जब से कोरोना शुरू हुआ है तब से यह कहा जा रहा है कि इससे विश्व का world order बदल जाएगा और जियोपॉलिटिक्स में भारी बदलाव आएगा। परंतु भारत में यह बदलाव इस महामारी के पहले ही शुरू हो चुका था और कोरोना उसी बदलाव को और अधिक मजबूत कर रहा है। यह पहली बार हो रहा है कि देश की जनता का नजरिया केंद्र सरकार की विदेश नीति से मेल खा रही है। अमेरिका के साथ संबंध हो या इज़राइल के साथ विदेश नीति या फिर ताइवान को ही मान्यता देने का विचार क्यों न हो, इन सभी मुद्दों पर पूरे देश में एक ही माहौल बना हुआ है और सरकार भी उसी नीति पर चल रही है। अगर इसे भारत की विदेश नीति में सुधार की प्रक्रिया और जियोपॉलिटिक्स में गतिशीलता कहें तो यह गलत नहीं होगा।
शुरुआत अमेरिका के साथ भारत के रिश्तों की करते हैं। भारत जब स्वतंत्र हुआ था तब विश्व लगभग दो धड़ों में बंटा हुआ था। एक का नेतृत्व अमेरिका कर रहा था तो दूसरे का सोवियत यूनियन। सोवियत यूनियन के साथ भारत का कुछ भी मेल नहीं खाता था वहीं अमेरिका से लोकतंत्र के साथ-साथ कई चीजें मेल खाती थीं। जनता के साथ-साथ तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल भी अमेरिका के साथ संबद्धों के हिमायती थे। परंतु ,तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने सोवियत संघ से रिश्तों को बढ़ाना शुरू किया। जवाहर लाल नेहरू को सोवियत संघ और उसके समाजवाद से इतना प्रेम क्यों था यह आज भी रहस्य है। इसका नतीजा यह हुआ कि अमेरिका पाकिस्तान के नजदीक होता चला गया और भारत के साथ उसका रिश्ता ठंडे बस्ते में चला गया था। पर पीछे कुछ वर्षों से यह रिश्ता दोबारा एक साझेदार में बदल चुका है।
वहीं जब इज़राइल की बात आती है तो कांग्रेस ने सत्ता में रहते हुए ऐसी विदेश नीति का पालन किया जिसे स्ट्रेटजिक ब्लंडर कहें तो गलत नहीं होगा। और अगर इज़राइल का साथ न देने की भूल पर गौर करे तो यह भारत में एक खास वर्ग को खुश करने के लिए किया जा रहा था। यानि तुष्टीकरण की घरेलू राजनीति के लिए कांग्रेस की सरकार अपने विदेश नीति तक की बलि चढ़ा रही थी। संयुक्त राष्ट्र में इजराइल का साथ न देकर और फिलिस्तीन के पक्ष में वोट देकर भारत या यूं कहे कांग्रेस की सरकार ने भारत को इतने वर्षों तक एक बेहद अहम साझेदार से दूर रखा था। हालांकि, भारत के लोगों को इजराइल के साथ संबद्ध बढ़ाने में कोई आपत्ति नजर नहीं आती थी। लोगों को इस्लामिक कट्टरपंथ से होने वाले नुकसान का पता था और भारत के लोगों ने इसे झेला भी था, चाहे वो मोपला का दंगा हो या 1947 में बँटवारे का दर्द हो और फिर पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद। इजराइल भी उसी तरह के कट्टरपंथ का सामना कर रहा था इस वजह से सहानुभूति होना सामान्य है। स्वतंत्रता के बाद से ही दोनों देश के प्रमुख रणनीतिक साझेदार हो सकते थे।
