अपने प्रशासनिक और आर्थिक नाकामियों को छुपाने के लिए भारतीय राजनेता अक्सर क्षेत्रीय राष्ट्रवाद का सहारा लेते हैं। यह अधिकतर गैर हिंदी भाषी राज्यों में होता है। क्षेत्रीय राष्ट्रवाद और राज्यों द्वारा अपनी क्षेत्रीय भाषा को प्रमोट करना किसी भी नजरिए से गलत नहीं है, लेकिन जब यह राजनेताओं द्वारा उनकी विफलताओं को छुपाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है तो इस पर सवाल उठना लाजमी है। राजनेता अक्सर अपनी विफलताओं को छुपाने के लिए इमोशनल कार्ड खेलते हैं और लोगों को बेवकूफ बनाते हैं। ऐसे ही नेताओं में से एक है पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी। कोरोना वायरस के खिलाफ युद्ध में पश्चिम बंगाल बहुत पिछड़ चुका है। मुख्यमंत्री ना तो राज्य को सही से संभाल पाई हैं और ना ही वे केंद्र सरकार के साथ मिलकर इस समस्या का समाधान निकाल पाई हैं।
समाधान तो छोड़िए पश्चिम बंगाल सरकार पर तो अपने यहां कोरोना के आंकड़ों की असल संख्या को छुपाने के आरोप भी लग चुके हैं। दो हफ्तों पहले केंद्र सरकार की जांच के बाद पश्चिम बंगाल को अपने यहां कोरोना के आंकड़ों में वृद्धि दर्ज करनी पड़ी थी। उसके बाद से ममता बनर्जी मीडिया के सामने आने से भी हिचकिचा रहीं हैं। जब से देश में लॉकडाउन लागू हुआ है, उसके बाद से वह लगातार media के सामने आ रही थीं। हालांकि, जब से राज्य सरकार कोरोना के आंकड़ों के मामले पर घिरी है उसके बाद से ममता बनर्जी राजनीतिक आइसोलेशन में चली गई हैं।
अब 12 दिनों के बाद जब उन्होंने आखिरकार एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की तो अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने “बंगाली अस्मिता” का मुद्दा उठाया। उन्होंने केंद्र सरकार के लिए काम करने वाले बंगाल के अधिकारियों पर निशाना साधा और कहा कि वह बंगाली होते हुए भी बंगाल के खिलाफ काम कर रहे हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि यह बंगाली अधिकारी बंगाल की इमेज को खराब करने के लिए केंद्र सरकार के इशारे पर काम कर रहे हैं। बता दें कि आईसीएमआर की जिस टीम ने पश्चिम बंगाल के आंकड़ों पर सवाल उठाए थे उसमें कई अधिकारी बंगाल के थे। इसके अलावा अभी केंद्र सरकार के साथ बिबेक देबरॉय और संजीव सान्याल जैसे कई अधिकारी काम कर रहे हैं जो कि पश्चिम बंगाल राज्य से ही आते हैं। बाद में ममता ने कहा “मुझे केंद्र सरकार के खिलाफ कोई रोष नहीं है और ना ही मैं किसी के खिलाफ हूँ,लेकिन मैं यह सवाल पूछना चाहती हूं कि आखिर बंगाल को निशाना क्यों बनाया जा रहा है। जब हम सब वायरस के खिलाफ लड़ रहे हैं तो बंगाल की आलोचना क्यों की जा रही है”।
ममता सरकार अपने यहां कोरोना वायरस को काबू करने में पूरी तरह विफल साबित हुई। जब सरकार लॉकडाउन को सही से लागू नहीं कर सकी तो सरकार ने कोरोना के आंकड़ों को छुपाना ही सही समझा। इसके दौरान राज्य में हिंदू मुस्लिम दंगे भी खूब देखने को मिले। कई जगहों पर भीड़ द्वारा पुलिस को पीटा गया और उनके वाहनों को भी जला दिया गया। राज्य सरकार द्वारा की जा रही ध्रुवीकरण की राजनीति के कारण राज्य की पुलिस का मनोबल भी पूरी तरह से गिर चुका है और अभी राज्य में कानून व्यवस्था को दुरुस्त करना राज्य सरकार की प्राथमिकताओं में दूर-दूर तक नहीं दिखाई दे रहा है।
कोरोना के समय में ममता सरकार पर अपने ही मजदूरों को वापस राज्य में घुसने ना देने के आरोप भी लग रहे हैं। राज्य सरकार मजदूरों के टिकट का 15% खर्चा देने को भी तैयार नहीं है। इसी को लेकर पिछले दिनों केंद्रीय रेल मंत्री पीयूष गोयल ने भी पश्चिम बंगाल सरकार पर निशाना साधा था और कहा था कि जब राज्य में मजदूरों को वापस लाने के लिए 105 रेलगाड़ी की आवश्यकता है तो राज्य सरकार सिर्फ 8 रेलगाड़ियां ही क्यों चला रही है। टाइम्स नाउ के एक सर्वे में ममता सरकार को देश में सबसे कम लोकप्रिय मुख्यमंत्री बताया गया था और टीएमसी के गढ़ माने जाने वाले कोलकाता में उनकी अप्रूवल रेटिंग सिर्फ 6% थी।
यहां देखने वाली बात यह है कि सरकार के काम से पश्चिम बंगाल के लोग बिल्कुल भी खुश नहीं है। वर्ष 2019 में राज्य से भाजपा को 18 सीटों पर जीत हासिल हुई थी और टीएमसी के बाद भाजपा राज्य में दूसरे नंबर पर आई थी। टीएमसी ने 22 सीटों पर जीत हासिल की थी। भाजपा को उस वक्त 30% के आसपास वोट मिले थे। अब ममता सरकार इस बात को लेकर दुखी है कि वर्ष 2021 में होने वाले विधानसभा चुनावों में बीजेपी को कहीं जीत हासिल ना हो जाए। इसीलिए अब ममता सरकार ने बंगाली अस्मिता का मुद्दा उठाकर लोगों का वोट हासिल करने का प्लान बनाया है। इसके जरिए ममता सरकार अपने कारनामों को छुपाना चाहती है। अब देखना यह होगा कि क्या ममता सरकार का यह पैंतरा चुनावों में तृणमूल कांग्रेस की कोई सहायता कर पाता है या नहीं।



























