‘इलेक्ट्रिक वाहनों के उत्पादन में चीन का वर्चस्व होगा समाप्त’ QUAD चीन को देगा एक बड़ा झटका

'Legion of Merit'

जैसे-जैसे दुनिया fossil fuels से दूरी बनाती जा रही है, वैकल्पिक ऊर्जा के स्त्रोत को लेकर दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति कर रहे हैं। इसी में एक अहम क्षेत्र – इलेक्ट्रिक वाहनों में उपयोग में लाये जाने वाले लिथियम बैटरी है जिसके उत्पादन में चीन का एकछत्र राज्य हुआ करता था, परंतु अब और नहीं। अब भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया चीन के इस वर्चस्व को खत्म करने के लिए एड़ी चोटी का ज़ोर लगाने को तैयार हैं।

1990 के दशक में लिथियम आयन बैटरियों का मूल रूप से जापानी बहुराष्ट्रीय समूह, सोनी द्वारा व्यवसायीकरण किया गया था। यह बैटरी अपने आप में बहुत क्रांतिकारी है, क्योंकि इसमें हाई एनर्जी density, लंबे समय तक चार्ज रहने की क्षमता, हल्की बनावट और कई अन्य फीचर्स इसे मोबाइल, लैपटॉप और इलेक्ट्रिक वाहनों में उपयोग के अनुकूल बनाती है।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि लिथियम बैटरी वैश्विक परिवहन का नक्शा बदलकर रख देगी। लेकिन इस समय लिथियम बैटरी का उत्पादन कोई आसान काम नहीं है, जिसके कारण इनके दाम कभी-कभी आसमान छूने लगते हैं। उदाहरण के लिए टेस्ला मॉडेल 3 की गाड़ी का एक तिहाई दाम केवल और केवल उसकी बैटरी के कारण है। इलेक्ट्रिक वाहन व्यावसायिक रूप से व्यवहार्य तभी बनेंगे जब LiB की लागत में कमी आएगी। विशेषज्ञों का मानना है कि अगले एक दशक में लिथियम बैटरी का मूल्य 176 अमेरिकी डॉलर प्रति किलोवॉट से 100 डॉलर प्रति किलोवॉट हो जाएगा। इससे लिथियम बैटरी पर चलने वाले वाहन आम वाहनों में इस्तेमाल होने वाले ईंधन की बराबरी कर पाएंगे।

चूंकि चीन इस उद्योग का वर्तमान सम्राट है, इसलिए अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया चाहते हैं कि चीन को हर क्षेत्र की तरह यहाँ से भी बाहर का रास्ता दिखाया जाए। इसी दिशा में चारों देशों ने अपना काम शुरू भी कर दिया है। यूं तो चीन के पास लिथियम की कोई कमी नहीं है, परंतु वह जानबूझकर अपना लिथियम उपयोग में कम ही लाता है, क्योंकि उसे भली भांति पता है कि आने वाले समय में लिथियम विश्व का ‘व्हाइट पेट्रोलियम’ साबित होगा।

हालांकि, अन्य देश भी इसके महत्व को समझते हैं। उदाहरण के लिए भारत को ही ले लीजिये। 2018 में तत्कालीन भारी उद्योग और सार्वजनिक उद्यम मंत्री अनंत गीते ने बताया था कि अब भारत लिथियम के लिए चीन पर निर्भर नहीं रहेगा। इसके लिए भारत ने दक्षिण अमेरिका के ‘लिथियम ट्राइएंगल’ यानि लिथियम के भंडार के मामले में दक्षिण अमेरिका के तीन प्रमुख देशों – चिली, बोलिविया एवं अर्जेंटीना से लिथियम की  जरूरत को पूरा करने का प्ररबंध किया है। इसीलिए भारत ने लिथियम बैटरी के उत्पादन में सहायता हेतु बोलिविया के साथ एक एमओयू पर हस्ताक्षर भी किया है। यहीं नहीं, लिथियम के उत्पादन और प्रोसेसिंग के लिए भारत जापान और ऑस्ट्रेलिया की भी सहायता लेने वाला है। जापानी कंपनी सुजुकी मोटर कॉर्पोरेशन ने तोशिबा और डेन्सो के साथ एक जाइंट वेंचर पर भी हस्ताक्षर किया है, जिसके अंतर्गत वे भारत के गुजरात में स्थित देश का पहला लिथियम बैटरी उत्पादन केंद्र भी शुरू करेंगे।

इस मामले में ऑस्ट्रेलिया भी कहीं से पीछे नहीं रहना चाहता। ऑस्ट्रेलिया स्थित नीयोमेटल्स और भारत के मणिकरण पावर ने भारत के पहले लिथियम रिफ़ाइनरी के लिए साथ में काम करने का निर्णय लिया है। यह इसलिए भी बहुत महत्वपूर्ण निर्णय है क्योंकि ऑस्ट्रेलिया के पास लिथियम भंडार की कोई कमी नहीं है। ऑस्ट्रेलिया के पास करीब 27 लाख टन लिथियम का भंडार है।

इसके अलावा ऑस्ट्रेलिया और जापान में लिथियम बैटरी के उत्पादन को लेकर पहले ही काफी गहन बातचीत हुई है। ऑस्ट्रेलियाई फेडरल एजेंसी, कॉमनवेल्थ साईंटिफ़िक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च ऑर्गनाइज़ेशन एवं जापानी केमिकल उत्पादक पीओट्रेक ने ऑस्ट्रेलिया में लिथियम बैटरी के उत्पादन हेतु पाँच साल के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किया है।

अब ऐसे में भला अमेरिका कैसे पीछे रहता? यूएस वैश्विक लिथियम आपूर्ति में केवल 2 प्रतिशत तक का ही योगदान कर पाता है, जबकि उसके पास विश्व के लिथियम भंडार का करीब 17 प्रतिशत हिस्सा है। इसीलिए अमेरिका भी चीन के वर्चस्व को खत्म करने हेतु अपने लिथियम उत्पादन को बढ़ावा देना चाहता है, और ये इसलिए भी और ज़रूरी है, क्योंकि वैकल्पिक ऊर्जा के बल पर चलने वाले वाहनों में सबसे बड़ी कंपनी माने जाने वाली टेस्ला अमेरिकी कंपनी है।

जब वैश्विक वाहन बिजली पर चलने लगेंगे, तो अमेरिका ही इस क्षेत्र में सबसे आगे होगा, इसीलिए लिथियम का उत्पादन अमेरिका के हित में ही है। इसी दिशा में काम करते हुए अमेरिका के लिथियम मिनरल्स Inc ने जापान ऑयल, Gas and Metals National Corp के साथ Nevada में लिथियम के खनन के लिए समझौते पर हस्ताक्षर किया है।

निस्संदेह चीन इस समय लिथियम के उत्पादन में बादशाह हो सकता है, पर अब अमेरिका और भारत सहित अन्य वैश्विक ताकतों ने भी तय कर लिया कि वे चीन की हेकड़ी अब और नहीं चलने देंगे। भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे देश अब चीन के वर्चस्व को तोड़कर अपनी धाक जमाने के लिए हरसंभव प्रयास करने को तैयार है।

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