5 अगस्त 2019 को भारत ने एक अहम निर्णय में जम्मू कश्मीर में लागू अनुच्छेद 370 के विशेषाधिकार संबंधी प्रावधानों को निरस्त किया और जम्मू कश्मीर के भारत में सम्पूर्ण विलय का मार्ग भी प्रशस्त किया। अब लगभग एक वर्ष बाद इस निर्णय के सकारात्मक परिणाम भी सामने आने लगे हैं। जिस क्षेत्र पर कुछ आतंकियों और अलगाववादियों ने अपनी निजी संपत्ति मानकर कब्जा जमा रखा था, अब उसी जम्मू कश्मीर की सूरत धीरे-धीरे बदल रही है, और अब चाहे गोरखा योद्धा हो या फिर डोगरा, बिहारी यो हा बंगाली, अब हर कोई नए जम्मू कश्मीर में बस सकता है।
कुछ ही हफ्तों पहले भारतीय मीडिया में खलबली मची थी, जब बिहार से संबन्धित एक आईएएस अफसर नवीन कुमार चौधरी को जम्मू कश्मीर की नागरिकता प्रामाणिकता पत्र प्रदान की गई थी। परंतु श्री नवीन कुमार चौधरी अकेले ऐसे व्यक्ति नहीं थे, जिन्हें ये प्रमाण पत्र मिला था। पिछले कुछ महीनों में नवीन जैसे 25000 से अधिक भारतीय नागरिक हैं, जिन्हें वर्षों तक जम्मू कश्मीर में काम करने के कारण जम्मू कश्मीर की नागरिकता प्रमाण पत्र मिला है, चाहे वो सैन्य सेवा से हो या फिर सिविल सेवा के अधिकारी ही क्यों न हो।
जिस प्रकार से जम्मू कश्मीर के केंद्र शासित प्रदेश के प्रशासन में भारतीय नागरिकों को क्षेत्र का नागरिकता प्रमाण पत्र मिल रहे हैं, उससे सिद्ध होता है की अब हर भारतीय का जम्मू कश्मीर पर उतना ही अधिकार है, जितना कि उस क्षेत्र के निवासियों का। परंतु बात केवल यहीं पर खत्म नहीं होती। पिछले एक महीने में इस क्षेत्र में कार्यरत 6600 से अधिक गोरखा योद्धाओं को इस क्षेत्र की नागरिकता प्रमाण पत्र प्रदान की गई है।
ये ऐतिहासिक रूप से भी बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि जब कश्मीर राज्य को डोगरा और सिख समुदायों के योद्धाओं ने इस्लामी आक्रांताओं के चंगुल से मुक्त कराया था, तब सबसे पहले गोरखा योद्धाओं को राज्य के संरक्षण के लिए तैनात किया गया था। अब एक बार फिर इन वीर गोरखा योद्धाओं को जम्मू-कश्मीर में बसाया जा रहा है। अब उन्हें संपत्ति खरीदने, सभी केंद्र शासित प्रदेशों में नौकरियों के लिए आवेदन करने की अनुमति मिल गई है।
पर ये निर्णय इतना अहम क्यों था? इसके लिए हमें अनुच्छेद 370 के निरस्त प्रावधानों की ओर नज़र डालनी पड़ेगी। अनुच्छेद 370 के प्रावधानों के अनुसार जम्मू-कश्मीर को विशेषाधिकार प्राप्त था, जिसके अंतर्गत भारत के अन्य किसी भी क्षेत्र का कोई भी व्यक्ति यहाँ न बस सकता था, और न ही किसी संपत्ति पर अपना अधिकार जमा सकता था। इतना ही नहीं, यदि इस राज्य की लड़कियां किसी अन्य राज्य के युवकों से विवाह करती, तो वह उसी क्षण से जम्मू-कश्मीर में अपनी संपत्ति और अपने नागरिकता का अधिकार खो देती थीं। यानि कम शब्दों में एक भारतीय अपने ही देश के क्षेत्र में न बस सकता था और न ही संपत्ति का अधिकारी हो सकता, पर इसी अधिनियम का दुरुपयोग कर पाकिस्तानी घुसपैठ या फिर इस्लामी आक्रांता अपनी मनमानी कर सकते थे।
परंतु अनुच्छेद 370 के निरस्त होने से अब कश्मीर के इन पूर्व ठेकेदारों की सारी मंशाओं पर पानी फिर रहा है। चाहे पीडीपी हो या फिर National Conference, सभी इस बात से भयभीत है कि कहीं जम्मू कश्मीर की राजनीति पर इनका एकाधिकार न खत्म हो जाये। फारूक अब्दुल्ला ने तो यहाँ तक कह दिया कि वे भारत सरकार द्वारा कश्मीर के मुसलमानों को बाहर निकालने की इस मंशा को कामयाब नहीं होने देंगे। इतना ही नहीं, अल जज़ीरा और पाकिस्तानी प्रशासन भी सरकार के इस निर्णय से अत्यंत भयभीत प्रतीत होते दिखाई दिये हैं।
सच कहें तो कश्मीर के इन पूर्व ठेकेदारों का भय एकदम उचित है, और होना भी चाहिए। वर्षों पहले कश्मीर घाटी से जिस तरह से इन लोगों ने कश्मीरी हिंदुओं और सिखों को धक्के मारकर बाहर निकाला था, उससे इन लोगों में डेमोग्राफी बदलने का भय होना स्वाभाविक है। अगर फिल्मी अंदाज़ में कहें, तो “ये डर अच्छा है, ये डर होना ही चाहिए, ये डर हमें अच्छा लगा”।