वहीं बात करे ताइवान की तो जवाहर लाल नेहरू ने स्वतंत्रता के बाद से ही हिन्दी चीनी भाई-भाई पर ज़ोर दिया। गृह मंत्री सरदार पटेल द्वारा आगाह किए जाने के बाद भी उन्होंने चीन पर भरोसा किया जिसका नतीजा युद्ध और फिर Aksai Chin (अक्साई चिन) के रूप में चुकाना पड़ा। जब दुनिया People’s Republic of China (PRC) और the Republic of China (Taiwan) में फर्क नहीं समझ पा रही थी तब नेहरू ने बीजिंग यानि PRC के साथ जाने का फैसला कर लिया था। अमेरिका ने भी 1970 के दशक में PRC को पूर्ण रूप से मान्यता दी थी। सरदार पटेल और बीआर अंबेडकर द्वारा चीन के साथ दोस्ती न बढ़ाने की ओर ज़ोर देने के बावजूद पंचशील समझौता किया गया।
लेकिन पीछले एक दशक से विदेश नीति में बदलाव होना शुरू हुआ था और लोगों की भावनाओं को हित में रखा गया। पहले भारत ने प्रतिबंधों की परवाह किए बिना परमाणु परीक्षण कर अपने आप को एक ताकतवर देश के रूप में पेश किया और फिर मनमोहन सिंह के कार्यकाल में भारत ने अमेरिका के साथ परमाणु डील किया। इसके बाद मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद अमेरिका ने भारत को पाकिस्तान से अधिक महत्व देना शुरू किया। अमेरिका को यह समझ में आ गया था कि पाकिस्तान तालिबन को मदद कर उसी के दिये जा रहे रुपयों का इस्तेमाल उसके खिलाफ करवा रहा है। भारत ने भी अपने महत्व को समझा साथ में यह भी कि विश्व अब दो ध्रुवीय नहीं रहा तथा इसमें अपनी पहचान सबसे ऊपर रखनी है।
अमेरिका ने भी भारत से संबंध बढ़ाना शुरू किया और Howdy Modi तथा Namaste Trump जैसे कार्यक्रम रणनीतिक और व्यक्तिगत दोनों स्तर के रिश्तों की गहराई को बताते हैं।
वहीं अगर इज़राइल की बात करें तो पीएम मोदी ने इस महत्वपूर्ण देश के साथ रिश्तों में नई जान फूँक दी है। पीएम मोदी इज़राइल की यात्रा करने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री बने, और उन्होंने अपने इजरायली समकक्ष बेंजामिन नेतन्याहू के साथ एक मजबूत व्यक्तिगत और रणनीतिक रिश्ता विकसित किया। भारत ने इज़राइल को बहुत लंबे समय तक नजरअंदाज किया था, लेकिन आज दोनों देश एक मजबूत साझेदार हैं। संयुक्त राष्ट्र में भी अपनी नीति का बदलाव करते हुए भारत ने इजरायल के पक्ष में वोटिंग किया। यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि इज़राइल के साथ दोस्ती में भारत ने फिलिस्तीन के साथ रिश्ते को खराब नहीं किया।
अब सबसे नए बदलाव में भारत ने ताइवान के प्रति अपने रुख को लोगों की भावनाओं से जोड़ा है। सरकार ने बेहद परोक्ष रूप से संकेत दिए हैं कि वह One China पॉलिसी को अब नहीं माना जाएगा। इसलिए, मोदी सरकार ने ताइवान के राष्ट्रपति त्साई इंग-वेन के शपथ ग्रहण समारोह के लिए दो भाजपा सांसदों को शामिल करने का फैसला किया था। यही नहीं रिपोर्टों के अनुसार, भारत ने चीनी पोर्टफोलियो निवेश पर प्रतिबंध से ताइवान के निवेशकों को छूट देने का फैसला किया है।
इस प्रकार से यह समझा जा सकता है कि देश के भीतर लोकप्रिय भावनाओं और भारत की आधिकारिक विदेश नीति अब एक राह पर चल रही है। यह एक उल्लेखनीय उपलब्धि है। यह एक कूटनीति है जिससे भारत पुन: वैश्विक स्तर पर अपने महत्व को बढ़ा रहा है और इस नीति के केंद्र में पहली बात एक राजनीतिक पद पर बैठे विदेश मंत्री एस जयशंकर हैं।