब ये एक नई चुनौती है क्योंकि पिछले 6 वर्षों में हुए विकास कार्य और इन माओवादियों पर हुए लगातार कार्रवाई से इनकी कमर टूट गयी थी। न तो इनका कैडर बचा था और न ही इनके पास संसाधन।
रेड जोन में आने वाले क्षेत्रों के लाखो लोगों ने कमाने के लिए शहरों का रुख किया था। परंतु कोरोना के वजह से लगाए गए लॉकडाउन ने इन मजदूरों को वापस अपने जिले में जाने के लिए मजबूर कर दिया है, ये सभी स्किल्ड वर्ग में भी नहीं आते हैं कि ये स्वयं के लिए रोजगार उत्पन्न कर सकें। मौजूदा स्थिति में इन ग्रामीणो के पास आपने परिवार के भरण पोषण के लिए दो ही विकल्प मौजूद है। या तो वे माओवादी संगठनों में शामिल हो या फिर वे इन संगठनो के कंगारू कोर्ट के अत्याचार सहे।
केंद्र सरकार के साथ, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ झारखंड राज्यों की सरकारों को तुरंत इस मामले पर ध्यान देना चाहिए जिससे माओवादियों की टूटी हुई कमर फिर से न खड़ी हो सके नहीं तो यह देश के लिए घातक साबित होगा।
20 वर्ष हो गए छत्तीसगढ़ राज्य बने, लेकिन आज तक नक्सली निवारण का कार्य नहीं किया जा सका है। सुकमा, दंतेवाड़ा, कांकेर के साथ साथ पूरा बस्तर क्षेत्र नक्सलियों से घिरा हुआ है, जिनको ऊँचे स्तर पर शहरी नक्सलियों और देशविरोधियों का समर्थन प्राप्त है। यही हाल मध्य प्रदेश के पूर्वी जिलों का है और झारखंड में स्थिति भी कम नहीं है। वामपंथी उग्रवाद को लेकर मोदी सरकार शुरू से ही बेहद गंभीर रही है और पिछले पाँच से छः सालों में भाजपा की केंद्र और राज्य सरकारों ने बड़े कदम उठाए थे।
मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में गृह मंत्री रहे राजनाथ सिंह ने इस समस्या से निपटने के लिए ‘नेशनल पॉलिसी एंड एक्शन प्लान’ शुरू किया था, जिसके बाद से नक्सल हमलों में कमी देखने को मिली थी। एक तरफ जहां 2017 में भारत के 144 जिले नक्सल समस्या से प्रभावित थे, तो 2018 में यह घट कर 82 तक आ पहुंची थी।
अगर इस मामले पर ध्यान नहीं दिया गया तो वामपंथी माओवादी फिर से उठ खड़े होंगे। केंद्र सरकार को त्वरित निर्णय लेकर शहरो से वापस अपने घर गए मजदूरों के रोजगार के लिए तुरंत मौके तलाशने होंगे जिससे इन माओवादियों को उठने से पहले ही कुचला जा सके।